Wednesday, October 31, 2012

नीती और नियत

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व्यक्ति ,समाज ,या संस्था की नियति
नीती निर्धारको की नियत और  नीती से निर्धारित होती है
नियत अच्छी हो तो नीतीया अच्छी बनती है
नैतिकताये जो स्थापित करते है
वे नीतीवान नेत्रत्व करते है
ऐसे नेत्रत्व के सहारे देश
औरसमाज आगे  बढते है
नीतीया स्पष्ट
हो तो समाज और  व्यक्ति को कम कष्ट  होते है
वर्तमान मे नीतीवान ही नही नीतीया गतिमान होनी आवश्यक  है
गतिमान नीतीयो से ही योजनाये मूर्त रूप लेती है
परिवार हो समाज हो कोई संस्था हो या कोई देश प्रदेश हो
परियोजनाओं की सफलताये कठीन परिश्रम 
और  दूरदर्शीता पर निर्भर होती है
प्रतिबद्धताये इन्सान को किसी भी अभियान से जोडती है
अभियान किसी भी सकारात्मक उर्जा को समग्र 
और  सम्यक रुप देने के लिये होता है
किसी भी कार्य की समग्रता के लिये पूर्ण समर्पण आवश्यक  है
कार्य के प्रति समर्पण व्यक्ति को एकाग्रता प्रदान करता है
एकाग्रता अल्प समय मे वांछीत लक्ष्य की प्राप्ति मे सहायक है
सपनो हो साकार इसलिये समग्र चेतना से कार्य करते जाईये
निज चेतना मे निराकर सत्ता की अनुभूति जरुरी है
अनुभूतिया जितनी व्यापक होगी अनुभव का आकार उतना ही होगा
अनुभव की गहनता से कल्याण होगा नव निर्माण होगा


क्षणिकाये

               
         (1)
वे भ्रष्टाचार उन्मूलन प्रकोष्ठ के है 
पदाधिकारी
मिल जायेगी उनके पास
सभी भ्रष्टाचारियो की जानकारी
जिसे दबाने के लिए वे लेते है
 रिश्वत भारी
  
        (2)
हाथ से निकले हुए
धन के सूत्र है
 क्योकि
वे माता सरस्वती के पुत्र है 
              (3)
वे कौमी एकता के
हिमायती कहलाते है
 और कौम के नाम पर
परस्पर विरोधी तस्करों को
एक ही मंच पर लाते है
 

Monday, October 29, 2012

पूनम से हे! देव मिले ,सरस सुधा रसपान


शरद शीत प्रारम्भ है , हुई सर्द हर रात
शरद पूर्णिमा  मे करता है,नभ अमृत बरसात

शारदीय नवरात गई,शक्ति भक्ति के साथ
तापमान गिरता गया,हिमवत भए जजबात

क्षीर पीकर संतृप्त हुये,त्रप्त हुआ अब व्योम
त्रिशक्ति जो साध सके,मिलते उसको ओ३म्

चन्दा मामा झाँक रहे ,झिल-मिल चंचल नीर
मातु हमे भव तार दे,मन से हर ले पीर

देवो से है स्वर्ग भरा, धरा मनुज का गाँव
शरद चन्द्रमाँ  बरस रहा ,हर्षित है उर भाव

रहे चन्द्र सा मेरा मन ,तन मन हो घनश्याम
पूनम से हे देव मिले ,सरस सुधा रसपान
 

शरद पूनम की अति भायी

कोमल कोपल पर ठहरी बुँदे
निशा  की उमस में इतराती है
उषा से ऊर्जा  ले  रूप पाती है
पाकर ठंडक वह हिम लाती है
दूब की हरीतिमा  है उसकी माई
दूब के भीतर से ही वह बन पाई
खग ,भ्रमर भी अब खुशिया लाये
सर्दी के भीतर रह पल मुस्काये
शरद के संग संग अब मन गाये
चेतनता को पा हम बन पाये
सूरज से शीतलता सकुचाई
शीतलता भीतर तक अब आई
प्राणों ने दीप्ती है चमक पाई
शरद पूनम  की अति भायी
हर पल के भीतर खुशबू छाई

Thursday, October 25, 2012

विजयादशमी राम और रावण













विजयादशमी राम और रावण


विजयादशमी अर्थात  विजय का दिन अधर्म पर धर्म की विजय का दिन , असत्य पर सत्य की विजय का दिन रावण पर राम की विजय का  दिन .
रावण - रावण अति विद्वान पंडित, सास्त्रो का ज्ञाता, ज्योतिष्य विद्या मैं निपुण , महान कवि , एक अच्छा संगीतकार ,
शिव का परम भक्त ,
युद्ध एवं राजनीती का कुशल . अति बलवान , अस्त्र सस्त्र और सास्र्त्रो का धनि , स्वर्ण लंका का स्वामी.  देवो पर विजय प्राप्त  . 
और भी अनेक गुणों और कलाओ मैं महारथी रावण सर्वगुण सम्पन्न ,
एक ही व्यक्ति मैं जब इतने गुण हो जितने दस लोगो मैं होते हैं तो उसे दसानंद कहने मैं कोई अतिश्योक्ति नही हैं . रावण ने अपने  पुरसार्थ 
के द्वारा इतनी  योग्यता प्राप्त की के  देवता भी उससे भयभीत रहते सारी धरा उसकी शक्ति के आगे डोलने लगती परन्तु जब एसा ज्ञानवान गुणवान बलवान व्यक्ति अपने ज्ञान और बल का प्रोयोग दुसरो को कष्ट देने दुसरो का मान सम्मान हरने और सम्पूर्ण धरा जन जीवन पर अतिक्रमण करने के लिए करे , अपने अहं और भोगजनित वासनाओ की पूर्ति के लिए करे  तो उत्तम कुल मैं जन्म लेने के बाद भी एसा व्यक्ति असुर अर्थात राशस हो जाता हैं जेसा रावण के साथ हुआ पुल्स्थ  ऋषि के उत्तम वंश  मैं उत्तपन होने के बाद भी हम  रावण को राशस के रूप मैं ही याद रखते हैं. और जिसकी मृत्यु पर संसार हर्ष मनाता हैं . इसलिए हमे रावण से सीखना चाहिए के किस प्रकार एक व्यक्ति अपने  पुरसार्थ 
से सम्पूर्ण धरा को भी अपने अधीन कर सकता हैं   परन्तु  हमे  चाहिए की हम अपने ज्ञान और बल का उपयोग सबके हित मैं करे कल्याण के लिए करे जेसा की श्री राम ने किया .

राम - रघुकुल सिरोंमणि , आदर्श की प्रतिमूर्ति , सत्य के प्रतीक , धर्म के रक्षक , धनुर्धरो मैं सर्वश्रेष्ट , ज्ञान और बल मैं सम्पूर्ण, सदाचारी , विनम्र , महान त्यागी , दुसरो के लिए कष्ट सहने वाले परमार्थी, छोटे से छोटे व्यक्ति को भी समान सम्मान देने वाले. आज्ञाकारी पुत्र , आदर्श पति. आदर्श भाई , आदर्श मित्र, नरो मैं नरोतम  , पुरषों मैं पुर्शोतम , दीनदयाल , सबके कष्ट हरने वाले , श्री राम.

श्री  राम के यही गुण उन्हें विश्व मैं पूजनीय भगवान् बनाते हैं श्री राम ने हमे सिखाया की किस प्रकार एक मनुष्य अपने धर्म का पालन करते हुए सत्य पर अडिग रहकर  विश्व और समाज  के हित मैं अपने व्यक्तिगत सुखो का त्याग कर के मनुष्य से इश्वर बन जाता हैं  मनुष्य को चाहिए की धन से अधिक धर्म को प्राथमिकता दे,
जेसे श्री राम ने पिता की आज्ञा और तत्कालीन परिस्थितयो को देख कर अयोध्या का राज्य त्याग कर वन गमन किया रावण वध उनका व्यक्तिगत शत्रुता का युद्ध नही था ,
क्योकि जब ऋषि विस्वामित्र ने उन्हें तत्कालीन समस्याओ से अवगत कराया के किस प्रकार राक्षस लोग जो की रावण के बल की छत्रछाया मैं  सज्जन, व्  साधू लोगो को कष्ट देते हैं उनकी क्रूर हत्या करते हैं,
गौ माता किस प्रकार दुखी हैं किस प्रकार वह लोग बलात माताओ व  बहिनों  का हरन कर उनका शील भंग करते हैं यज्ञ आदि  धर्मिक अनुष्ठानो मैं विघ्न पहुचाते हैं ,  तो श्री राम को  यह  सब देख सुन कर बहुत दुःख हुआ  और उन्होंने उसी वक्त धरती को निसाचर दुष्ट राक्षसों  से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया ,

" निशिचर निकल सकल मुनि खाए देख रघुवर नयन जल आये"  "निसिचर हिन् करहु जग माहि भुज उठाये किंह पर्ण ताही"
  
अत : ये कोई व्यग्तिगत युद्ध नही अपितु धर्म युद्ध था .
इसीलिए हम विजयदसमी पर्व मनाते हैं  हमे चाहिए की अपने अंदर के रावण को मारे और राम के आदर्शो का पालन करे 
                                                                 जय श्री राम 

Wednesday, October 24, 2012

रावण के अट्टहास का रहस्य

दशहरे के पर्व पर रावण दहन किया जाना
परम्परा के रूप में चला आ रहा है
रावण दहन के पूर्व हमें राम और रावण के परस्पर संबंधो के
बारे में सोचना चाहिए
रावण और कुम्भकर्ण कौन थे ?
रावण और कुम्भकर्ण भगवान् विष्णु के
अभिशप्त द्वारपाल जय- विजय थे
जो शाप वश धरती पर आये थे और शाप से मुक्त होकर
पुन भगवान् विष्णु के धाम उनकी रक्षा हेतु वापस चले गये
सभी इस तथ्य को जानते है कि
श्री राम भगवान् विष्णु केअंशावतार थे
जो अपना प्रयोजन पूर्ण होने के उपरांत भगवान् विष्णु के
 वृहद् अंश में समाहित हो गए
आखिर जय -विजय ने रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्म
 और भगवान् विष्णु ने श्रीराम के रूप में अवतार धारण क्यों किया था
ऐसा उन्होंने समाज को बुराई को छोड़ने और अच्छाई को अपनाने
तथा सदा बुराई पर  पर अच्छाई की विजय होती है
का सन्देश समाज तक पहुंचाने के लिए किया था
परन्तु हमने  दशहरे पर रावण दहन कर
रावण दहन के पीछे छुपे
सच्चे संदेशो को छोड़ दिया
कभी हमने ध्यान
दिया है कि
रावण की अट्टहास पूर्ण हंसी के पीछे क्या रहस्य है ?
रावण महान
ज्ञानी और विद्वान और भूत भविष्य का ज्ञाता था
उसे उसकी मृत्यु का पूर्वानुमान था
वह जानता था की उसकी मृत्यु सुनिश्चित है
किन्तु मृत्यु पूर्व उसकी उन्मुक्त हंसी
स्वयम मृत्यु की  देवी में  भय का भाव उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त थी
रावण जानता था की जन्म मृत्यु जीवन के शाश्वत सत्य है
कोई व्यक्ति अमरता प्राप्त नहीं कर सकता
किन्तु रोते ,बिलखते ,रुग्ण होकर मृत हो जाना
हमारी अनश्वर आत्मा की अमरता के लिए जन्म मृत्यु के चक्र से
मुक्ति प्राप्त करने  लिए घातक है
यदि हमें इस चक्र से मुक्ति प्राप्त करना है
परमात्मा के चरणों में स्थान प्राप्त करना है तो
हमें स्वस्थ और प्रसन्न होकर मृत्यु का वरण करना होगा
रावण के अट्टहास ने मृत्यु मातम नहीं उत्सव बनाया
उत्सव भी ऐसा जो उसकी मृत्यु हजारो वर्ष व्यतीत होने बाद भी
दशहरा पर्व के रूप चला आ रहा है
यदि सही अर्थो में माना जाय तो दशहरा पर्व
बुराई पर अच्छाई की विजय के साथ
 मृत्यु पर जीवन की विजय तथा आत्मा की अमरता
एवं आत्म तत्व  के मोक्ष का उत्सव है
http://photo.outlookindia.com/images/gallery/20121024/Ravan2_20121024.jpg

दायित्व बोध

जीवन प्रबंधन ,व्यवसाय प्रबंधन के क्षेत्र में
दायित्व बोध का अत्यधिक महत्व है
व्यवहारिक जीवन में दो प्रकार के लोग होते है
प्रथम वे जो अपने दायित्व को भलीभांति समझते है
चाहे परिवार के प्रति दायित्व हो ,समाज के प्रति दायित्व हो ,
व्यवसाय के प्रति दायित्व हो या देश के प्रति दायित्व हो
प्रत्येक प्रकार के दायित्व को उठाने के लिए सदा तत्पर रहते है
दूसरे वे व्यक्ति होते है जिनमे दायित्व बोध की भावना नहीं होती
किसी प्रकार का दायित्व ऐसे व्यक्तियों पर डाला जाय तो
 वे यथा संभव उससे बचने का प्रयास करते है
दिए गए दायित्व से से वे पलायन करते है
जीवन में चहु और वे व्यक्ति सफलता प्राप्त करते है
जिनमे दायित्व बोध की भावना कूट -कूट कर भरी होती है
जिस व्यक्ति में जिस अनुपात में दायित्व वहन करने की क्षमता होती है
उतने ही अनुपात में उन पर दायित्व का भार डाला जाता है
जिस व्यक्ति पर दायित्व का भार जितनी अधिक मात्रा में होता है
उस व्यक्ति के अधिकारों का विस्तार उतना ही अधिक होता है
जिस व्यक्ति को जितने अधिकार प्राप्त होता है
वह व्यक्ति उतना ही अधिक सामाजिक रूप से
शक्ति सम्पन्न तथा विश्वसनीय व्यक्ति होता है
दायित्व से पलायन करने  वाले
व्यक्ति अकर्मण्य, अधिकारों से विहीन ,
एवं आत्मविश्वास से विहीन होते है
जीवन में ऊर्जा पाने के लिए यह आवश्यक है
कि हम दायित्व वान व्यक्तियों से जुड़े
स्वयं में दायित्व बोध कि भावना जाग्रत करे

Tuesday, October 23, 2012

संवाद संवेदना और अध्यात्म

सम्वाद के लिये क्या शब्द और ध्वनि आवश्यक है ?
एक सीमा तक यह तर्क सही लगता है
किन्तु सदैव ऐसा नही होता
सम्वाद का सीधा सम्बन्ध सम्वेदना से होता है
सम्वेदना प्रखर होने पर समान सम्वेदना के स्तर वाले 
व्यक्तियो मे अनुभूतियो के स्तर पर सम्वाद होता है
इसको हम इस प्रकार से समझ सकते है कि
जब कोई परम प्रिय व्यक्ति किसी प्रकार के कष्ट मे होता है
तो दूरस्थ आत्मीय जन को उसके कष्ट की सहज ही 
अनुभूति हो जाती है
यह दो व्यक्तियो के मध्य स्थापित आत्मीयता की मात्रा
 एवम सम्वेदना अनुपात पर निर्भर करती है
सम्वेदना जितनी प्रखर होगी
सम्वाद उतना ही गहरा और स्पष्ट होगा
प्राचीन काल मे कहते है महाभारत मे द्रुपदि का 
करूण रुदन सुन कर
भगवान श्री कृष्ण सहायता के लिये आ  पहुंचे थे
चाहे वह चिर -हरण का प्रसंग हो या दुर्वासा के हजारो शिष्यो का
पाण्डवो के वनवास काल के दौरान अचानक भोजन के लिये
अतिथि के रुप मे आगमन
आधुनिक काल मे जितनी मात्रा मे दुरसंचार के 
साधनो मे व्रद्धि हुई है
हमारे संवेदना के स्तर का क्षरण हुआ है
शब्दो के स्तर पर हम चाहे कितनी चर्चाये कर ले
भावनाओं के स्तर पर हम परस्पर दूरी बनाये हुये है
निरन्तर ऐसा प्रतीत होता है मानो ध्वनि सम्वाद से जुडा 
व्यक्ति और हमारे मध्य कुछ और छुपा है 
अथवा कुछ तथ्य छुपाये जा रहे है
सम्वेदना के स्तर पर सम्वाद को हम 
मूक ,बधिर,नैत्रहीन व्यक्तियो से
क्रिया प्रतिक्रिया से समझ सकते है
वे कितनी कुशलता से संकेतो की भाषा को समझ सकते है
सम्वेदना के स्तर पर सम्वाद का सम्बन्ध अन्त चेतना से होता है
अन्त चेतना का सम्बन्ध हमारी आत्मा से होता है
आत्मा की चेतनता अध्यात्मिक क्रियाओं उत्पन्न होती है
हिन्दु धर्म मे विवाह संस्कार के पूर्व वर एवम वधु के गुणो का
मिलान किये जाने का आशय भी यह है
कि परिणय सूत्र मे बॅधने वाली दो आत्मा के संस्कार  
और उनके गुण धर्म क्या है
जितनी अधिक समानताये होगी उतना ही 
उनका सम्वेदना का स्तर समान होगा
सम्वेदना का स्तर समान होने से जीवन भर 
उनमे सम्वाद की मात्रा संतोषप्रद स्थिति मे रहेगी
यदि किसी कारण से भाषाई स्तर पर सम्वादहीनता 
उत्पन्न हो भी गई हो तो
सम्वेदना के स्तर पर सम्वाद प्रारम्भ हो जाने से
उनमे अलगाव के स्थान पर लगाव स्थापित हो जावेगा
बिना बोले ही भावो की समझने की क्षमता 
सम्वेदनशील व्यक्ति मे होती है
इस क्षमता सम्पन्न व्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति की भावनाये 
समझने मे सक्षम होता है
भावनाये दोनो प्रकार की हो सकती है 
दुर्भावनाये या सदभावनाये
ऐसा व्यक्ति व्यक्ति को समझने मे किसी प्रकार की त्रुटि नही करता
सम्वेदनशील व्यक्ति को ईश्वरीय कृपा प्राप्त होता है
या ऐसा भी कह सकते है कि जिस व्यक्ति को ईश्वरीय आशीर्वाद प्राप्त होता है ,वह सम्वेदनशील होता है
ईश्वर से सम्वाद स्थापित करने हेतु किसी भाषा की
आवश्यकता नही होती आत्मा का परमात्मा का मौन सम्वाद ही मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करती है


Sunday, October 21, 2012

परदोष दर्शन एक शोध का विषय

परदोष दर्शन, छिन्द्रान्वेषण करना एक प्रवृत्ति होती है
वर्तमान में पर इस प्रकार की प्रवृत्ति सभी और व्याप्त है
  किस प्रकार से किस व्यक्ति या वस्तु में कब कैसे दोष देखा जाय
यह  कार्य सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं
हर कोई व्यक्ति इस कार्य के लिए सक्षम होता भी नहीं है
 कहते जहा न पहुंचे कवि वहा पहुंचे अनुभवी
 परदोष दर्शन, छिन्द्रान्वेषण के लिए भी यही उक्ति लागू होती है
जो व्यक्ति भूतकाल या वर्तमान काल में जितने अधिक दोषों से लिप्त होता है
 वह परदोष दर्शन में उतना ही पारंगत होता है
क्योकि जो दोष रहित व्यक्ति वह दृष्टि कहा से लायेगा
यदि प्रयास भी करेगा तो उसे दोषों के साथ गुण भी दिखाई देगे
वैसे भी इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति गुणहीन नहीं है
निकृष्ट से निकृष्ट व्यक्ति में भी कोई न कोई गुण अवश्य होता है
ऐसी स्थिति में परदोष दर्शन के कार्य में अपूर्णता रहना संभव है 
छिन्द्रान्वेषण का कार्य इतना सहज और सरल नहीं है
व्यक्ति हो या वस्तु हो या हो कृति सभी में अपूर्णता रहना संभव है
जिन्हें वरिष्ठ लोग छिद्र के नाम से संबोधित करते है
साहित्यिक जगत में इस प्रक्रिया को समालोचना के नाम से पहचाना जाता है
इस प्रक्रिया में पारंगत जन समालोचक कहलाते है
कहते है" निंदक नियरे राखिये"
अर्थात समालोचक ,आलोचक ,छिन्द्रान्वेषी ,जन को
अपने निकट रखने से स्वयं को दोषों से बचाया जा सकता है

Thursday, October 18, 2012

पाषाण और हिमखंड

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पाषाण को सरल भाषा मे पत्थर और  हिमशिला को बर्फ 
कहा जाता है
दोनो के गुण धर्म मे भिन्नता होती है
जहां पाषाण सरलता पूर्वक आकार  नही बदलता
वही हिमखण्ड वातावरण मे थोड़ी सी उष्णता बढने पर
अपना मूल आकार  खो देता है
पाषाण मे किसी भी प्रकार की आकृति  बनाना
चित्र रूप देना आसान  नही होता
परन्तु हिमखण्ड को योजना अनुसार
किसी भी प्रकार की आकृति  दी जा सकती है
हम पाषाण से निर्मित प्रतिमा को पूजते है
पाषाण को प्राण प्रतिष्ठित करते है
पाषाण पर रची गई कृतियाँ  दीर्घकाल तक बनी रहती है
हजारो वर्षो तक अपना मूल स्वरूप कायम रखती है
पूरे मनोयोग से पाषाण पर रचे गये शिल्प सजीव और
 जीवंत हो उठते है
फिर किसी व्यक्ति को पाषाण ह्रदय कह कर 
क्यो ?निष्ठुर ठहराया जाता है
निष्ठाये पाषाण की तरह हो तो विश्वास साकार हो जाता है
आस्थाये पाषाण की प्रतिमा के प्रति जग जाये
तो ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति होती है
उत्क्रष्ट प्रकृति का पाषाण अथवा पत्थर 
रत्न के रूप धारण कर लेता है
तथा मूल्यवान बन जाता है
वर्तमान मे लोगो के पारस्परिक विश्वास 
जिस प्रकार से समाप्त हो रहे है
निष्ठाये जिस प्रकार से परिवर्तित हो रही है
 ऐसे मे पाषाण मे उत्कीर्ण सृजनात्मकता 
 हमारे लिये एक मात्र प्रेरणा स्त्रोत रह गये है
हिमखण्डो मे रचा गया शिल्प शाश्वत नही रहता  
,आकर्षक  हो सकता है
किसी व्यक्ति या वस्तु की बाह्य कोमलता 
सम्वेदनशीलता का आधार नही हो सकती
बाह्य कोमलता भ्रान्ति उत्पन्न कर सकती है
किन्तु व्यक्ति या सामाज मे क्रान्ति और  
सम्वेदना पैदा करने के लिये
आतंरिक  कोमलता ,निर्मलता विशालता ,होनी आवश्यक  है
उसके लिये विचारो की दृढ़ता  भी होनी चाहिये
नारियल फल के बाहरी कवच की कठोरता 
उसके भीतर के भाग को कोमल बना देती है
और  आंतरिक  जल को निर्मलता ,मधुरता प्रदान करती है
नदियो मे रहते पाषाण कण (रेत) कितने ही 
वृहद् निर्माण के आधार  है
निर्मल नीर के जनक है
इसलिये हे! पाषाण के भीतर बसे देव 
हमारे मन मे निर्मलता बनाये रखो
ह्रदय को कोमलता प्रदान करो !
हमारे मन से उद्विग्नता तथा चंचलता समाप्त करो!
मन स्थिरता, शांती,तथा व्यक्तित्व को कान्ति प्रदान करो!
ताकि हमारी निष्ठाये अविचलित ,विश्वास अडिग हो
संकल्प अटल हो हम भीतर से निश्छल हो
 

वृत्त ,वृत्ति एवं वृत्तांत


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व्रत का व्रत्तियो से गहरा सम्बन्ध है
यदि हम दुष्प्रव्रत्तियो का शमन न कर पाये तो 
व्रत करना निरर्थक है
वर्तमान मे नवरात्री के नौ दिवस हमे 
अपनी दुष्प्रव्रत्तियो का शमन करने
तथा इन्द्रिय जनित समस्त कामनाओं ,वासनाओं  का
दमन करने की प्रेरणा देते है
हम यह देखते है कि नवरात्री के अवसर पर 
प्राय महिलाये,और पुरुष
निराहार व्रत का पालन करते है 
तथा दुर्गा सप्तशती का पाठ करते है
क्या यह व्रत उपासना कि परिपूर्णता है ?
सभी साधक तथा,उपासना से जुड़े लोग 
यह  जानते है कि पांच  कर्मेन्द्रिया और  
पांच ज्ञानेन्द्रिया प्रत्येक मानव को प्राप्त होती है
निराहार व्रत से तो मात्र जिव्हा इन्द्री से जुड़ी  
स्वाद तथा उदर से जुड़ी भूख को
ही शमन करने का ही प्रयास होता है
जिव्हा से जुडी वाक प्रव्रत्ति का शमन नही होता
यदि हम वाचाल प्रव्रत्ति को कुछ समय के लिये विराम दे सके तो
हमे कितनी आत्म शांती प्राप्त हो सकती है
यह केवल अनुभूति की विषय वस्तु है
जिसे केवल सच्चा साधक ही अनुभव कर सकता है
मौन साधना सर्वोच्च कोटि की साधना मानी जाती है
साधक और  साध्य के मध्य साधना के उच्च स्तर पर 
मौन सम्वाद होता है
व्यक्ति के मन को ही नही ,परिवार को ,समाज को 
सम्पूर्ण विश्व को शांती की कामना वेद मंत्र 
शांति पाठ मे की गई है
जो साधना व्यक्ति को आत्म शांती न दे सके
परिवार ,समाज ,देश ,विश्व मे शांती स्थापित न कर सके
वह सच्ची साधना नही हो सकती
शांती का भाव कही अन्यत्र से आयातित नही किया जा सकता
वह तो भीतर से से बाहर की और विस्तारित होता जाता है
परन्तु कितने साधक नवरात्री मे मौन व्रत धारण करते है
यह चिन्तन का विषय होना चाहिये
साधना के क्षणो मे  हम स्वयम को अन्तर्मुखी कर पाये
स्वयम को समझ पाये तो ईश्वरीय तत्व को
 समझने की स्थिति मे पहुँच  पायेगे
अन्यथा परम्परा का निर्वाह करते हुये देह से जुड़ी 
देवी की साधना मे रत हो
एक अन्तहीन और  निरर्थक थका देने वाली व्रत 
एवम व्रतान्तो से जुड़ी यात्रा ही हमारी नियती बन जायेगी
http://www.ahmedabadcity.com/tourismtest/images/navratri2.JPG

Tuesday, October 16, 2012

गहराई


जीवन में जितनी ऊँचाई सार्थकता रखती है
उतनी गहराई सार्थकता रखती है
व्यक्तित्व में जितनी
ऊँचाई आवश्यक नहीं
उतनी गहराई आवश्यक है
बिना गहराई लिए ऊँचा लंबा व्यक्ति हो
व्यक्तित्व हो या ईमारत  उसका आधार कमजोर होता है
गहरा चिंतन ,गहरा सोच ,गहरी योजनाये ,गहरी भावनाए ,
व्यक्ति को शांत और सौम्य बनाती है
जबकि व्यक्तित्व का उथलापन व्यक्ति को चंचल और और अस्थिर बनाता है
जीवन में समग्रता प्राप्त करने के लिए
कठोर परिश्रम के साथ विषय तथा तथ्य के प्रति गहरा अध्ययन अनिवार्य है
भक्ति हो ,प्रीती हो ,या नीति हो उसमे गहराई से डूब जाना होता है
इसलिए गहराई से डरने की नहीं सवरने की आवश्यकता है
समग्र गहराईया  जब हम अपने व्यक्तित्व में समा लेते है
तो हम स्वयं को सामर्थ्यवान और सशक्त बना लेते है
आशय यह है की सागर की तरह गहरा और सुधीर बनो




http://starsgrant.com/images/deep-water-01.jpg

उत्थान या पतन

उत्थान या पतन परस्पर विरोधी शब्द है
 परन्तु उनके भावार्थ बहुत गहरे और व्यापक है
उत्थान जहा व्यक्ति ,वस्तु,समाज को के ऊपर  उठने
या उठाने के प्रयास के लिए उपयोग में लाया जाता है
जबकि पतन का आशय इसके विपरीत किसी भी दृष्टि से
नीचे गिरने के लिए प्रयोग में लाया जाता है
किन्तु कभी कभी पतन में उत्थान निहित होता है
तो कभी  उत्थान में पतन निहित होता है
यह  व्यक्ति व्यक्ति की समझ  का अंतर होता है
झरने का पतन जहां प्रकृति में सौन्दर्य ,जल में प्रवाह उत्पन्न कर देता है
वही वर्षा में बारिश की बूंदों का धरा पर पतन
 सृष्टि को हरियाली से आच्छादित कर देता है
हिम शिखर से सरिता का पतन मैदानी भागो को
उपजाऊ बना देता है
दूसरी और महानगरो में अट्टालिकाओ का उत्थान
हरीतिमा को निगल कर जलवायु पर्यावरण को क्षति कारित कर देता है
अहंकार से उत्थित मस्तक व्यक्ति को पतन की और पहुंचा देता है
जबकि स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान से उठा मस्तक
 आत्मनिर्भरता की और व्यक्ति को अग्रसर करता है
कहा गिरना? कैसे गिरना? पतन किन कारणों से होना ?
इस तथ्य पर पतन की सार्थकता और निरर्थकता होती है
आदर्शो और सिध्दान्तो की रक्षा करते करते
कई राज्य साम्राज्यों  का पतन हुआ 
लेकिन उनके पतन ने इतिहास में अपना अनोखा  स्थान
बनाया अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया 

कई वीरो के मस्तक रणभूमि में अपने मातृभूमि के लिए  गिरे
गुरुचरणों में महापुरुषों के सम्मुख मस्तक का पतन
व्यक्ति को उत्थान की राह की और ले जाता है
व्यक्ति का चारित्रिक पतन उसे कुमार्ग ,कुसंगति ,कलुष
 ,कुकर्म की और ले जाने वाला होता है
प्राचीनकाल में विन्ध्याचल पर्वत के  दिनों दिन होते उत्थान
प्रकृति और समाज के लिए संकट बन गया था
जिसे रोकने के लिए महर्षि अगस्त्य को उपाय करना पडा
कहने का आशय यह है की पतन सदा निरर्थक नहीं होता
और उत्थान यदि जन कल्याण लोक कल्याण हेतु न होकर
निज स्वार्थो की पूर्ति तक सीमित रहे तो
वह सार्थक नहीं होता

Sunday, October 14, 2012

माँ

ह्रदय में ममत्व रहता , समत्व और सदभाव है
वात्सल्य में कोमल्य है ,वात्सल्य माँ की छाव है
माँ का आँचल है हिमाचल,कैलाश शिव का गाँव है
ममता का माँ है सरोवर ,ममता बिन बिखराव है 



जिन्हें हम झूलो में झुलाते है और दूध पिलाते है
लाडले ऐसे निकले निठल्ले बुढापे में रुलाते है
रात भर गीले में सोई रो रो कर आँखे भिंगोई
पूत कपूत निकले माँ की लाठी कहा बन पाते है


संघर्ष और भगवद सत्ता

संघर्ष के कई रूप होते है
जिनमे धर्म ,जाती ,वर्ग ,नस्ल ,के आधारों पर होने वाले संघर्ष महत्वपूर्ण है
सभी संघर्षो के पीछे स्वयं को श्रेष्ठ तथा अन्य को निकृष्ट मानना है
व्यक्ति हो ,समाज हो,जाती हो ,धर्म हो ,कुल हो ,वर्ग हो, या क्षेत्र विशेष हो ,
अथवा नस्ल हो सभी प्रकार से भेद करके व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ दूसरो को निकृष्ट बताने के उद्यत रहता है
इसके लिए कई प्रकार के तर्क कुतर्को का सहारा लेता है
जबकि श्रेष्ठता के आधार ये नहीं है
सभी समुदायों में क्षेत्रों में अच्छे,बुरे लोग हो सकते है
इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए
ईश्वर ने भिन्न -भिन्न वर्गों में ,धर्मो में ,वर्णों में क्षेत्रों में
,नस्लों में अलग -अलग समय पर
अवतार धारण किये अपने अंशो को धरती पर भेजा
प्राचीनकाल में जब क्षत्रिय वर्ण में श्रेष्ठता का भाव
 जब अहंकार में परिवर्तित होने लगा था तो
भगवान् विष्णु ने क्षत्रिय वर्ण के अहम् का नाश करने के लिए
ब्राह्मण वर्ण में परशुराम  अवतार लिया
जब ब्राह्मण वर्ण में श्रेष्ठता का भाव अहंकार के रूप में बदल गया
और रावण जैसा विद्वान ब्राहमण दर्प ,दंभ ,के रूप में 

सिर उठाने लगा तो
भगवान् विष्णु ने क्षत्रिय वर्ण में भगवान राम के रूप में अवतार धारण किया
कालान्तर में ब्राह्मण क्षत्रिय में श्रेष्ठता की भावना का 

अतिरेक होने लगा तो
भगवान् विष्णु ने यदुकुल अर्थात ग्वाला समाज में 

जन्म लेकर ब्राह्मण एवं क्षत्रिय
वर्ण की श्रेष्ठता के दर्प का नाश किया
महर्षि वेदव्यास भी जो भगवान् विष्णु के अंशावतार थे 

ने शूद्रवर्ण की मत्स्यकन्या के गर्भ से जन्म लेकर यह प्रमाणित किया की श्रेष्ठता किसी वर्ण ,धर्म ,जाती की मोह ताज नहीं होती 
 इसलिए श्रेष्ठता की भावना के कारण किसी समाज धर्म में संघर्ष की की स्थिति निर्मित हो तो
व्यक्ति को सदा यह सोचना चाहिए की भगवद सत्ता चहु और विद्यमान है
वह कभी भी कही भी किसी भी रूप में किसी वर्ण में समाज में नस्ल में धर्म में प्रगट हो सकती है

Friday, October 12, 2012

क्रिकेट एवम कैरियर तथा व्यवसाय प्रबंधन


क्रिकेट एवम कैरियर तथा व्यवसाय प्रबंधन का परस्पर सम्बन्ध है
इस विषय पर मौलिक दृष्टिकोण स्पष्ट करना आवश्यक है
क्रिकेट मै खिलाड़ी अलग अलग स्थितियों में अलग अलग भूमिका में रहते है
सभी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है
यह आवश्यक है की सम्बंधित खिलाड़ी अपनी भूमिका के महत्व समझे
सर्वप्रथम हम क्रिकेट मै बल्लेबाज की स्थिति मै खेल रहे खिलाड़ी को देखे
तो वह बल्लेबाज
सफलता पूर्वक रन बनाता है
जो प्रत्येक गेंद पर चौके छक्के न लगा कर सही गेंद का इन्तजार करे
अन्यथा वह अच्छा खेलने का अवसर खो सकता है
खतरनाक गेंद सुरक्षित तरीके से खेल कर अपना  विकेट सुरक्षित रख कर
वह अपना खेल जारी रख सकता है 
तथा अच्छी गेंद का मिलने पर वह चौके छक्के बरसा सकता है
इसका तात्पर्य यह है की कैरियर हो या व्यवसाय
उसमे उतार चढ़ाव आना स्वाभाविक है
विपरीत परिस्थियों मै व्यक्ति को चाहिए की मात्र
वह अपने अस्तित्व को बचाए रखे अनुकूल स्थितिया उपलब्ध होने पर
वह अपने  कैरियर तथा व्यवसाय का विस्तार करे
क्रिकेट में दूसरा भूमिका खिलाड़ी गेंद बाज होती है
कई बार खेल में ऐसा होता है
की किसी गेंद बाज की गेंद पर लगातार बल्लेबाज चौके छक्को की बरसात कर देता है
तब यदि गेंद बाज विचलित हो जाता है
तो बल्लेबाज और अधिक आक्रामक हो जाता है
इसके स्थान पर गेंद बाज मानसिक संतुलन बनाए रखते हुए
सधी हुई गेंद बाजी लगातार करता रहे
तो दूसरे क्षण बल्लेबाज आउट हो जाता है
और खेल की बाजी पलट जाती है
इसका यह तात्पर्य यह है की व्यक्ति को बुरे वक्त में धैर्य नहीं खोना चाहिए
और निरंतर एक जैसी गति से संतुलित रहते हुए कर्म करते रहना चाहिए
किसी समय सफलता मिल सकती है
क्रिकेट में मैदान पर खड़े क्षेत्र रक्षको की भूमिका भी महत्त्व पूर्ण होती है
सामान्य रूप से ऐसे क्षेत्र रक्षक जो यह सोचते है कि
उनकी और गेंद नहीं आ सकती इसलिए वे शिथिल अवस्था में रहते है
अगले ही क्षण कोई बल्लेबाज गेंद को बल्ले से उसी गेंदबाज कि उठा देता है
यदि क्षेत्र रक्षक सावधान है तो वह गेंद को कैच कर बल्लेबाज को आउट कर देता है
आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में स्वर्णिम अवसर आता है
उसे उचित अवसर पर अपनी भूमिका को समझना होता है

योग ,भोग और जीवन दृष्टि

व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान जीवन के प्रति
उसके दृष्टि कोण से होती है
व्यक्तित्व में योग वृत्ति हो तो
वह व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ती है
भोग प्रवृत्ति हो तो वह व्यक्ति को तोड़ती ही नहीं
अपितु रिश्तो को निचोड़ती है
हमारा व्यक्तित्व भ्रमर की प्रवृत्ति लिए हुए होना चाहिए
प्रेमपूर्ण मित्रता हो या आत्मीय रिश्ते हो
या प्रकृति के प्रति उपयोगिता के सिध्दांत हो
वे योग प्रवृत्ति से निभाये जाये 
तभी सार्थक और रसपूर्ण होते है
प्राकृतिक संसाधनों का  भोग प्रवृत्ति से उपयोग 
उपभोग कहलाता है
और हम उपभोक्ता बन जाते है
उसी प्रकार से हम प्रेम हो या रिश्ते 
उन्हें आदान प्रादान की भावना से निभाते है
तो वे रिश्ते हमें जोड़ते नहीं अपितु तोड़ते जाते है
रिश्तो में यह प्रवृत्ति भोग प्रवृत्ति कहलाती है
जीवन का आनंद भोग में नहीं योग में है
भोग रोग का जनक होता है
क्या हम जानते है ?
कि प्रकृति की सुन्दर प्रतिकृति
सौन्दर्य और रस से परिपूर्ण फूलो में
 उपवन में समाहित होती है
जब कोई भ्रमर फुल से पराग लेता 
और वह शहद एकत्र करता है
तो वह प्रकृति एवं जीवन के प्रति योग की भावना को
 प्रतिबिंबित करता है
परन्तु जब कोई मानव गुलाब के फूलो से
 गुलकंद एकत्र करने हेतु उन्हें यांत्रिक पध्दति से
सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर गुलकंद ,
गुलाब जल का उत्पादन करता है
तो वह भोग प्रवृत्ति को प्रगट करता है
योग प्रवृत्ति से नियति हो या रिश्ते हो
 उन्हें सही रूप में सवारा संजोया जाय तो
सृजन होता है
भोग प्रवृत्ति नियति हो या रिश्ते हो 
उन्हें निखारता नहीं है
उन्हें सदा सदा के लिए मिटा देता है 
नष्ट कर देता है

Thursday, October 11, 2012

श्राध्द पक्ष



श्रध्दा श्राध्द नहीं पितरो को तर्पण है
पुरातन आस्थाओ  का तराशा गया दर्पण है
तर्पण तर्पण नहीं दिवंगत आत्माओं की तृप्ति है
आत्माओं की आत्मीयता पूर्वक दी गई मुक्ति है
श्रध्दा से भींगा
हुआ श्राध्द पक्ष है
कठिन समस्याये है ठहरे प्रश्न यक्ष है
महकी हुई आभा है दीप्ति है
ऐतिहासिक सच्चाईया है जीने की युक्ति है
मन से संस्कारों की विरासत कभी नहीं मिट सकती है
घर आँगन पंछियों की जुटती हुई भीड़ है ,नीड़ है
कोलाहल है ,चहचहाहट है लुटती हुई मस्ती है
इसलिए श्राध्द पक्ष में अपनी श्रध्दा जगाओ
पूर्वजो के सत्कर्मो को स्मृति में लाओ
उन्हें स्वयं के भीतर बसाओ
पितरो से आशीष पाओ
जीवन में उल्लास के पल ले आओ

Tuesday, October 9, 2012

पूर्वज देवो नमो: नम:



श्रध्दा से ही श्राध्द हुआ ,श्रध्दा को पहचान
श्रध्दा
है  सत्कर्म परायण ,श्रध्दा से कल्याण
श्राध्द कर्म से पितृ कृपा ,पितृ कृपा वरदान
जो इस वर को पा न सका ,जीवन से अनजान
धूप,दीप और भोज चढ़े ,पितरो को तर्पण
पूर्वज देवो नमो
: नम: ,तव चरणन कुछ अर्पण
 

दुराग्रह ,पूर्वाग्रह और प्रशासन

-->
प्रशासन एवम प्रबन्धन के क्षैत्र मे यह बहुत आवश्यक  है
कि अच्छा प्रशासक ,कुशल प्रबन्धक सभी प्रकार के
पूर्वाग्रह एवम दुराग्रह से दूर रहे
दुराग्रह के पीछे दुराशय रहता है
पूर्वाग्रह मे निहीत पूर्वाशय होता है
दुराग्रह वह आशय  है जो किसी व्यक्ति को क्षमता
को जान-बूझ कर अनदेखा करने को प्रेरित करता है
दुराग्रह मन मे रखने वाले व्यक्ति के बारे मे लोगो मे यह धारणा व्याप्त रहती है
कि वह स्व-विवेक का उपयोग करने के बजाय
दूसरे व्यक्तियो द्वारा दिये गये विचारो ,अभिमतो पर अधिक निर्भर रहता है
दुराग्रह से मुक्ति पाने का यह उपाय है
कि व्यक्ति किसी भी तथ्य की पुष्टि स्वयम करे
तदपश्चात किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचे
कभी-कभी व्यक्ति दुराग्रह के अतिशय मे किसी
व्यक्ति के प्रति ऐसी धारणाये मनो-मस्तिष्क मे विकसित कर लेता है
जिनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नही होता
ऐसा व्यक्ति जो भी निर्णय लेता है
वह व्यवहारिक नही होता है
वास्तविक परिस्थितियो से विपरीत होता है
पूर्वाग्रह मन मे रखने वाला व्यक्ति पक्षपात की भावना से प्रेरित होता है
ऐसे व्यक्ति ने किसी व्यक्ति या विषय वस्तु के सम्बन्ध मे पक्षपात की भावना से
जो प्रारम्भ मे जो धारणा बना ली उस पर वह हठधर्मिता पूर्वक कायम रहता है
वास्तविकता चाहे कितनी भी विपरीत हो
ऐसा व्यक्ति जब भी प्रशासनिक अथवा प्रबन्धक पद पर नियुक्त होता है
उसके द्वारा लिये गये निर्णयो से व्यक्ति ,संस्था,समाज,देश को भारी क्षति उठाना पडती है
इसलिये यह परम्परा है कि
कोई भी संवैधानिक पद धारण करने वाला व्यक्ति पद धारण करने के पूर्व स्वयम को
समाज ,धर्म,जाति,वर्ग सहीत सभी प्रकार के पूर्वाग्रहो दुराग्रहो से मुक्त होने की शपथ ग्रहण करे
परन्तु वास्तव मे शपथ का पालन कितने प्रतिशत 
 व्यक्ति करते है
शासक जितना पूर्वाग्रहो दुराग्रहो से मुक्त होगा
प्रशासन उतना ही स्वच्छ,निष्पक्ष,और पारदर्शी होगा
जो कि न्याय पूर्ण समाज की स्थापना के लिये आवश्यक  है
व्यवसाय प्रबन्धन सभी प्रबन्धन से जुडे क्षैत्रो के लिये
यह महत्वपूर्ण सूत्र भी है