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Saturday, June 29, 2013

ह्रदय में पीड़ा रहती है

किनारा पास है
 सांस हार मत पथिक 
उजाला पास है
 तू हार मत पथिक 
तेरा विश्वास में 
युगों का बल है बाकी 
तू मत निराश हो 
भले कठिनाई हो अधिक 
सफ़र की है थकन तो क्या 
तू आशा का मोती है 
तू पथ पर कदम रख दे
 बुलाती नवीन ज्योति है 
चमक तारो सी है झील मिल
 न जाने कब कैसे खोती है 
 सफलता क्यों नहीं मिलती 
  फिसलती जाती रेती है
तू नयनो में न भर आंसू 
ह्रदय में पीड़ा रहती है 

आखिरी जंग बाकी हे



कभी कभी जीवन मे ऐसा समय आता है जब निराशा के काले बादल उजियाले आकाश को घेर लेते है और लगता हे मानो किसी भी पल वो बादल फट पडेगा और सब कुछ तसस नहस हो जाएगा वक्त जब आखोँ के सामने गुजरता हे तो एक एक पल सर्पदंश सा चुभता हे । समय हाथो से रेत की भाँति फिसल जाता हे और खाली हाथ रह जाते हे जो उस बाढ मे बहने से बचने के लिए हारी हुई लडाई लड रहे है जो उस बादल के फटने से आई थी । पर अभी आखिरी जंग बाकी हे विजय की सम्भावना यद्दिपी ना के बराबर सी हे पर हे तो सही क्योकि ऐसे वक्त मे जीवन के पथ पर किये गए संर्घष और प्रेरणात्मक अनुभव जो इस जीवन में पुन: ऊर्जा का संचार करते है 
जो  लडाई को जारी रखने की प्रेरणा देते है आगे जो होगा देखा जाएगा।

बहुत वक्त बीत गया जिन्दगी जद्दोजहत मे तेरी अब तू ही बता मेरा कसूर क्या था, हर पल तेरा था फिर भी हिसाब माँगा तूने लगता हे तुझे विशवास न मेरा था खैर तेरा भी कसूर नही हे वक्त ही कुछ ऐसा था जब साया ही अपना ना हुआ तो तुझसे भी क्यो गिला करु?

Friday, June 28, 2013

परोपकार



परोपकार की महिमा  शास्त्रों ने गाई  है

परोपकारी  प्रवृत्ति प्रक्रति ने पाई है 
परोपकारी व्यक्तित्व ने यश कीर्ति पाई है 
परोपकारी भावना ने ही यह सृष्टि सजाई है 
परोपकार जीवन चेतना का मन्त्र है 
परोपकार है तो जीवित जनतंत्र है 
परोपकारी भाव नदी, वन, धरती ने पाया है 
परोपकारी नभ है जिसने अमृत बरसाया है 
परोपकार में सच्चा  सुख है बाकी सब माया है 
परोपकार वहा नहीं जहा मिथ्याभिमान है 
परोपकार वहा नहीं जहा यश  कीर्ति की चाह है 
परोपकारी सरोवर में निर्मल नीर अथाह है 
परोपकार में परेशानिया नहीं ,समाधान की राह है 
परोपकार ही सच्ची समाज सेवा है 
परोपकार गंगा ,जमुना है सिन्धु ,रेवा है 
परोपकारी भावना से ओत -प्रोत पर्वत हिमालय है 
परोपकारी ध्वनी  से युक्त बजते शंख
 महकते  देवालय  है 
परोपकारी देव शिव है  श्री कृष्ण ,बलराम है 
परोपकारी बनो कहते  आये पुरुषोत्तम  श्रीराम है 
परोपकार जीवन का जल है भक्ति निष्काम है 
रहते है इस भावना में ही चारो धाम है 
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Saturday, June 15, 2013

अस्मिता और आत्मसम्मान

व्यक्ति महिला हो या पुरुष हो 
अकारण आक्षेप  लगने  अपमानित हो जाता है 
व्यक्ति के आत्मसम्मान का मुल्य 
उसकी सम्पन्नता से नहीं आंका जा सकता 
बहुत से ऐसे व्यक्ति समाज में विद्यमान है 
जो अत्यधिक समृध्द होने के बावजूद 
स्वाभिमान शून्य और आत्मसम्मान की 
भावना से विहीन है इसके विपरीत 
बहुत से दरिद्रता पूर्ण परिस्थितियों में जीवन यापन 
करने वाले व्यक्ति आत्मसम्मान के लिए 
जीवन तक न्यौछावर कर देते है 
आत्मसम्मान को आघात पहुचने पर 
या तो वे किसी भी सीमा तक पहुचने से नहीं चुकते 
इतिहास में अनेक ऐसी महिलाए हुई है 
जिन्होंने आत्मसम्मान के लिए जौहर किया 
चित्तोड गढ  में  विजय स्तम्भ के समीप 
स्थल इस तथ्य का साक्षी है 
जहाँ  रानी पद्मिनी ने सैकड़ो अन्य  महिलाओं  के साथ 
अपनी अस्मिता को बचाने के लिए 
अग्नि शिखा  में कूदकर जौहर किया था
 त्रेतायुग में देवी अहिल्या जो गौतम ऋषि की भार्या थी 
इंद्र  के द्वारा  छल से शील भंग किये जाने से
 शापित हुई कहा जाता है की वह 
पाषाण का रूप धारण कर चुकी थी 
जिनका उध्दार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम ने किया था 
यहाँ पाषाण वत होने का आशय समझना होगा
 क्या वास्तव में अहिल्या पत्थर बन चुकी थी 
पत्थर तो प्रतीक है 
जिस व्यक्ति में संवेदना का भाव समाप्त होता है 
भाव विहीन हो जाता है 
उसे पत्थर दिल ही कहा जाता 
अहिल्या जो आत्मसमान से युक्त महिला थी
 छल से अपनी अस्मिता खो देने के बाद 
पति गौतम ऋषि द्वारा परित्यक्त की जा चुकी थी 
अकारण उपेक्षा और अपमान के कारण 
अपनी सुध-बुध खो चुकी थी 
संवेदनाये खो कर भाव विहीन अर्थात 
पाषाण वत हो चुकी थी
 भगवान् राम जो युग पुरुष थे के द्वारा ऐसी महिला के प्रति 
सहानुभूति प्रकट किये जाने पर 
और सम्मान प्रकट किये जाने पर 
आत्मविश्वास पाकर मानवीय संवेदना से परिपूर्ण चुकी थी
 इसलिए कहते है देवी अहिल्या का श्रीराम द्वारा उध्दार किया गया था 
वर्तमान में अकारण अपनी अस्मिता खो देने वाली 
अह्ल्याये जो पाषाण  वत  हो चुकी है 
के उध्दार हेतु  मर्यादा पुरुषोत्तम की भूमिका  कोई 
निभाने वाला है या नहीं यह ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने उपस्थित है 
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Wednesday, June 12, 2013

यज्ञोपवित

भारतीय संस्कृति में यज्ञोपवित का अत्यधिक महत्व है 
यज्ञोपवित प्रतीक है प्रतिबद्धता के और कर्तव्य का 
यज्ञोपवित और उससे जुडी मान्यताओं को 
समझाने की आवश्यकता है 
यज्ञोपवित का संधि -विच्छेद किये जाने पर यज्ञ+उपवीत होता है 
अर्थात वह वे सूत्र जिनके बिना व्यक्ति 
यज्ञ में बैठने का अधिकारी नहीं होता है 
यज्ञ  में विराजमान अग्नि देव यज्ञोपवित को धारण किये बिना
 किसी भी व्यक्ति की आहुति को ग्रहण नहीं करते है 
यज्ञोपवित में तीन धागे के सूत्र होते है 
तीनो सूत्र अलग -अलग दायित्वों कर्तव्यो की पूर्ति का 
स्मरण कराते रहते है 
प्रथम सूत्र पितृ ऋण  का प्रतीक होता है 
द्वितीय सूत्र गुरु ऋण  का और तीसरा सूत्र देव ऋण का प्रतीक होता है 
पितृ ऋण क्या है इसे समझना आवश्यक है 
पितृ ऋण में अपने माता पिता  और पूर्वजो के प्रति
 दायित्व और कर्तव्य होते है 
हमारा दायित्व है की 
हम माता पिता  की सेवा करे उनका आदर करे 
माता पिता  को सीमित अर्थ में न मानकर 
उसे वास्तविक अर्थो में जानना आवश्यक है 
माता पिता  में प्राकृतिक माता के साथ -साथ 
हमें उन  व्यक्तियों के प्रति भी कृतज्ञता का 
भाव में रखना चाहिए 
जिन्होंने माता और पिता  के सामान 
हमारे हितो का सरंक्षण और संवर्धन किया 
पूर्वजो के प्रति हमारी सर्वश्रेष्ठ कृतज्ञता और श्रद्धा तब मानी जावेगी जब पूर्वजो के संस्कारों विचारों के सामान आचरण करेगे 
और पूर्वजो द्वारा स्थापित भौतिक ,अध्यात्मिक 
और सामाजिक संपदाओ को सहेज कर रखे 
द्वितीय सूत्र देव ऋण का प्रतीक होता है 
देव अथात सतोगुण से युक्त सज्जन शक्ति का सरक्षण 
अपने ईष्ट के प्रति अगाध आस्था उसका सतत स्मरण 
संसार में व्याप्त समस्त व्यक्तियों में ईश के अंश की अनुभूति करना 
श्रेष्ठ संकल्पों को साकार करना आदि 
देव ऋण से मुक्त होने के मार्ग है 
तीसरा सूत्र होता है गुरु ऋण का प्रतीक गुरु क्या है 
यह आवश्यक नहीं है गुरु देहिक रूप में विद्यमान हो 
सामान्य रूप से गुरु शिक्षक को भी कहा जाता है
 परन्तु यह गुरु अर्थ की सीमित व्याख्या है 
गुरु हर वह व्यक्ति है जो हमारा मार्ग दर्शन करता है 
चाहे वह ज्ञान का क्षेत्र हो या अध्यात्म का 
अथवा जीवन की जटिलताओ से मुक्ति का मार्ग बताने वाला 
हामारी जिज्ञासाओं को शांत करने वाला 
यदि हम ढूँढने  का प्रयास करेगे तो 
गुरु तत्व हमारे चारो और बिखरा हुआ है
 बस उसे पहचाने की आवश्यकता है 
गुरु ऋण से मुक्ति यही उपाय है की
 हम सभी प्रकार के गुरुओ  के प्रति 
अपने समुचित दायित्वों का निर्वाह करे 
गुरु दक्षिणा  भिन्न भिन्न गुरुओ के लिए 
भिन्न भिन्न हो सकती है 
गुरु दक्षिणा किसी प्रकार के द्रव्य पदार्थ 
और धन के रूप परिभाषित करना गुरु दक्षिणा 
की सीमित व्याख्या होगी 
कभी -कभी गुरु इस तथ्य से संतुष्ट हो जाता है
 शिष्य ने उसके दिए गए 
प्रशिक्षण में पूर्ण कार्य कुशलता प्राप्त कर ली है 
जो व्यक्ति तीनो प्रकार के ऋणों  
अर्थात दायित्वों का पालन करता है 
यज्ञ रुपी  ईश्वर उसी व्यक्ति की आहुती  अर्थात प्रार्थना  ग्रहण करते है 


Sunday, June 9, 2013

संयोग

सभी प्रकार के संयोग नहीं मिलते 
जब पर्याप्त समय होता है 
तब धन नहीं होता 
जब धन विपुल मात्रा में होता है तब समय नहीं होता 
जब व्यक्ति के पास समय और धन दोनों उपलब्ध होते है 
तब स्वास्थ्य नहीं होता 
जब व्यक्ति के पास धन समय स्वास्थ्य तीनो होते है 
तब स्वतंत्रता नहीं होती 
जब स्वतंत्रता होती 
तब व्यक्ति में किसी वस्तु या विषय के प्रति आसक्ति 
और उपभोग करने की इच्छा समाप्त हो जाती है 

Friday, June 7, 2013

मन कर्म वचन

ईश्वरीय शक्तियों की अनुभूतियाँ 
एवं उनका साक्षात्कार किन व्यक्तियों को होता है 
परम सत्ता के अनुभव और उसका सामीप्य पाने के लिए
 व्यक्ति कितने ही मंत्रो यंत्रो और अनुष्ठानो गुरुओ का आश्रय लेता है फिर वह सर्व शक्तिमान के आशीष से वंचित ही रहता है
 वह कौनसा मार्ग है 
जो परम सत्ता के अस्तित्व की अनुभूति करवाता है 
इस विषय पर यह आवश्यक हो जाता है 
ईश साधना के पूर्व व्यक्ति मन कर्म वचन से एक हो जाए 
अर्थात मन में जो संकल्प हो विचार हो 
वह ही वचन के रूप जिव्हा पर शब्द रूप में हो 
जो वचन हो वह ही कर्म के रूप में परिणित हो
 जिस व्यक्ति के मन कर्म वचन में भेद नहीं होता
 उस व्यक्ति की क्षणिक साधना ही 
उस व्यक्ति को  ईश्वरीय अनुभूतियो से परिचित करा देती है
 मन शिव स्वरूप है वचन ब्रह्म स्वरूप है 
तथा कर्म विष्णु स्वरूप है
उल्लेखनीय है की  त्रिदेवो के कार्य भले ही भिन्न हो 
परन्तु उनके बीच कभी भी मतभेद नहीं होते 
समय के अनुसार त्रिदेव अपनी अपनी भूमिका को 
बेहतर और सर्वोत्त्कृष्ट पध्दति से क्रिवान्वित करते है
 व्यक्ति जब मन वचन और में भेद रखता है 
तो ऐसा व्यक्ति दोगला कहलाता है 
दोगले व्यक्ति का मुल्य कौड़ी का नहीं रहता 
ऐसे व्यक्ति पर जब संसार सांसारिक लोग विशवास  नहीं करते है
 तो भला ईश्वर  कैसे विशवास कर सकता है 

Saturday, June 1, 2013

संघर्ष में ही निखरता व्यक्तित्त्व

जीवन सभी प्रकार की अनुकूलताओ से भरा हो
 यह संभव नहीं है
जहा  गरीब आदमी के पास स्वास्थ्य होता है
 उसके पास धन नहीं होता
जहा धनवान व्यक्ति के पास सभी प्रकार की सुविधाए होती
 वह अच्छे स्वास्थ्य स्वामी हो 
 यह आवश्यक नहीं
किसी व्यक्ति को संतान सुख हो 
उसकी संताने आज्ञाकारी हो ,यह आवश्यक नहीं
पत्नी सौन्दर्य की स्वामिनी हो 
उस पत्नी में स्त्रियोचित गुण हो ,यह आवश्यक नहीं
ज्ञान के साथ विवेक हो ,यह सदा नहीं होता
कोई व्यक्ति फूटपाथ पर भूख के कारण रोता है
तो कोई व्यक्ति महल में भी चैन की नींद नहीं सोता
गरीबी के परिवार में परस्पर विश्वास का भाव बना रहता
वही परिवार सम्पन्न होने पर एक दूजे का विशवास खोता
गरीब आदमी की अपनी समस्याए है
धनी  व्यक्ति की अपनी अनकही व्यथाए है
अधिक आय से कहा अधिक सुख मिल पाया है
अल्प आय में भी कोई सही ढंग कोई जी पाया है
जो अभावो में मित्र रहे है
अभावो में जिन्होंने साथ रह कर दुःख सुख सहे है
वे समृध्दी के पलो में साथी नहीं रहे है
समृध्दी सदा व्यक्ति को लुभाती क्यों है?
कथाये प्रेम और सौन्दर्य की सभी को सुहाती क्यों है ?
प्रेम पथिक को बाद में जिंदगी रुलाती क्यों  है ?
सज्जनता सज्जनों कमजोरी क्यों कहलाई 
बुराईयों पर अच्छाईयों पर विजय कहानियों में ही क्यों हो पाई ?
इन सभी प्रश्नों के मिल पाए कहा पर हल है 
सूर्य परिश्रम के बल उगता फिर भी   क्यों वह अस्ताचल है 
प्रश्नों की भीड़ में कोई हो जबाब तो सोचो 
जबाब की तलाश करो या भाग्य की रेखाओं को खरोंचो
जबाब केवल एक है संघर्ष ही  जीवन है 
संघर्ष में ही निखरता व्यक्तित्त्व बनता नरोत्तम है