प्राचीन भारत में युद्ध के दौरान योध्दा
किसी पराक्रमी वीर को परास्त तथा वध करने के लिए
चक्रव्यूह की रचना करते थे
यदि शत्रु पक्ष का योध्दा चक्रव्यूह का भेदन नहीं कर पाता था
तो युध्द के पूर्ण होने के पूर्व ही युध्द का निर्णय हो जाता था
और चक्रव्यूह की चुनौती देने वाला पक्ष विजय हो जाता था
चक्रव्यूह को भेद कर योध्दा को भीतर प्रवेश ही नहीं करना होता था
अपितु उससे बाहर भी निकलना होता था युध्द के दौरान
तथा चक्रव्यूह के भेदन हेतु युध्द नीति के कुछ नियम होते थे
जिनका पालन प्रत्येक योध्द्दा के लिए अनिवार्य होते थे
जैसे जब तक किसी योध्द्दा के पास अस्त्र या शस्त्र होते थे
तब तक उस पर प्रहार किया जाता था निहत्थे योध्दा पर किसी प्रकार का प्रहार किया जाना निषिध्द था चक्रव्यूह को भेदने के लिए योध्दा के पास मात्र बल और सैनिको की संख्या की पर्याप्त नहीं होती थी
बल्कि योध्दा का शस्त्र -अस्त्र कौशल्य और
उसकी सूझ -बूझ की आवश्यकता होती थी
इसलिए बहुत शक्तिशाली योध्दा भी चक्रव्यूह को भेदने में विफल रह जाते थे और सामान्य योध्दा जिसमे शस्त्र -अस्त्र कौशल्य और सूझ -बूझ होती थी
वह चक्रव्यूह कुशलता पूर्वक भेदकर
युध्द्द के निर्णय को अपने पक्ष में कर लेते थे
कहने आशय यह है जीवन की कठिनाइयो
और जटिल परिस्थतियो पर विजय प्राप्त करने के लिए
मात्र किसी प्रकार का बल होना ही पर्याप्त नहीं होता
परिस्थितियों के चक्रव्यूह को भेदने हेतु
व्यक्ति में उसी प्रकार के गुण होने चाहिए
जिस प्रकार के गुण युध्द में रचे जाने वाले
चक्रव्यूह को भेदने वाले योध्दा में पाए जाते है
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