Wednesday, December 21, 2011

कल्पना भावना संवेदना एवम अध्यात्मिक चेतना

कल्पना किसी भी अविष्कार की पहली सीढी होती है
कल्पना के बिना किसी भी कृति की रचना संभव नही है
चाहे वह कविता गीत गजल या चित्रात्मक कृति  हो
कल्पना वह अंकुर है जो पल्लवित होकर विशाल व्रक्ष बन जाता है
कल्पना वह छोटा जल स्त्रोत है जो निर्झर से सागर बनने का उपक्रम है
कल्पना से शून्य व्यक्ति रचनाधर्मिता से विहीन होता है
लेकिन कल्पना का उदगम मनुष्य की संवेदना ,भावना ,से होता है
भावना एवम संवेदना से शून्य व्यक्ति कल्पना विहीन होता है
उस व्यक्ति में सृजन की सम्भावना नहीं होती
कविता शब्द शिल्प के माध्यम से हृदय की अनुभूतियो को
लय में सजाना है जिसे भिन्न -भिन्न अलंकारों एवम बिम्बों से सुसज्जित किया जाता है
कविता का रचा जाना एक अध्यात्मिक अनुभव भी है
अचानक ऐसे भावो का प्रकट होना जिनका  स्वत स्फुरण हो
ईश्वरीय अनुभूति होते है
प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि इसी अंत प्रज्ञा से वेद की ऋचाये  रचते थे
शनै शनै उनका संग्रह ग्रंथो से  निर्माण हो जाता था
श्लोको का सृजन भी इसी अंत प्रज्ञा से हमारे विद्वान कर लिया करते थे
भगवान् कृष्ण जो सभी प्रकार की सिद्दियो से संपन्न थे उनमे भी
काव्य सृजन का सिध्दी थी इसीलिए उपनिषद जैसे जटिल ग्रन्थ को गीता के रूप में सरलीकृत कर दिया
काव्य सृजन हो या संगीत कला दोनों में ही व्यक्ति का आत्मोत्थान होता है यह अवश्य है उक्त कार्य व्यक्ति को समर्पण एवम निस्पृह भाव से करना होते है
व्यक्ति की अध्यात्मिक उन्नति कुण्डलिनी जागरण की अवस्था पर भी निर्भर करती है
नाद योग से हमारे कई संगीतज्ञो का कुण्डलिनी जागरण हुआ है
आशय यह है व्यक्ति को सृजन कर्म में रत रहना चाहिए
इसी में व्यक्ति परिवार समाज ही नहीं आत्मा का भी कल्याण है