Tuesday, March 22, 2016

मनुष्यता के मापदंड -३

गुण - मनुष्यता गुणों से विकसित होती हे सामान्य व्यक्ति गुण रहित होता हे उसे अवगुणी कहते है गुणों का मनुष्यता के लिए उतना ही महत्व हे जितना की अन्न ,जल , और स्वास  का अवगुणी व्यक्ति मात्र शरीर रूपी बोझ के अतिरिक्त और कुछ नहीं गुण शब्द व्यापकता लिए हुए हे उक्त बताए गुणों के साथ साथ और भी गुण हे जो व्यक्ति को श्रेष्ठ मनुष्य बनाते है कला संस्कृति, संगीत , नृत्य , अभिनय , विज्ञान , नाट्य , शिल्प भोजन-पाक कला  जैसे गुण मनुष्य को प्रकृति में विशेष स्थान देते है एकमात्र मनुष्य ही है जिसके पास चिंतन और कर्म करने की स्वतंत्रता यह गुण निहित है ।
धर्म  - धर्म से आशय मंदिर पूजा नियमों के निर्वहन से नहीं है नाही माला फेर देने से या दान- यज्ञ करना धर्म की शुद्ध परिभाषा  हे धर्म तो कर्म से प्रकृति - स्वभाव से संलग्न है जल का धर्म है शीतलता ,अग्नि का धर्म है दाहकता, वायु का धर्म है प्राण सतत बहना, पृथ्वी अपने धारण धर्म को निर्वहन करती है वृक्ष का अपना एक धर्म है प्रकृति में सभी का एक नियत धर्म है और उसी का ईमानदारी से निर्वहन करना कर्मयोग है जैसा कि गीता में भगवान ने स्पष्ट किया है ठीक इसी प्रकार व्यक्ति को मनुष्यता के मापदंड पर खरा उतरने के लिए अपने नियत धर्म का ईमानदारी से पालन करना चाहिए
उस धर्म को हम इस श्लोक से समझ सकते है-
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन सरल सहज सुख राशि"
जीव ईश्वर का अंश हे वह अविनाशी हे अत: उसे सदैव इसी भाव मे रहना चाहिए वह चेतनता, सरलता और सभी के लिए सदैव सुख का माध्यम बनकर रहना यही उसका धर्म है
" येषा न: विद्या न: तपो न: दानं  न ज्ञानं न: शीलं न: गुणों न: धर्म ते  मृत्युलोके भार भवति: मनुष्य रूपेण: पशु चरंति"

मनुष्यता के मापदंड -२

ज्ञान - विद्या और ज्ञान यह दोनों भले ही एक लगे परन्तु यह दोनों है अलग - अलग यह अवश्य हे कि यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हे परस्पर जुड़े हुए पर एक नही
विद्या को प्राप्त किया जाता है और ज्ञान का उपयोग विद्या का परिणाम ज्ञान हे दोनों में बहुत सूक्ष्म भेद हे ज्ञान व्यक्ति को मनुष्य बनाने वाली वह शक्ति हे जिसके उपयोग से मनुष्य स्वयं अपना और विश्व का कल्याण करने का सामर्थ्य रखता हे विद्या ग्रहण कर उससे उत्पन्न ज्ञान का उपयोग कर मनुष्य बहुत सकारात्मक प्रभाव पैदा कर सकता हे जो मनुष्यता को नई ऊँचाईया  देने मे सक्षम है
शील - इस एक ही शब्द में दो गुणों का सामूहिक समावेश है  पहला है चरित्र यह वह गुण है जो व्यक्ति को मात्र मनुष्य ही नही एक श्रेष्ठ मनुष्य बनाता हे चरित्र ही मनुष्य की संचित एकमात्र सम्पति हे जो यद्दपि भौतिक सुख नही क्रय कर सकती परन्तु  व्यक्ति को हजारों धुली - कणों के मध्य प्रकाशित रत्न के रूप में आलोकित करने में सक्षम हे चरित्र से मनुष्यता आती हे यह व्यक्ति को वह शक्ति देता हे जो उसे विकट परिस्थितियों मे भी विचलित नहीं होने देता
दूसरा हे विनम्रता यह मनुष्य का आभूषण हे विनम्रता से मनुष्य लोकपूजक बन जाता है अहंकार मनुष्य का क्षत्रु हे विनम्रता से अहंकार का नाश हो जाता हे और मनुष्य सदैव के लिए आत्मशातिं  (inner peace)
को प्राप्त हो जाता है
                                            शेष .........