Saturday, October 31, 2015

भारत - ऋषि निर्मित राष्ट्र

इस देश में रहने वाले लोगों की एक संस्कृति है। इस संस्कृति के ही कारण यह एक राष्ट्र है। इस राष्ट्र- इस संस्कृति का निर्माण किसने किया ? अन्य देशों मे वहाँ के राजा या सैनिकों के द्वारा राष्ट्रों का निर्माण हुआ है।
परंतु इस राष्ट्र का निर्माण ऋषियों ने किया है। वेद के एक मंत्र से यह स्पष्ट होता है।

भद्रमिच्छन्त : ऋषय: स्वविर्द : तपोदीक्षामुपसेदुरग्रे।
ततो राष्ट्रं बलमोजस्वजातं तस्मैं देवा: उपसन्नु मन्तु।

ऋषि अर्थात जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है। ऋषि अर्थात अपने स्वार्थ का चिन्तन ना करते हुए संसार के हित में सोचने वाले। उपरोक्त श्लोक में भी यही बात आयी है। "भद्रमिच्छन्त : ऋषय" विश्व के कल्याण की कामना रखने वाले ऋषियों ने तप किया।
उनके तप से इस राष्ट्र को बल मिला, तेज मिला। इसी कारण देवता भी आकर इस राष्ट्र को नमस्कार करते हैं।

इस देवनिर्मित देश में, ऋषि निर्मित राष्ट्र में, हमारा जीवन गतिमान है। प्रायः लोग 'ऋषि का अर्थ संन्यासी समझते हैं। परंतु ऋषि का अर्थ संन्यासी नहीं है। सभी ऋषि गृहस्थ थे। एक ही ऋषि संन्यासी थे- 'शुक्र' महर्षि। शुक्र महर्षि के अतिरिक्त  प्रायः सभी ऋषि गृहस्थ थे।
हम इन्हीं ऋषियों की सन्तान है। इस कारण अपने देश मे गौत्र का प्रचलन हैं। हमारे गौत्र ऋषियों के नाम पर है। हम सभी के गौत्र ऋषियों के नाम पर होने का अर्थ यही है कि हम उन ऋषियों की संताने हैं। ऋषियों का चिंतन लोक हित के लिए होता है। सामान्य व्यक्ति सिर्फ स्वयं के बारे में सोचता है। लोक हित में ही प्रत्येक व्यक्ति का हित है एेसा ऋषियों का दर्शन है।

Friday, October 30, 2015

स्वर्ग नर्क और मोक्ष

स्वर्ग नर्क और मोक्ष की अवधारणा
 केवल हिन्दू धर्म में है 
पुनर्जन्म हिन्दू धर्म का महत्वपूर्ण अंग है
पुनर्जम क्या है?
 पुनर्जन्म अपनी गलतियों सुधारने का अवसर है
 इसे बिना समझे
 हम पुनर्जन्म के सिध्दांत पर विश्वास करते है
 स्वर्ग क्या है स्वर्ग रोग मुक्त होकर सज्जनो के मध्य सुविधा के साथ शान्तिपूर्ण जीना है
कई लोगो के लिए यह धरती स्वर्ग है 
इसलिए उन्हें स्वर्ग की कामना करने का 
कोई ओचित्य नहीं है 
सबसे महत्वपूर्ण सिध्दांत मोक्ष का है 
जिसे पाने के लिए ऋषि मुनि ग्यानी तपस्वी 
साधना में लींन रहते है 
जो पुनर्जन्म और आवागमन से मुक्ति का मार्ग है 
जो परमात्म तत्व में विलीन हो जाना है 
सुख दुःख से परे हो जाना है
काम क्रोध मद लोभ मोह से मुक्त होकर
 सांसारिक जीवन में भी समस्त कॉमनाओ विषय वासनाओ से मुक्त हो सकते है 
और मोक्ष की अवस्था का अनुभव कर सकते है
 जहा तक नर्क का प्रश्न है
 हम अपनी मूर्खताओं  के फलस्वरूप 
पतन के मार्ग ओर चले जाते है 
तरह तरह के सुख से वंचित हो जाते है 
दुर्जनो संग पाकर 
अपने स्वाभाविक गुण खोकर 
व्यसनों में लिप्त होकर 
अपना स्वास्थ्य खराब कर लेते है 
नारकीय चिकित्सकीय प्रणालियों के सहारे 
जी पाते है इसी अवस्था को नर्क कहते है

फिर भी करवा चौथ

मन व्यापे विश्वास नहीं फिर भी करवा चौथ
तृप्ति में भी प्यास रही कैसा है ये बोध 

व्रत से शक्ति बनी रहे व्रत भक्ति का रूप
भक्त बसे परमात्मा भक्ति भाव स्वरूप 

सूरज संध्या संग रहा चंदा संग है रात
सजना सजनी संग रहे मंजिल होगी साथ

यहाँ देखता दंग रहा अपनों का व्यवहार
नित बदले रूप रंग है जैसे सात प्रकार

Monday, October 26, 2015

शरद पूर्णिमा की सार्थकता

शारदेय नवरात्रि के पश्चात आने वाली पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है इस दिन खुले आसमान के नीचे खीर बना कर उसे चंद्र किरणों में रखा जाता है रात को चंद्र किरणों के माध्यम से वर्षित सुधा बूंदों को क्षीर पात्र में एकत्र होने के बाद उसे ग्रहण किया जाता है परन्तु इसका तार्किक अर्थ क्या है ?इसका समझना आवश्यक है शारदेय नवरात्रि में शक्ति साधना की उष्णता को शांत किया जाना आवश्यक है खीर जो दूध चावल मेवे से बनती है उसका ओषधीय महत्व होता है वह शक्ति जिसमे उष्णता हो कभी भी किसी का कल्याण नहीं करती है उसके रचनात्मक दिशा देने के लिए उसे आप्त और सौम्य पुरुषो का सान्निध्य चाहिए ।उष्णता से युक्त शक्ति को एकदम से शीतल किये जाने से तप से प्राप्त साधना पर प्रतिकूल पड़ सकता है शक्ति क्षय होने की संभावना विद्यमान रहती है इसलिए चद्रमा रूप आप्त एवम् शीतल और सौम्यता के देव प्रतीक की किरणों से निकली सुषमा जब शरद ऋतू में मौसम में घुल कर क्षीर में प्रविष्ट होती है तो वह खीर अमृत का रूप धारण कर लेती है हमारे तन और मन की उष्णता को शांत कर नवरात्र साधना से संचित शक्ति की उष्णता समाप्त कर उसे समुचित दिशा प्रदान कर देती है

अभाव का प्रभाव

अभाव दो प्रकार के होते है 
एक तो वास्तविक अभाव 
दूसरा कृत्रिम अभाव है 
कृत्रिम अभाव वे होते है 
जिनके रहते हमारा जीवन यापन हो सकता है 
परन्तु हमें हमारी सुविधा भोगी प्रवृत्ति 
कृत्रिम साधनो के अधीन कर देती है
 जो लोग संन्यास की ओर 
अग्रसर होने की ईच्छा रखते हो 
उन्हें कृत्रिम साधनो से जुड़े
 अभावो में रहने का अभ्यास करना चाहिए ।
आश्चर्य तब होता है 
जब संन्यास मार्ग से जुड़े कुछ व्यक्ति
 कृत्रिम साधनो के बिना
 अपना नियमित जीवन व्यतीत करने में 
असमर्थ हो जाते है ।
कृत्रिम साधनो के बिना 
जीवन यापन करने के लिए
 व्यक्ति में वास्तविक वैराग्य की 
भावना होनी आवश्यक है 
वास्तविक वैराग्य 
संतोष और अपरिग्रह के व्रत के पालन 
किये जाने से ही संभव है 
व्यक्ति कितने ही बड़े व्रत कर ले 
दिखने में सामान्य व्रत नहीं कर सकता है

Sunday, October 25, 2015

परजीवी

परजीवी वह प्राणी है जो अपने जीवन के लिए दूसरो से पोषण प्राप्त करता है पराश्रयी होकर वह स्वयं के अस्तित्व के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है
शिथिलता आलस्य इसके प्रमुख लक्षण होते है स्वभिमान शून्य होने के साथ साथ निर्लज्जता इसके आभूषण है दुसरो   का कमाया खाना इसका नैतिक दायित्व होता है सामान्य रूप से परजीवी आशय हम वनस्पति में अमरबेल और जन्तुओ में जोंक से समझते है परन्तु मानव समाज में व्याप्त परजीवी की और किसी का ध्यान तक नहीं जाता ।परजीवी व्यक्ति की एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि उन्हें छोटी छोटी बातो का बहुत बुरा लगता है पर कुछ ही समय बाद वे पुनः सामान्य अवस्था में आ जाते है दिल पर किसी बात को नहीं लगाते ।सरकारी स्तर पर भी ऐसे परजीवियों के पोषण संवर्धन की योजनाये विद्यमान है
जिसमे परजीवी हितग्राहियो का शासकीय स्तर पर यथोचित ध्यान रखा जा रहा है अलग अलग श्रेणियों में अलग पुरूस्कार तक घोषित किये जा रहे है परजीवियों की अनगिनत नस्ले अब निखर आई है
उनकी कोई नस्ल विलुप्त होने की संभावना भी नहीं है
परजीवियों के रूप में जीवित रहने के लिए लंबे अभ्यास की आवश्यकता होती है सीमित खर्च में पारिस्थितियो से तालमेल जो बिठाना पड़ता है परजीविता एक विज्ञान के रूप विकसित होता जा रहा है इसमें जितना शोध किया जाय उतना कम है अब तो परजीविता के हायब्रिड संस्करण भी दिखाई देने लगे है
बस उन्हें हम देख सके पहचान सके ।

Friday, October 23, 2015

अहंकार का आहार

अहंकार भक्ति का शत्रु है
इसके बावजूद व्यक्ति तरह तरह के
 अहंकार में ग्रस्त तो होता ही है साथ ही वह साधना और भक्ति के क्षेत्र में भी चमत्कार 
और वैभव रूपी अहंकार का प्रदर्शन करता है ।
 स्वयं को माँ का परम भक्त निरूपित कर जान सामान्य अपनी धाक ज़माना
 इसी अहम् भवना का द्योतक है ।
भक्ति के नाम पर चकाचौध रोशनियों से युक्त 
बड़ी बड़ी झांकिया जूलूस निकाल कर 
अपने सामाजिक और आर्थिक प्रभाव का प्रदर्शन अहंकार का विस्तार ही तो है 
 अहंकार भावना से युक्त भक्ति एवम् साधक 
भले ही सिध्दियां प्रदान कर दे 
परन्तु ईष्ट की कृपा का पात्र नही  बनाती है 
 ईष्ट की कृपा तो ईश्वर शरणा गति से ही 
प्राप्त की जा सकती है 
अहंकार युक्त शक्ति साधना करते समय
 व्यक्ति यह भूल जाता है की
 माँ जगदम्बा अहंकार का ही आहार करती है ।

Thursday, October 22, 2015

दशहरे पर राम की खोज

विजयादशमी जिसे दशहरा भी कहा जाता है
दशहरा इसलिए 
क्योकि इस दिन बुराईयो के प्रतीक  
रावण का दहन किया जाता है
 दहन वह विनिष्टिकरण की प्रक्रिया है
 जिससे कोई वस्तु वापस दूसरे रूप में 
प्रगट नहीं हो पाती है
 रावण का दहन इसलिए किया जाता है
 ताकि बुराइया समूल नष्ट हो जाए 
पुन अंकुरित होकर परिवर्तित रूप में 
प्रगट न हो पाये ।
विजयादशमी पर दशहरा इसलिए मनाया जाता है क्योकि जब हम बुराइयो का नाश करते है 
तब हम दशो दिशाओ से सुरक्षित हो जाते है
 दशहरे पर श्रीराम के रूप धर कर 
रावण के पुतले का दहन किया जाता है
 ऐसा इसलिए कि बुराइयो को दूर रखने की सामर्थ्य उसी व्यक्ति में होती  है
जो व्यक्ति शुचिता  और सत्य का स्वरूप होता है 
जो व्यक्ति स्वयं कई प्रकार की बुराईयो से
 घिरा होता है 
उस व्यक्ति से बुराईयो को समाप्त करने की
 न तो अपेक्षा की जाती है
 नहीं उसे ऐसा अधिकार दिया जाता है 
यदि ऐसा किया जाता है 
तो बड़ी बुराई को ख़त्म करने के लिये 
छोटी बुराई को प्रोत्साहित करने जैसा ही होगा ।
ऐसी स्थिति में कालान्तर में 
छोटी बुराई के बड़ी बुराई में बदलने की 
पूर्ण संभावना विद्यमान रहती है 
वर्तमान में इसी कारण से बुराईया 
समाप्त नहीं हो पा रही है ।
हमें बुराईयो समाप्त करने के लिए अपने बीच में 
छुपे राम को 
अपने भीतर के राम को ढूंढना होगा

बुध्दि युक्ति विवेक और चेतना

बुध्दि से युक्ति 
बुध्दि से विवेक
 बुध्दि से चेतना जाग्रत होती है 
जब किसी व्यक्ति का बुरा समय आता है तो 
उसकी बुद्धि भ्रष्ट होती है
 बुद्धिमान व्यक्ति दूरदर्शी होता है
बुद्धि मान वह नहीं है जो षड्यंत्रकारी हो 
बुद्दिमान और धूर्त्त व्यक्ति में अंतर होता है 
बुध्दि ही वह तत्व है 
जो आत्मा को शुध्द करती है 
तत्काल निर्णय लेने की क्षमता 
जिस व्यक्ति में होती है
 उसे प्रत्युत्पन्नमति कहा जाता है 
यह बिना ईश्वरीय कृपा से संभव नहीं है 
बुद्धि जनित चेतना से हमें शक्ति प्राप्त होती है 
बुध्दि जनित युक्तियां 
हमें समस्याओ से मुक्त होने का मार्ग बताती है
 बुद्धि जनित विवेक हमें 
आत्म ज्ञान तत्वज्ञान और ज्ञान विज्ञान को 
ग्रहण करने की सामर्थ्य प्रदान करता है 
इसलिए सर्वश्रेष्ठ ईश्वरीय कृपा का पात्र 
वह व्यक्ति है जो बुध्दिमान हो

Saturday, October 17, 2015

प्रेम और व्यवहार कुशलता

जहा प्रेम होता है 
वहा आत्मीयता होती जहा आत्मीयता होती है
 वहां आत्मीयता पूर्ण सम्बोधन होते है 
परन्तु आत्मीयता हो न हो 
फिर  भी व्यवहार में मधुरता सदा आवश्यक है
 इसी मधुर  व्यवहार को 
व्यवहार कुशलता कहा जाता है 
व्यवहार कुशलता जीवन प्रबंधन के लिए 
सदा आवश्यक है 
आत्मीय जन से प्रेम प्रगट करने के लिए 
तो सभी लोग सद व्यवहार दर्शाते है
 व्यवहार कुशल वे लोग होते है 
जो अपने विरोधियो से भी 
मधुर वाणी से संवाद स्थापित कर लेते है
 ऐसे व्यक्तियो को व्यवहार कुशल कहा जाता है 
कटु कर्कश शब्दों में कहा गया सत्य 
सत्य को सही स्थान पर प्रतिष्ठित नहीं कर सकता है सत्य को प्रतिष्ठा दिलवाने के लिए आवश्यक है कि सत्य को सौम्य स्वरूप में उजागर किया जाय
तब आलोचक यह नहीं कह पायेगे 
कि वह व्यक्ति सत्य बोलता है 
पर कड़वा बोलता है
 इसलिए वेदों में भी कहा गया है कि 
सत्यम ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्

साहित्य साहित्यकार और पुरूस्कार

वर्तमान में साहित्यकारों द्वारा 
सम्मान लौटाए जाने की की खबरों को 
मीडिया में प्रमुखता से प्रकाशित किया जा रहा है जितनी सुर्खिया पुरूस्कार लौटाए जाने की
 खबरों ने पाई है 
उतनी तो जब साहित्य अकादमी द्वारा 
पुरूस्कार दिया गया था
 तब भी पुरुस्कृत साहित्यकारों को नहीं मिली थी बहुत साहित्यकारों के बारे में 
लोगो को तब जानकारी मिली 
जब उनके बारे में पुरूस्कार लौटाए जाने की 
खबरे प्रकाशित हुई है 
याने की साहित्यकारों द्वारा पुरूस्कार लौटाया जाना भी एक सुखद स्मृति रहेगी 
कम से कम पुरुस्कृत साहित्यकारों की 
गुमनाम कृतिया चर्चा की विषय 
तो हाल ही के कुछ दिनों तक बनी रहेगी 
प्रश्न यह है साहित्य किसे कहेंगे
जो समाज का हित करे 
परन्तु साहित्यिक संस्थाये अपने अपने
 समूह के साहित्यकारों के हित साधने का 
माध्यम बस रह गई गई है 
विपरीत विचार धारा वाला लेखक या कवि
 कितनी भी उच्च कोटि की 
रचना या कृति का सृजन कर दे 
संस्थाये कभी भी उन्हें पुरुस्कृत करने योग्य नहीं समझती।
सूक्ष्मता से देखे तो पुरूस्कार लौटाने वाले साहित्यकार किसी जमाने में 
उसी संस्था के सर्वेसर्वा थे 
जिस संस्था के पुरूस्कार वे लौटा रहे है
आशय यह है
 ऐसे साहित्यकार्यो ने साहित्यिक संस्थाओ को स्वयं या स्वयं के निकटस्थ कथित साहित्यकारों की 
स्वार्थ साधना का ही माध्यम बनाया था ।
ऐसे साहित्यकारों और साहित्यिक संस्थाओ के कारण साहित्य की नवोदित प्रतिभाये दम तोड़ रही है साहित्य की कई विधाए समाप्त होने की स्थिति में है

कर्म कर ले वीर तू कर्म कर ल

कर्म कर ले वीर तू कर्म कर ले कर्म से ही जीवन महान हैं
आलस्य तो जीवित जलता श्मशान है
कर्म कर ले वीर तू कर्म कर ले....
भूल मत ए वीर तू वीरों की सन्तान है
लक्ष्मण और गुडाकेश तेरे आदर्श महान हैं
कर्म ही जीवन जीने का सूत्र हे, आलस्य तो नाली में बहता मल-मूत्र है
कर्म कर ले वीर तू कर्म कर ले...
जाग जा अब तूझे आलस्य नहीं सूहाता हे
बहुमूल्य जीवन का समय व्यर्थ क्यों गवाता है ?

कब तक तू सोयेगा ? अपनी किस्मत को कब तक रोयेगा ?
रोना तुझे नहीं सुहाता है जाग तू ही अपना भाग्य विधाता है
कर्म कर ले वीर तू कर्म कर ले...
नींद मे अब तू ना रहना आलस्य को तू ना सहना
जाग जा अब यही समय की मांग है मौत के बाद फिर विश्राम ही विश्राम है।

आंतरिक शक्तियो के जागरण का पर्व नवरात्रि

बाह्य शक्तियो से अधिक महत्वपूर्ण भीतर की शक्तिया होती है बाह्य शक्तियो से सम्पन्न व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली हो आंतरिक दुर्बलता व्यक्ति को विवश कर देती है किसी विपत्ति को बर्दाश्त करने के लिए भीतर की शक्तिया चाहिए नवरात्रि की साधना आंतरिक शक्तियो के जागरण का उत्सव है परन्तु क्या माता की भक्ति करने वाले आंतरिक शक्तियो का संधान करते है
ऐसा प्रतीत नहीं होता है निज कर्म से विमुख हो धार्मिक अनुष्ठान करना आंतरिक दुर्बलता को दर्शाता है ऐसे धार्मिक अनुष्ठान व्यक्ति की कर्म से पलायनवादी प्रवृत्ति को दर्शाते है धर्म वह है जो कर्म की प्रखरता में वृध्दि कर दे भक्ति हो ज्ञान दोनों योग की श्रेणी में माने गए है और योग के बारे में कहा गया है योगः कर्मशु कौशलम् इसलिए नवरात्रि साधना के अवसर पर आंतरिक शक्तियो का जागरण ही वास्तविक शक्ति उपासना है कायरता पलायन अकर्मण्यता से मुक्ति प्राप्त कर लेना ही माता का साक्षात्कार है

Sunday, October 11, 2015

महर्षि दधीचि की तपोभूमि

तपस्या व्यक्ति को तपोबल प्रदान करती है
तपोबल से व्यक्ति दिव्य शक्तिया प्राप्त करता है
ऐसे बहुत कम तपस्वी होते है 
जिन्होंने तपस्या से
अर्जित तपोबल का उपयोग 
लोक कल्याण के लिए किया है
 ऐसे ही तपस्वी महर्षि दधीचि थे 
जिनके तपोबल से तपी अस्थियो को 
महर्षि ने दैत्य शक्तियो के विनाश के लिए
 दान किया था 
परन्तु यह तथ्य बहुत कम लोग जानते है कि 
महर्षि दधीचि की तपोभूमि वर्तमान में कहा स्थित है आज हम महर्षि दधीचि की तपोभूमि जो धरमपुरी जिला धार (म.प्र.)में स्थित के ऐतिहासिक और पौराणिक स्वरूप के बारे में बताते है
धरमपुरी जहा नर्मदा नदी दो भागो में विभक्त होती है
दोनों धाराओ के बीच एक द्वीप स्थित है
 जिसे रेवा गर्भ स्थल कहा जाता है पर दधीचि मुनि की तपो स्थली विद्यमान है

Saturday, October 10, 2015

एकांत की सार्थकता

एकांत सदा दुखदायी नहीं होता
एकांत सभी व्यक्तियो के लिए सुख दाई नहीं होता
एकांत वरदान भी होता
अभिशाप भी होता
एकांत में रह कर महर्षि अरविन्द ने माँ जगदम्बा को
माँ भारती के स्वरूप में पाया है
एकांत सेवन कर तुलसी ने रामायण रची
प्रभु श्रीराम को पाया है
एकान्तिक सरीता के तट पर इस मन ने रचा है गीत
कल कल लहरो के समीप मधुर गीत गाया है
एकांत अँधेरा अपराध में सहायक है
अँधेरे एकांत में है कातर स्वर हर व्यक्ति होता गायक है एकांत कभी योगी को मोक्ष तो
कभी भक्ति को शक्ति दिलवाता है
एकांत पलो में प्रेयसी से प्रियतम मिल पाता है
एकांत जितना शांत है उतना आक्रान्त है
मरघट की एकान्तता होती बेहद डरावनी है
पनघट की एकांतता होती शांत मनभावनी है
इसलिए एकांत आनंद और भय दोनों का पर्याय है
एकांत में हम भोग से ही नहीं
योग और अध्यात्म से जुड़े
परमार्थ होता जीवन में अनिवार्य है

Friday, October 9, 2015

चित्त में पलते संकल्प और विकल्प

जिस प्रकार मन चंद्रमा का प्रतीक और सूर्य बुध्दि का प्रतीक होते है |उसी प्रकार हमारा चित्त जो मन और बुध्दि से सूक्ष्म पर व्यापक होता है |आकाश का प्रतीक होता है चित्त में चिंतन निवास करता है |चित्त में आत्मा से जुड़े संस्कार प्रवाहित होते रहते है |रात्रि में जिस प्रकार आकाश में तारे टीम टिमाते है ठीक वैसे ही हमारे चित्त में संकल्प और विकल्प उठते रहते है
| जब हम ध्यानस्थ होते है तो हमारा प्रयास रहता है कि इन संकल्प विकल्पों से नियंत्रित विचारो को रोक कर एकाग्र होकर चित में विराजित परम तत्व के सामीप्य का अनुभव करना |दिन के उजाले में तारे दृष्टिगत नहीं होते है |वैसे ही भाग दौड़ भरी व्यस्तता में हमे हमारे मन में पलने वाले संकल्प विकल्प दिखाई नहीं देते है इसलिए हम चित्त में प्रविष्ट करने के लिए रात्रि के सामान शांत वातावरण की तलाश करते रहते है हमे एकांत अच्छा लगता है |

Wednesday, October 7, 2015

मन बुध्दि के प्रतीक सूरज और चन्द्रमा

चद्रमा व्यक्ति के मन का प्रतीक है |
  सूरज व्यक्ति की बुध्दि का प्रतीक है
मन की अवस्था अस्थिर होती है
ठीक उसी प्रकार से चद्रमा का आकार और उसका स्वरूप परिवर्तित होता रहता है
जो व्यक्ति मन के अनुसार निर्णय लेले है
वे निर्णय भावना प्रधान होते है
भावनाओ में उथल पुथल होने से स्वभाव में स्थिरता नहीं रहती ऐसे व्यक्ति के निर्णय बदले भी जा सकते है
जबकि सूरज जो बुध्दि का प्रतीक होता है
अपने निश्चय पर दृढ और समय का पाबन्द होता है
सूरज के आकार में परिवर्तन नहीं होता है
बुध्दि से निर्णय लेने वाला व्यक्ति संकल्प का दृढ होता है उसके कार्य व्यवहार में विश्वसनीयता प्रतिबिंबित होती है व्यक्तित्व में सूरज की तरह ओजस्विता दर्शित होती है इसलिए हमें यह तय करना है क़ि हम मन रूप चन्द्रमा से प्रकाश पाये या बुध्दि रूपी सूरज से तेज ग्रहण करे

Tuesday, October 6, 2015

अनन्त ईच्छाओ की मृगतृष्णा

कामनाए इच्छाये हर मनुष्य के जीवन मे किसी ना किसी रूप में निहित रहती है शायद यही हमें मनुष्य बनाती है, क्योंकि यदि यह कामनाए इच्छाये किसी के जीवन मे ना हो तो वह व्यक्ति असाधारण, ईशवर तुल्य हो जाये क्योंकि केवल ईशवर ही हे जिसको कोई ईच्छा कामना ञस्त नहीं करती जबकि देवता भी इस रोग से अच्छुते नहीं वे भी हर क्षण स्वर्ग के सुखों की इच्छा रखते है
इसका मतलब यह नहीं की जीवन मे कामनाए अथवा इच्छाये होना गलत हे मेरा यह मतलब कदापि नहीं हे कामनाए और इच्छाये होना चाहिए परन्तु  सकारात्मक रूप में जो व्यक्ति को जीवन में आगे बढने को प्रेरित करे उसे कुछ अच्छा कुछ बढ़ा करने को प्रोत्साहित करे, फिर इच्छाओं का व्यक्ति की सीमा व्यक्ति के सामर्थ्य और योग्यता के अनुरूप होना भी परम आवश्यक है
अब दो ही विकल्प शेष रह जाते हे या तो व्यक्ति स्वयं को अपनी इच्छाओं के अनुरूप योग्य बनाये अथवा अपनी इच्छाओं को अपनी योग्यता अनुसार रखे परंतु अधिकांश लोग एेसा नहीं करते वे बस बिना योग्यता व विशेष प्रयासों को करे बिना ही वह सब इच्छाये पुरी कर लेना चाहते है और यही कारण हे की वह इच्छाओं की  मृगतृष्णा में फस कर स्वयं अपना ही नुकसान कर लेता है अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह अन्य किसी पर निर्भर रहना शुरू कर देता हे और यही निर्भरता उसे पंगु बना देती है
वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए उस अन्य की विवशता को भी नजरअंदाज कर देता है बस स्वयं को ही केन्द्र में रखता है जो कि सर्वथा अनुचित है क्योंकि ईच्छाये का तो कोई अन्त नहीं।

Saturday, October 3, 2015

एकांत

आज रमेश बहुत थका हारा था 
कोचिंग क्लास से आकर उसने हाथ मुंह धोया और चाय पी 
काफी दिन हो गए थे 
उसे अपने साथियो के साथ 
रूम पार्टनर के रूप में रहते 
माँ बाप ने बड़ी उम्मीदों के साथ बड़े शहर पढने के लिए भेजा था की बेटा कलेक्टर बनेगा 
रमेश की भी महत्कांक्षा थी की वह आई.ऐ ,एस न सही राज्य प्रशासनिक परीक्षा ही उत्तीर्ण का ले 
पर यह उसका तीसरा साल था प्रारंभिक परीक्षा में तो वह उत्तीर्ण हो जाता था
 परन्तु मुख्य परीक्षा में असफल | दोस्त ऐसे की वे उसे कम्पनी दे सकते थे पर हौसला नहीं 
रमेश को इसी में संतोष था की वह प्रयास तो कर रहा है देखते देखते उसके कई सहपाठी अपने 
माता पिता के साथ रहते पढ़ाई करते हुए कई अच्छे प्रशासनिक पदो पर आसीन हो चुके थे 
पर रमेश था कि  उसे अपने परिवार से अलग रह कर पढ़ाई करने के लिए उपयुक्त वातावरण उचित कोचिंग 
और एकांत चाहिए था | इस दौड़ भाग कोलाहल की जिंदगी में उसे महानगरीय मित्रो के बीच कहा एकांत मिल पाता  रमेश की आँखे खुल चुकी थी कि सफलता के लिए एकांत और कोचिंग की नहीं एकाग्रता और स्वाध्याय की आवश्यता थी