Tuesday, December 25, 2012

तृष्णा ,तृप्ति और परम तत्व


तृष्णा और तृप्ति 
दोनों परस्पर विपरीत अर्थ वाले शब्द है
जहा तृप्ति संतुष्टि प्रदान करता है 
वहा तृष्णा व्याकुलता असंतोष का परिचायक है
प्रत्येक व्यक्ति तृष्णा के विषय भिन्न -भिन्न हो सकते है 
पैमाने अलग -अलग हो सकते है
किस व्यक्ति की तृष्णा किस विषय वस्तु से जुडी है 
किस व्यक्ति को किस विषय वस्तु से तृप्ति प्राप्त हो सकती है 
यह उस व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिचायक होता है
तृष्णा का कोई अंत नहीं है जबकि तृप्ति का है
तृप्ति का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के संतुष्टि के स्तर पर निर्भर होता है
संतुष्टि की अनुभूति किसी व्यक्ति को मात्र कुछ अंश 
प्राप्त होने से हो सकती है
जबकि बहुत से व्यक्तियों को जीवन में बहुत कुछ मिलने के बाद भी वे सदैव असंतुष्ट अतृप्त रहते है
ऐसे व्यक्ति वास्तव में कहा जाय तो 
मानसिक रूप से दरिद्र होते है
इसलिए वास्तविक तृप्ति आंतरिक दरिद्रता 
दूर किये जाने से ही प्राप्त हो सकती है
जो व्यक्ति आंतरिक रूप से सम्पन्न होते है 
उन्हें जीवन में सफलता सीघ्र प्राप्त होती है
आंतरिक दरिद्रता अच्छी पुस्तको के अध्ययन सत्संग से संभव है
महाभारत में दुर्वासा एवं उनके हजारो शिष्यों के 
वनवासी पांडवो के घर आना
भोजन के लिए व्यवस्था किये जाने के लिए कहना 
 और भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा पांड्वो के बर्तनों में से अवशेष रहे खाद्य पदार्थ का तुलसी पत्र से सेवन करने पर 
दुर्वासा और उनके शिष्यों का अचानक स्नान किये जाने के 
दौरान तृप्ति का अनुभव करना यह दर्शाता है
परमपिता परमात्मा परम तृप्ति का पर्याय है
तात्पर्य यह है जो व्यक्ति परमात्मा के जितने समीप है 
वह उतना ही तृप्त है संतृप्त है
जो व्यक्ति अतृप्त है तृष्णाओ से घिरा हुआ है 
वह मानसिक रूप से दरिद्र होने के साथ- साथ
परम तत्व से दूर है