Monday, July 23, 2012

ईश्वर शरणागति

अभिमान व्यक्ति के पतन का कारण होता है 
अभिमान के कई प्रकार का होते  है 
किसी व्यक्ति को बल अभिमान 
किसी को धन का तो किसी को पद का अभिमान होता है
ज्ञान का अभिमान भी होता है 
परन्तु हमारे चिंतन का विषय
  अभिमान का वह स्वरूप है 
ईश्वर के सामीप्य के अभिमान से सम्बंधित है
ईश्वर का कोई भी रूप हो समाज में  

कुछ लोगो को अभिमान होता है की वे ईश के सबसे प्रिय है 
इस प्रकार ईश्वर पर अपना अधिकार समझने लगते है
भक्ति ,उपासना ,ईश साधना ,में  अभिमान का कोई महत्त्व नहीं है अभिमान का भाव 

यदि ईश साधना में उत्पन्न हो जावे तो 
ईश्वर ऐसे व्यक्ति से ईश्वर स्वत दूर होने लग जाते है
जय ,विजय ,जो भगवान् विष्णु के द्वार पाल थे
 उनके भीतर इसी प्रकार का अभिमान जाग्रत हो गया था 
जिन्हें रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्म लेना पडा था 
भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र के बारे में भी  यह मान्यता है 
की उन्हें भी अभिमान हो गया था 
कालान्तर उन्हें सह्त्र्बाहू के रूप में जन्म लिया था
  भगवान् विष्णु  को अपने सर्वाधिक समीपस्थ 
सेवको में भी अभिमान का भाव रहे यह पसंद नहीं था
 इसलिए उनके अभिमान का हनन करने के लिए उन्होंने क्रमश परशुराम एवं श्रीराम के अवतार धारण किये थे
इसलिए ईश्वर प्राप्ति का सर्वोतम मार्ग अभिमान से शून्य ईश साधना है जो ईश्वर शरणागति कहलाती है
 ईश्वर शरणागति से की गई साधना के लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता 
अपितु सहज ही साधक को ईश्वर की कृपा प्राप्त होने लग जाती है
व्यक्ति को ऐसी अनुभूतियाँ होने लगती है
 की जो वह चाहता है वह सब कुछ घटित हो रहा है 
व्यक्ति दूर द्रष्टा हो जाता है 
 ईश्वर की सच्ची साधना समस्त प्रकार के 
अहंकार से मुक्त होकर निष्काम भाव से कर्म करना है