Wednesday, February 29, 2012

श्रीराम का सौम्य स्वभाव एवम व्यवहारिक जीवन

रामायण मे दो प्रसंग ऐसे आते है
जब भगवान श्री राम के व्यक्तित्व के उस पहलु को उजागर किया है
जब व्यक्ति अपने शांत स्वभाव के कारण
व्यक्ति की सही पहचान एवम सही मुल्यांकन कर सही निर्णय पर पहुच पाता है
प्रथम प्रसंग तब घटित होता है जब श्रीराम को वनवास प्रस्थान के दौरान
उनके अनुज कैकय के पुत्र भरत श्रीराम मनाने हेतु सेना एवम अयोध्या की जनता के साथ आते  है
तो श्रीराम के अन्य अनुज लक्ष्मण उद्विग्न होकर कहते है कि
भैया भरत हम पर आक्रमण करने हेतु आ रहा है
उसका प्रतिकार किया जाकर सबक सिखाया जाय
इस पर श्रीराम शांत होकर लक्ष्मण को समझाते है कि भरत हमारा भाई है
ऐसा  करना ठीक नही है
तदपश्चात भरत के निकट आने पर भरत श्रीराम को अयोध्या चलने हेतु मनाते है
राम द्वारा मना करने पर भरत विलाप करते है
भरत चौदह वर्ष तक राम कि चरण पादुका अयोध्या के सिहासन पर रख कर स्वयम अयोध्या के बाहर
कुटिया मे तपस्वी की तरह राम की अनुपस्थिति मे राज काज सम्हालते है
दूसरा प्रसंग तब घटित होता है जब राम रावण के युध्द के पूर्व रावण का अनुज विभीषण
राम के शिविर की और  आते है तो श्रीराम की सेना के सहयोगी कहते है कि विभीषण जो रावण का अनुज है
उसका संहार कर देना चाहिये
उस समय भी श्रीराम अविचल भाव से विभीषण के निकट आने की प्रतिक्षा करते है
निकट आने पर उससे चर्चा कर उसे शरण देते है
तात्पर्य यह है कि आवेश वेग आवेग तथा किसी अन्य व्यक्ति के बहकावे मे आकर किसी भी व्यक्ति के सम्बन्ध मे
राय नही बनानी चाहिये
अपितु धैर्य पूर्वक व्यक्ति विशेष के सम्बन्ध मे समग्र अध्ययन स्थितियो का विश्लेषण कर निष्कर्ष निकलना चाहिये
जिसके परिणाम अपेक्षा के अनुकूल प्राप्त होते है तथा सहयोगीयो की संख्या मे वृध्दि होती है
अन्यथा वेग आवेग आवेश बहकावे मे लिये गये निर्णयो के आधार पर बनायी गई राय
सर्वहित के स्थान पर व्यापक क्षति का कारण होती है 

Friday, February 17, 2012

शांति समृद्धि एवम स्थायित्व


प्रत्येक काल में एक वर्ग होता है शासक 
दूसरा वर्ग होता है शासित 
शासक वर्ग नियम विधान निर्मित करता है
 जिसका पालन शासित वर्ग को करना होता है 
शासक वर्ग स्वयं उन नियमो का पालन नहीं करता यही कारण वर्ग संघर्ष को जन्म देता है 
प्राचीन काल में शासक वर्ग देवता कहलाते थे 
जो तत्समय नियम विधान पाप पुण्य कर्म धर्म को परिभाषित कर समाज को अधिनियमित करते थे 
किन्तु ऐसे कई उदाहरण मिलते है 
जिनमे देवताओं ने उन नियमो का पालन नहीं किया जिनका निर्माण उन्होंने किया था 
ऐसा आज भी होता है की समाज का प्रभावशाली वर्ग नियम विधियों का पालन नहीं करता है
 प्रत्येक समय समाज में कुछ लोग इस विषमता के विरुद्ध खड़े हुए
 प्राचीन काल में जिन्हें दानव ,राक्षस ,असुर कहा गया  उनका यह आग्रह था
 की नियमो का देवता भी उसी तरह  पालन करे जिस प्रकार मानव पालन करते है 
मानव को वे कमजोर प्राणी मानते थे जो देवताओं की कृपा पर आश्रित रहते थे 
असुर संस्कृति उस समय अत्यधिक समृद्ध थी 
असुर अर्थात राक्षस किसी की कृपा पर आश्रित न रह कर स्वयं के पुरुषार्थ पर विश्वास करते थे 
इसलिए धन वैभव से समृद्ध तथा सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली थे 
उन्होंने अनेक बार देवताओं को पराजित भी किया था 
किन्तु कई बार उन्होंने नैतिकता का अतिक्रमण भी किया 
जिसके दुष्परिणाम उन्हें समय समय पर भोंगने पड़े इसका आशय यह नहीं की वे पूरी तरह से गलत थे 
राक्षस त्रिदेवो में से ब्रह्मा जी एवम शिवजी  की साधना पर ज्यादा विश्वास करते थे 
जो उनकी दृष्टि में निष्पक्ष देव थे 
आज राक्षस जैसी मनोवृत्ति के लोग समाज देश में विद्यमान में उनके तर्क तथा मानसिकता को समझने की आवशयकता है तथा समाज में शासक एवम शासित में भेद समाप्त करने की आवश्यकता है 
इसी से समाज में से आक्रोश का भाव समाप्त किया जा सकता है तथा समाज में शांति समृद्धि एवम स्थायित्व स्थापित किया जा सकता है

Tuesday, February 7, 2012

सत्यम शिवम् एवम सत्य के प्रतिष्ठान शक्ति पीठ

सत्यम शिवम् सुन्दरम 
अर्थात सत्य कल्याणकारी हो मधुर ,सुन्दर हो 
सत्य कल्याणकारी हो सकता है 
किन्तु सदा सुन्दर नहीं हो सकता
सत्य कुरूप ,कटु ,नग्न भी हो सकता है
जो कल्याणकारी तो होगा परन्तु सुनने  देखने में कुरूप ,कटु ,नग्न होगा 
क्योकि असत्य का आवरण कुरूप ,एवम नग्न सत्य को ढक तो सकता है
उससे किसी का कल्याण नहीं होता ऐसे सत्य को बर्दाश्त करना जहर पीने के सामान होता है 
इसलिए सत्य के साथ शिव शब्द का उल्लेख आया है सत्य ईश्वर का पर्याय है 
जहा सत्य है वहा ईश्वर है
सत्य पर आवरण डालना ईश्वरीय तत्व को सामने न आने देना है 
ऐसे व्यक्तियों से ईश्वर कैसे प्रसन्न हो सकता है सम्पूर्ण अपराध शास्त्र ,न्याय शास्त्र में अपराध का अन्वेषण एवम विचारण की प्रक्रिया सत्य के अन्वेषण पर आधारित है
इसीलिए सत्य के प्रयोग सदा सफल रहे है 
सत्य के रूप में ईश्वर से साक्षात्कार उसी व्यक्ति को हो सकता है
जिसमे शिवत्व अर्थात शिव के समान सहिष्णु भाव एवम लोक कल्याण की भावना हो
शिव के साथ उनकी अर्ध्दांगिनी सती का उल्लेख
तथा सती के द्वारा सत्य एवम शिव की रक्षार्थ आत्मदाह करना यह दर्शाता है 
की व्यक्ति को सत्य की रक्षा के लिए आत्म आहुति देने के लिए तत्पर रहना चाहिए
यह उल्लेखनीय है की सती आत्मदाह करने के पश्चात शिव जी ने उनके शव को लेकर तांडव नृत्य किया था जिससे सती के शरीर के भिन्न भिन्न अंग भारत वर्ष में भिन्न भिन्न स्थानों पर गिरे थे
जहा जहा गिरे थे उन स्थानों को शक्ति पीठ के रूप में प्रतिष्ठित किया गया 
अर्थात सत्य के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने वाले व्यक्ति के लिए 
शिव ,सत्य रूपी ईश्वर क्रुध्द हो जाते है 
माता सती के शव के अंग के टुकड़े जहा जहा गिरे 
वे स्थान ५२ शक्ति पीठ कहलाये 
वे शक्ति पीठ न होकर वास्तव में ५२ सत्य के प्रतिष्ठान है
जिनके दर्शन कर माता सती के सत्य के प्रति बलिदान का स्मरण किया जाता है
वहा झूठ फरेब को छोड़ कर दर्शन करना चाहिए अन्यथा दर्शन का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है

Monday, February 6, 2012

कार्तिकेय भगवान्





शिव शंकर के पुत्र भगवान् कार्तिकेय 
जिन्हें दक्षिण भारत में मुरुगन स्वामी ,सुब्रह्मण्यम स्वामी नामो से भी पुकारा जाता है 
उनके सम्बन्ध में यह प्रचलित है की वे मयूर पर सवारी करते है
तथा निरंतर गतिशील रहते है 
भगवान् कार्तिकेय जिन्हें अग्निनंदन ,सनत कुमार ,गांगेय ,क्रौंचारी  के नामो से संबोधित किया जाता है 
देवताओं के सेनापति कहलाये जाते है
उनका जीवन में एक मात्र उद्देश्य
शिवत्व अर्थात कल्याणकारी श्रेष्ठ विचारों का प्रचार प्रसार है
इस कार्य के लिए उन्होंने अखंड ब्रहमचर्य धारण किया है 
जहा भगवान् श्री गणेश माँ पार्वती के प्रिय पुत्र है वही भगवान् कार्तिकेय भगवान् शिव के परम प्रिय पुत्र है 
भगवान् कार्तिकेय में शिव जी का सम्पूर्ण व्यतित्व प्रतिबिंबित होता है 
शिव जी जैसा वैराग्य ,भोलापन ,सांसारिकता से दूर लोक कल्याण की भावना सभी गुण उनमे समाहित है
कार्तिकेय जी द्वारा कभी भी स्वयं को महिमा मंडित 

करने का प्रयास नहीं किया गया 
अपितु उन्होंने अपने पिता शिव शंकर का गुण गान उनके गुणों का प्रचार कर उन क्षेत्रों में  धर्म की स्थापना की जहा द्रविड़ संस्कृति विद्यमान थी 
कार्तिकेय जी पहला उदाहरण है
 जो इस कारण पूजित वन्दित हुए की 
उन्होंने निज पूजा करवाने के बजाय शिव पूजा पर जोर दिया 
कार्तिकेय जी निरंतर सक्रियता रहने का धोतक है
उनका जीवन यह सन्देश देता है की 
सक्रीय रह कर निरंतर शिव प्रचार अर्थात 
श्रेष्ठ कर्म करने से स्वत शिव अर्थात परम पिता परमात्मा की 
प्राप्ति हो सकती है
प्राचीनकाल में  कथा है की ताड़कासुर नामक राक्षस था का वध  
 कार्तिकेय देव द्वारा किया गया था
आखिर त्रिदेवो सहित समस्त देवी देवता उसका  वध करने मे क्यो असमर्थ हो गये थे?
यह सत्य है कि उसे ब्रह्मदेव से बहुत सारे वरदान प्राप्त थे
 
ताड़कासुर प्रखर पुरुषार्थी के साथ अजेय पराक्रमी भी था
किन्तु वह असत्य ,अनाचार, अन्याय का प्रतिनिधि था
उसका वध मात्र बाहुबल से किया जाना संभव नही था
असत्य की सत्ता को बेदखल करने के लिये नैतिक बल की आवश्यकता होती है
ताड़कासुर के वध के लिये शिव पुत्र का चयन का क्या अर्थ हो सकता है?
शिव अर्थात लोक कल्याण के देवता 
शक्ति अर्थात सत्य पर मर मिटने की
प्रखर इच्छा शक्ति 
दोनो के संयोग से जो निश्छलता लिये सन्तति जन्म लेती है
वह कुमार कार्तिकेय के रूप मे अवतरित होती है
कार्तिकेय ने बाल्य अवस्था मे देवताओं का नेत्रत्व कर आसुरी शक्तियो के प्रतिनिधी ताड़कासुर का नाश किया
आशय  यह है कि बालक सी निश्छलता लिये जो व्यक्ति नैतिक बल को लेकर
सज्जन शक्तियो को साथ लेकर सत्य के लिये संघर्ष करता है
वह बडी -से बडी बुराई को परास्त करने का सामर्थ्य रखता है
अधिकतर सत्य के प्रवक्ता इसीलिये अपने उद्देश्य की 
पूर्ति मे विफल हो जाते है
उनके भीतर का नैतिक बल निर्बल होता है
क्योकि वे स्वयम जाने-अनजाने प्रपंचो,पाखंडो से घिरे रहते है



Saturday, February 4, 2012

पुरुषार्थ की प्रतीक माँ नर्मदा


माँ नर्मदा पुरुषार्थ की प्रतीक है
वह आस्था का दीप है
माँ नर्मदा प्रवाह के प्रतिकूल बहने का प्रमाण है
विषमताओ में समता स्थापित करने का प्रयास है 
माँ नर्मदा अन्धानुकरण नहीं है
अपितु अंधी आस्थाओं को आराधना का पथ दिखाने का प्रकाश पुंज है
माँ नर्मदा भावो का अन्त्योदय तथा असुविधाओ में सुविधाओं का उदय है
शिवत्व इसमें समाहित है यह शून्य में सृष्टि को उत्पन्न करने का चमत्कार है
जो अमर कंटक से छोटे से जल स्त्रोत से  सागर बनने का उपक्रम है
इसीलिए माँ नर्मदा अमरकंटक से अपनी यात्रा को प्रारंभ करती  हुई
मध्यप्रदेश के बड़े क्षेत्र में अपने जल का वरदान बिखेरती हुई
महाराष्ट्र ,एवम गुजरात होते हुए  अरब सागर में गिरती है
माँ नर्मदे  के गंगा जी के सामान शिव जी के मस्तक से नहीं निकलती है
यह तो शिव जी के तप के फलस्वरूप उनके पसीने का प्रताप है
अर्थात माँ नर्मदा शिव जी के पुरुषार्थ का प्रतीक है
माँ नर्मदा ग्लेसियर से नहीं बनती है
वह सहज स्वत पर्वत की ऊँची चोटी से निकल कर उस क्षेत्र को सींचती जो अनछुआ रह गया है
अर्थात माँ नर्मदा पूर्णता प्राप्ति का प्रयास है
स्कन्द पुराण जो भगवान् कार्तिकेय  से सम्बंधित है
में माँ रेवा का विस्तृत उल्लेख है यह महर्षि दधिची की तपोस्थली धर्मपुरी नगरी को भी तृप्त करती है
भगवान् शिव जी  के व्यक्तित्व को कही देखना हो तो माँ रेवा अर्थात माँ नर्मदा के दर्शन करना चाहिए नर्मदा जी के हर कंकर को शंकर के रूप में पुकारा गया है
शास्त्रों में इस कारण यह वर्णन है की यह सात पवित्र नदियों में शामिल है
क्योकि  अन्य पवित्र नदियों जिनमे गंगा ,यमुना ,ब्रह्मपुत्र,सिन्धु ,कावेरी व् विलुप्त सरस्वती नदी है 
में स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है जबकि माँ नर्मदा के दर्शन मात्र ही पुण्य प्राप्ति के लिए पर्याप्त है