Tuesday, October 6, 2015

अनन्त ईच्छाओ की मृगतृष्णा

कामनाए इच्छाये हर मनुष्य के जीवन मे किसी ना किसी रूप में निहित रहती है शायद यही हमें मनुष्य बनाती है, क्योंकि यदि यह कामनाए इच्छाये किसी के जीवन मे ना हो तो वह व्यक्ति असाधारण, ईशवर तुल्य हो जाये क्योंकि केवल ईशवर ही हे जिसको कोई ईच्छा कामना ञस्त नहीं करती जबकि देवता भी इस रोग से अच्छुते नहीं वे भी हर क्षण स्वर्ग के सुखों की इच्छा रखते है
इसका मतलब यह नहीं की जीवन मे कामनाए अथवा इच्छाये होना गलत हे मेरा यह मतलब कदापि नहीं हे कामनाए और इच्छाये होना चाहिए परन्तु  सकारात्मक रूप में जो व्यक्ति को जीवन में आगे बढने को प्रेरित करे उसे कुछ अच्छा कुछ बढ़ा करने को प्रोत्साहित करे, फिर इच्छाओं का व्यक्ति की सीमा व्यक्ति के सामर्थ्य और योग्यता के अनुरूप होना भी परम आवश्यक है
अब दो ही विकल्प शेष रह जाते हे या तो व्यक्ति स्वयं को अपनी इच्छाओं के अनुरूप योग्य बनाये अथवा अपनी इच्छाओं को अपनी योग्यता अनुसार रखे परंतु अधिकांश लोग एेसा नहीं करते वे बस बिना योग्यता व विशेष प्रयासों को करे बिना ही वह सब इच्छाये पुरी कर लेना चाहते है और यही कारण हे की वह इच्छाओं की  मृगतृष्णा में फस कर स्वयं अपना ही नुकसान कर लेता है अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह अन्य किसी पर निर्भर रहना शुरू कर देता हे और यही निर्भरता उसे पंगु बना देती है
वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए उस अन्य की विवशता को भी नजरअंदाज कर देता है बस स्वयं को ही केन्द्र में रखता है जो कि सर्वथा अनुचित है क्योंकि ईच्छाये का तो कोई अन्त नहीं।