Thursday, December 10, 2020

यथास्थितिवाद से मुक्ति कैसे हो?

इस युग मे दो प्रकार के व्यक्ति दिखाई देते है यथास्थितिवादी और प्रगतिशील ।                                यथास्थितिवादी  अर्थात जो चल रहा है उसे चलते रहने दिया जाय । इस प्रकार की प्रवृत्ति में जोखिम नही रहता ।विरोध का सामना नही करना पड़ता । परन्तु प्रगति अवरुध्द हो जाती है । जड़हीनता प्रश्रय पाती है । यथास्थिति से बने रहने सिवाय उन लोगो जो शोषण करने में विश्वास करते है किसी को फायदा नही होता । जो चीज जहाँ पड़ी है बरसो बाद वही पड़ी मिलेगी ।घिसी पिटी परम्पराये जो समाज मे अस्तित्व में थी ।वे परिस्थितियां परिवर्तित होने पर उसी स्वरूप में चलती रहेगी ।
                 परिवर्तन और प्रगति की बात करना और उसे जीवन मे अपनाना साकार करना। दोनों अलग अलग बात है । कितने क्रांति और प्रगति पर भाषण देने वाले जब उन्हें साकार और क्रियान्वित करने की बात आती है तो पीछे हट जाते है । इस प्रकार ही वर्तमान में राजनैतिक पाखंड सहित समाज मे तरह तरह के पाखण्ड चल रहे है ।                                                                          यथास्थिति से जनित जड़ता को समाप्त करने के लिये सुदृढ़ संकल्प और साहस के साथ प्रखर पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है । उपरोक्त गुणों का समावेश उस व्यक्ति में ही सम्भव है ।जिसमे नैतिकता के साथ सत्य पर प्रतिबध्द रहने की सामर्थ्य होती है।  राजनैतिक, सामाजिक , तथा विविध प्रकार प्रकार सत्ताओ से टकराने के साहस होता है ।                                                  प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिये यथास्थिति के मौन को तोड़ना आवश्यक है। यह कल्पना नही की जा सकती कि एक ही दिन में सब कुछ ठीक हो जायेगा। प्रगति और परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया हैं।विशेषकर बहुआयामी परिवर्तन किया जाना हो तो उसमें कठोर परिश्रम के साथ दीर्घकालीन धैर्य की जरूरत रहती है । जल्दी बाजी परिवर्तन की अपेक्षा करना उचित नही है ।इस प्रकार के प्रयासों से विपरीत परिणाम देखने को मिलते है ।

Friday, December 4, 2020

चाणक्य के जासूस

चाणक्य और चंद्रगुप्त के द्वारा नंद राजवंश के विरुध्द राजसत्ता को उखाड़ने का संकल्प और उस संकल्प को मूर्त रूप देना इतिहास का रोचक अध्याय है । परंतु वरिष्ठ लेखक त्रिलोकीनाथ पाण्डेय द्वारा जो उस संघर्ष को गुप्तचर की दृष्टि से देखकर उपन्यास के माध्यम से सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । वह एक कृति के रूप में प्रगट किया गया है उस कृति का नाम है "चाणक्य के जासूस"।
                चाणक्य के  जासूस में गुप्तचरो के प्रशिक्षण से लेकर सैन्य अभियान के समान्तर जो सूचनाएं प्राप्त कर उन सूचना के आधार पर शत्रु पक्ष के विरुध्द समय अनुकूल रणनीति में परिवर्तन कर वांछित लक्ष्य प्राप्त किये जाने के उपक्रम दर्शाये गये वे अन्यत्र दुर्लभ है । पुस्तक में हम जैसे जैसे पढ़ते हुए आगे बढ़ते है पुरातन युग और तत्कालीन परिस्थितियों में प्रवेश करते जाते है ।
         गुप्तचर वे योध्दा होते है जो मौन क्रांति करते हुए क्रूर और आततायी से मुक्ति दिला सकते है। शत्रु का हृदय परिवर्तन कर  उसे अपने हित मे इस्तेमाल कर सकते है। शत्रु को भ्रांति में डाल कर उसे अपनी शरण मे आने हेतु बाध्य कर सकते है । 
               लेखक का यह कहना सही है कि गुप्तचर यदि लेखक बन जाये तो उसे अतीत के आधार पर कल्पना चित्र खींचना पड़ता है ।वर्तमान के आधार पर कृति लेखन में व्यवस्था को हानि उठानी पड़ सकती है । 
                            इसके बावजूद यह दावा किया जा सकता है कि इस उपन्यास में गुप्तचर के जो गुण और उसकी जो पध्दतियां बताई गई है ।विचार करने पर वे आज भी कारगर और उपयोगी है । सूक्ष्म संकेतो और संगठित गुप्तचर अभियानों से हम समाज और राष्ट्र बड़ी क्षति होने से बचा सकते है यह इस का उद्देश्य परिलक्षित होता है।
     उपन्यास में गुप्तचर व्यवस्था में अलग अलग पक्ष के प्रधान के रूप चाणक्य और कात्यायन को दर्शाया गया है । दोनों के अलग अलग तरीके उल्लेखित किये गये है । जहाँ चाणक्य की गुप्तचर नीति में शुचिता और चारित्रिक मूल्यों और वृहद सोच को महत्व दिया गया है ।वही पर कात्यायन की गुप्तचर नीति मात्र राज निष्ठा पर आधारित हो कर शासन प्रबंधन को नियंत्रित करती है। 
           उपन्यास के अंत मे शुचिता, चरित्र और मानवीय मूल्यों की विजय होती है 
     यह रोचक प्रसंग कृति में आता है कि किस प्रकार मगध में वंसतोत्सव मनाया जाता है । बिना युध्द के मात्र गुप्तचर नीति के आधार पर दो वृहत साम्राज्य के शासक नन्द और पुरु का कैसे वध किया जाता है। भ्रांतिया फैलाकर नन्द वंश के गुप्त राजकोष की कैसे खोज की जाती है । शत्रुपक्ष में अपने गुप्तचर भेज किस प्रकार उनको विश्वसनीय बना दिया जाता है । इस कृति ऐसे कई और पक्ष भी है ।जिनका उल्लेख इस संक्षिप्त लेख में किया जाना संभव नही है ।जिन्हें मात्र इस पुस्तक को पढ़कर ही ज्ञात किया जा सकता है ।उपन्यास को राजकमल प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है