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Monday, April 30, 2012

ज्योतिर्लिग में निराकार पर ब्रह्म का वास

भगवान् शिव के मंदिर में शिव जी के दर्शन ज्योतिर्लिंग के रूप में होते है 
 ज्योतिर्लिंग अर्थात निराकार  ईश्वर जिसका कोई आकार नहीं हो 
जो ज्योति स्वरूप हो ज्योतिर्लिंग के रूप में उसकी मंदिर में स्थापना का उद्देश्य यह नहीं है 
कि हम अनावश्यक कर्मकांड में लिप्त रहे 
अनावश्यक कर्मकांड से मुक्ति से मानव रहे 
इसलिए ज्योतिर्लिंग की आराधना 
प्रकृति में सहज उपलब्ध जल एवम बिल्ब पत्र से की जाती है 
 हम देखते है की शिव जी के ज्योति स्वरूप की परिक्रमा पूर्ण रूपेण नहीं की जाती है
हठ योग में ज्योति के समक्ष साधक द्वारा की गई साधना को त्राटक कहा गया है 
त्राटक साधना के साधक को अद्भुत परिणाम प्राप्त होते है
 शिव जी के ज्योति स्वरूप के दर्शन करने के बाद यह विधान है 
कि मंदिर के गर्भ गृह के बाहर आकर नंदी के नेत्रों के स्तर तक आकर दर्शनार्थी ज्योतिर्लिंग के दर्शन करे
 इसका यह तात्पर्य यह है कि 
 नंदी जी निराकार ईश के समक्ष समर्पण भावना को द्योतक है 
समर्पण के अभाव में ईश्वरीय तत्व से साक्षात्कार नहीं हो सकता है 
इसलिए साधक की नंदी के समान समर्पण भावना बनी रहे 
इस प्रक्रिया को शिव मंदिरों ज्योतिर्लिग के समक्ष नंदी को दंडवत करते हुए बताया गया है 
यदि हम शिव मंदिर में दर्शन करते हुए उपरोक्त भावना को आत्मसात कर पाए 
तो शिव के ज्योति स्वरूप से सहज ही साक्षात्कार संभव है 
अन्यथा हमारा जीवन अनावश्यक आडम्बरो में पडा रहेगा  

Sunday, April 22, 2012

श्रीराम रूपी ईश्वरीय तत्व की प्राप्ति कैसे हो

राम कहा?
 कैसे ?
किन परिस्थितियों में उत्पन्न होते है? 
उक्त प्रश्नों के उत्तर उनके माता पिता जन्म भूमि के नामो में निहित है 
उल्लेखनीय यह है कि 
श्रीराम के पिता दशरथ ,माता कौशल्या ,विमाता सुमित्रा ,जन्मभूमि अयोध्या थी 
अर्थात  पिता दशरथ तात्पर्यित दश इन्द्रियों का रथी   पाच ज्ञान इन्द्रियों व पांच कर्म इन्द्रियों पर शासन करने वाला हो 
माता कौशल्या का कर्म का कौशल्य जिसके पास हो 
विमाता सुमित्रा सा मैत्री पूर्ण व्यवहार हो 
जहा सत्कर्म कि अयोध्या हो 
वहा श्रीराम रूपी ईश्वरीय का  तत्व स्वतः अवतरित हो जाता है 
इसलिए यदि हमे सचमुच में श्रीराम तत्व को पाना हो तो दशरथ के सामान दस इन्द्रियों को अनुशासित कर किसी भी कार्य को पूर्ण कौशल्य से करना चाहिए 
तथा मित्रता पूर्ण व्यवहार जीवन में अंगीकार कर  
सत्कर्म कि अयोध्या में जीवन यापन करना चाहिए   

दस इन्द्रियों के रथी दशरथ

दशरथ जो भगवान् श्रीराम के पिता थे  
रामचरितमानस ग्रन्थ के अनुसार कहा जाता है
 उन्होंने श्रीराम जो उनके पुत्र थे के वियोग में प्राण दे दिए थे  
किन्तु प्रश्न यह उठता है
 की प्राचीन काल में यथा गुण तथा नाम रखे जाने का प्रचलन था दशरथ का तात्पर्य यह होता है 
की दस रथो पर एक साथ नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति 
दस  रथ कौनसे ?
इसका आशय यह है की मानव शरीर में दस इन्द्रिया होती है 
जिनमे पांच ज्ञान इन्द्रिया पांच कर्म इन्द्रिया  
महाराजा दशरथ वे व्यक्ति थे जिन्होंने दसो इन्द्रियों को एक साथ साध रखा था  
गीता में ऐसा व्यक्ति जिसने सुख दुःख से  उत्पन्न  प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर ली हो स्थित प्रज्ञ कहा गया है
सामान्यत कोई भी व्यक्ति इन्द्रियों के वशीभूत होकर गलत कार्य कर बैठता है इन्द्रियों के वशीभूत होकर राग द्वेष काम क्रोध ,लोभ ,मोह ,इत्यादी वृत्तियों के अधीन रहता है
 किन्तु महाराज दशरथ जिन्होंने दस इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लिया हो का पुत्र वियोग में रोना और प्राणों का त्याग कर देना अस्वाभाविक प्रतीत होता है  
तार्किक दृष्टि से दशरथ जैसे स्थित प्रज्ञ एवम दस इन्द्रियों के रथी का श्रीराम के वनवास गमन के दौरान प्राण त्याग करने का अर्थ सामने यह आता है 
कि महाराजा दशरथ एक न्याय प्रिय राजा थे 
वे किसी भी परिस्थिति में किसी भी पक्ष के साथ अन्याय नहीं कर सकते थे 
परन्तु कैकयी को दिए गये वचन के कारण जो श्रीराम के साथ जो अन्याय हुआ वे उसके कारण अत्यंत विचलित हो गये थे 
जीते जी वे श्रीराम के साथ हुए अन्याय को देख पाने में समर्थ नहीं थे इसलिए उनका प्राण त्यागना अपरिहार्य हो गया था 
दूसरी और श्रीराम ने अपने पिता के वचन की लाज रखने हेतु वनवास प्रस्थान इसलिए किया 
क्योकि श्रीराम विष्णु के अवतार थे 
विष्णु भगवान के परम भक्त महाराजा दशरथ थे 
भगवान् सदा भक्त द्वारा दिए गए वचन की लाज रखते है 
जिसके लिए चाहे उन्हें कुछ भी क्यों न करना पड़े कलयुग में इसका उदाहरण नरसिंग मेहता भगत है सतयुग में भक्त प्रहलाद है 

Wednesday, April 18, 2012

इतिहास

इतिहास क्या है ?
बीता हुआ समय 
बीता हुआ समय व्यक्ति ,समाज 
या देश का हो सकता है 
सामान्य रूप से देश या समाज का इतिहास 
अध्ययन का विषय होते है 
व्यक्तिगत इतिहास आत्मकथा की शक्ल में होता है 
इतिहास क्यों लिखा और पढ़ा जाता है ?
त्रुटियों की पुनरावृत्ति न हो 
बीते हुए अनुभवों से लाभ उठाया जाए और भविष्य संवारा जाय 
इसलिए इतिहास लिखा और पढ़ा जाता है 
मात्र अतीत के गौरव पूर्ण स्मृतियों को याद कर उनमे खो जाने के लिए इतिहास नहीं होता 
गौरव पूर्ण स्मृतियों से तो हम आगे बढ़ने की प्रेरणा ग्रहण करते है 
पुरुषार्थी व्यक्ति ,चरित्रवान व्यक्तियों से परिपूर्ण समाज या देश नित्य नवीन नए 
कीर्तिमान बनाते है स्वयं आगे बढ़ते है समाज ,देश को आगे बढाते है 
और निरंतर नवीन इतिहास  रचाते है 
ऐसे व्यक्ति ,समाज ,देश पर  इतिहासविद  नया इतिहास लिख पाते है 
इतिहास बनाने वाले व्यक्ति इतिहास पुरुष ही नहीं 
महापुरुष कहलाते है 
अकर्मण्य पुरुष तो मात्र अतीत की स्वर्णिम स्मृतियों के बल पर ही जी पाते है 
इसलिए इतिहास के पृष्ठों पर अंकित गौरव में अभिभूत रहने के बजाय 
नित्य नवीन इतिहास बनाओ 
अतीत की त्रुटियों से सीखो परिपूर्णता के साथ पुरुषार्थ करो 
और इतिहास के इस विलक्षण गुण से सुखद भावी का निर्माण करो     

Saturday, April 14, 2012

नारियल पूजा में महत्वपूर्ण क्यों ?

नारियल फल का पूजा कर्म तथा किसी विद्वान व्यक्ति के सम्मान में बहुत महत्त्व है ऐसा क्यों ?
नारियल फल का उद्गम समुद्र के किनारे होता है 
इसके पेड़ ऊँचे ऊँचे होते है नारियल पेड़ की जड़े गहरी होती है नारियल फल भीतर से स्वादिष्ट मृदु जल से भरा तथा बाहर से खुरदरा रेशेदार कठोर कवच वाला होता है  
व्यवहारिक जीवन में हम देखते है 
की संसार सागर  ईर्ष्या परस्पर घृणा रूपी लवण से भरा है 
सज्जन व्यक्ति को संसार  विद्वेष रूपी लवण सागर के निकट रह कर भी ऐसे लवण युक्त जल से पर्याप्त दुरी रखते हुए 
मानवीय गहराईयों से  सद्गुणों के नीर को लेकर जीवन में मृदु जल रखना चाहिए 
तथा जिससे जीवन का मधुर स्वाद ग्रहण किया जा सकता है 
नारियल के बाहरी कवच कठोर होने तथा कवच रेशेदार होने का आशय यह है कि
जो मृदु जल एवम और मधुर स्वाद  सद्गुणों का ग्रहण किया है 
उन्हें सांसारिक बुराईयों से सुरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा हमारे व्यक्तित्व की अच्छाईयों को दुर्गुणों का संक्रमण लग सकता है 
हमें नारियल की तरह जीवन में सद्गुणों व्यक्तित्व  के सद्गुणों का संपोषण एवम संरक्षण करना चाहिए 
ऐसे व्यक्ति को ईश्वर  उसी प्रकार पसंद करते है जिस प्रकार ईश्वर को  नारियल फल उन्हें प्रिय होता है  

Wednesday, April 11, 2012

कमल पुष्प ईश्वर को प्रिय क्यों ?

कमल ,पंकज ,इत्यादि नामो से संबोधित किये जाने वाला 
पुष्प देवताओं को क्यों प्रिय है
 कमल सतोगुण का प्रतीक है  यह पुष्प बताता है 
की किस प्रकार अभाव रूपी कीचड़ में अंकुरित होकर रवि किरणों से  जीवन प्रेरणाओ को पाकर प्रफ्फुलित ,पुलकित ,होना है 
जबकि गुलाब पुष्प रजो गुण का प्रतीक है 
जो अच्छी गुणवत्ता वाली मिटटी में तथा समुचित पोषण  से ही खिलता है 
भारतीय संस्कृति में सदा ही सत्य 
एवम उससे जुड़े सतो गुण को महत्त्व दिया है 
इसलिए महालक्ष्मी  कमल पुष्प उत्तिष्ठ मुद्रा में 
तथा ब्रह्म देव कमल पर विराजित मुद्रा में दिखाई देते है 
कमल गट्टे की माला से महालक्ष्मी की 
दिवाली के अवसर पर पूजा की जाती है
  
जबकि गुलाब पुष्प प्रारम्भ से ही प्रेम ,विलासिता ,उपभोक्तावादी सोच का पर्याय रहा है 
अर्थात यह पुष्प स्वयं सुविधा पूर्ण वातावरण में पल्लवित होता है
 तथा सुविधाभोगी वर्ग की प्रिय पसंद रहा है 
गुलाब पुष्प की रंगों एवम सुगंध की दृष्टि से जितनी प्रजातिया पाई जाती है 
 उतनी कमल की नहीं पाई जाती है 
इसके अतिरिक्त गुलाब पुष्प के पौधे की प्रत्येक डाली की कलम बनाकर 
नवीन स्वतंत्र पौधे में परिवर्तित किया जा सकता है जो प्राचीन समय में रक्त-बीज राक्षस की विशेषता थी  कि उसकी जहा भी रक्त बूंद गिरती थी 
वहा एक नया राक्षस उत्पन्न हो जाता था
अर्थात सतोगुण व्यक्ति रंग एवम सुगंध बदलने में माहिर नहीं होते है 
इसके विपरीत रजोगुणी एवम तमोगुणी व्यक्ति परिस्थितियों के अनुसार रंग एवम सुगंध बदलने में निपुण होते है 
 उन्हें सहज ही समझ पाना कठिन होता है
तथा ऐसे व्यक्तियों की संख्या में देखते देखते वृध्दि होती जाती है
  कमल पुष्प रूपी सतोगुणी व्यक्ति संख्या में अल्प होते है
उनमे न तो शीघ्रता से संख्या में वृध्दि होती है 
और नहीं उनमे अचानक मित्रता एवं स्थापित होती है कहने का आशय यह है 
 ईश्वर को कमल पुष्प के समान स्वभाव वाला व्यक्ति प्रिय है 
इसलिए पूजा में कमल पुष्प का ही अधिक महत्त्व है 
ईश्वर को गुलाब जैसे रंग एवम सुगंध की विविधता लिए स्वभाव वाले व्यक्ति प्रिय नहीं है 
इसलिए ईश पूजा में गुलाब पुष्प का अधिक महत्त्व नहीं है 
परमात्मा का प्रिय बनना है तो जप ,तप,साधना के साथ स्वभाव से कमल पुष्प सा स्वभाव विकसित करना होगा  

Friday, April 6, 2012

हनुमद दृष्टि विकसित करे सृष्टि

पवन पुत्र हनुमान शिव के अंशावतार कहे जाते है
सर्वप्रथम हम इस विषय पर सोचे कि
जिस दशानन रावण को शिव जी ने अभयदान दिया था 
शिव जी रावण के इष्ट देवता थे 
उन्हें हनुमान जी के रूप में अवतार लेने की आवश्यकता क्यों हुई इसका मूल कारण यह था कि
  जिस व्यक्ति को एक बार अभयदान दे दिया और जो शरणागत आ गया हो वह कितना भी दुष्ट क्यों न हो 
उसका वध करना उचित नहीं होता है 
इसलिए शिव जी ने हनुमान जी के रूप में 
वानर कुल में अवतार लिया था 
हनुमान जी चाहते तो स्वयं रावण का वध कर सकते थे 
किन्तु उन्होंने श्रीराम जी का साथ दिया तथा भिन्न भिन्न प्रकार से रावण के सहयोगियों संहार किया 
स्थितिया श्रीराम के अनुकूल बनायी 
संभवत यदि हनुमान जी नहीं होते तो 
रावण का वध किया जाना श्रीराम के लिए मुश्किल था 
इसका तात्पर्य यह है कि 
 शिव जी ने हनुमान जी के रूप में अवतार लेने के बावजूद मर्यादा का पालन किया  
हनुमान जी के बारे में कहा जाता है 
 कि वे राम काज करने को आतुर रहते थे 
राम काज का तात्पर्य यदि राम जी के सहयोग को मानना 
संकीर्ण अर्थ होगा 
उन्होंने श्रीराम जी से हुई प्रथम भेट के पूर्व भी 
सुग्रीव जैसे सज्जन व्यक्ति की  रक्षा  की 
तथा तपस्यारत मुनियों को राक्षसों से सरंक्षण भी प्रदान किया 
आज भी जब कोई सज्जन व्यक्ति संकट ग्रस्त होता 
तो श्री हनुमान जी को याद करने पर वे तुरंत राम काज मान कर 
मदद करने को तत्पर हो जाते है 
हनुमान जी में एक विशेष गुण था की वे छद्म वेशी को तुरंत पहचान जाते थे
 जैसे उन्होंने विभीषण एवम कालनेमि में पहचान की 
हमारे जीवन में सदा हनुमद दृष्टि रहे यह प्रयास करना चाहिए 
 हनुमान जी का यह गुण की कभी भी उन्होंने किसी भी महत्वपूर्ण कार्य का श्रेय स्वयं नहीं लिया अद्भुत था 
जैसे राम एवम रावण के युध्द के पूर्व एवम युध्द के समय उन्होंने नल -नील से समुद्र पर सेतु निर्माण का कार्य प्रारंभ करवाना 
,अंगद को राम जी के दूत के रूप रावण के दरबार में भेजना 
,सुग्रीव को सेनापति के रूप युध्द में अग्रसर करना 
जाम्बवंत जी को मार्गदर्शन समय समय पर प्राप्त करना 
यह हनुमान जी की नेत्रत्व क्षमता को दर्शाता है 
किसी भी कार्य के श्रेय लेने वाले व्यक्तियों को 
हनुमान जी से उक्त गुण ग्रहण कर अपने व्यक्तित्व में विकास कर कार्य का श्रेय  बांटने का अभ्यास करना चाहिए  

Wednesday, April 4, 2012

आत्म बल के जागरण का पर्व

व्यक्ति मे कई प्रकार के बल होते है
जिनमे शारीरिक बल ,धन-बल ,चारित्रिक बल,
बुध्दि बल ,मानसिक बल होते है
शारिरिक रूप से बलवान व्यक्ति पहलवान कहलाता है
चारित्रिक रुप से बलवान व्यक्ति चरित्रवान कहलाता है
आर्थिक रुप से बलवान व्यक्ति धनवान कहलाता है
बौध्दिक रुप से बलवान व्यक्ति बुध्दिमान कहलाता है
मानसिक बल से सम्पन्न व्यक्ति मनीषी कहलाता है
उपरोक्त बलो का संबन्ध व्यक्ति के शरीर 
एवम शरीर से जुडी इन्द्रियो से होता है 
आत्म-बल का संबन्ध व्यक्ति की आत्मा से होता  है
बल के अनुसार व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार अपने -अपने क्षैत्र
मे पुरूषार्थ का प्रदर्शन करता है 
उसी के अनुसार उसकी योग्यता ,
पराक्रम या वीरता के मानदंड स्थापित होते है
महावीर जयन्ती आत्म बल की श्रेष्ठता से जुडी वीरता के बारे मे है
 आत्मा  का बल आत्मा से जुडा हुआ है
आत्मा का बल आत्मा की शुध्दी से है 
 महावीर स्वामी  ने आत्मा के शुध्दी के उपाय बताये है 
उन्होने आत्मा बल की जाग्रति पर अधिक जोर दिया है
यदि व्यक्ति शारीरिक रुप से आर्थिक रूप से बौध्दिक रूप से कितना ही सम्पन्न हो
किन्तु उसमे आत्म-बल का अभाव है तो 
ऐसा व्यक्ति आत्मविश्वास से शून्य होता है 
आत्मबल कारण ही व्यक्ति अपनी सभी इन्द्रियो पर विजय प्राप्त कर सकता है
आत्मबल के कारण व्यक्ति मे संकल्प के प्रति
 सहज ही दृढ़ता  आ जाती है
और  वह काम क्रोध ,लोभ,मोह ,अहंकार,लोकेषणा इत्यादी भावना पर विजय प्राप्त कर सकता है
उल्लेखनीय है कि प्रत्येक व्यक्ति मे अच्छे व बुरे विचारो का द्वन्द का निरन्तर चलता रहता है
बुरे पर अच्छे विचारो की विजय तभी संभव होती है जब व्यक्ति आत्मबल से युक्त होता है
ऐसे व्यक्ति को ही महावीर का संबोधन दिया जाता है इसलिये महावीर जयन्ती को आत्मबल का जागरण के पर्व
के रुप मे मनाया जाय तो भगवान महावीर स्वामी के प्रति सच्ची श्रध्दान्जली होगी



Monday, April 2, 2012

तमोगुण से सतोगुण की यात्रा नवरात्री

चैत्र नवरात्रि का समापन रामनवमी पर होता है
 नवरात्रि के अवसर व्यक्ति अपनी आसुरी वृत्तियों से मुक्त होने के लिए भिन्न भिन्न उपाय करता है 
अर्थात भूख  प्यास पर नियंत्रण ,जप -तप इत्यादि उपाय करता है किन्तु 
यह देखने में यह भी आता है की 
कुछ साधको के मन में शांति एवम वृत्तियों के नियंत्रण के स्थान पर 
मन में अशांति ,क्रोध ,अहंकार की उत्पत्ति होती है
 वह आसुरिक प्रवृत्तिया इस पर्व के मूल महत्त्व को समाप्त कर देती है कुछ साधक स्वयम को ईश्वर के अधिक समीप बताने हेतु 
तरह तरह से अनावश्यक पाखण्ड रचते है 
जबकि वास्तव में ईश्वरीय तत्व  
नित्य शुध्द एवम पाखण्ड विहीन होता है 
पाखण्ड कर्म पुरातन युग में दैत्य गण भी करते थे 
इसके शास्त्रों में तरह तरह के प्रमाण मिलते है 
इसलिए आवश्यकता है 
नवरात्रि में सात्विक भावना से दुष्प्रवृत्तियों को त्यागने हेतु निरंतर  साधना एवम अहंकार शून्य होकर ईश्वरीय शरणागति होकर साधना की जाये 
रामनवमी को हवन की अग्नि में सामग्री के साथ मन की दुष्प्रवृत्तियों का दहन किया जाय 
 तद्पश्चात श्रीराम जी दर्शन करने का तात्पर्य यह है की 
समस्त दुष्प्रवृत्तियों को दहन करने के पश्चात
 सतोगुण रूपी राम को स्वयं में समाहित किया जाय 
यदि हमने राम नवमी के दिन सतोगुण रूपी राम को स्वयं समाहित नहीं किया तो नवरात्रि में की गई साधना निरर्थक है 
 नवरात्रि तमोगुण से सतोगुण की यात्रा है 
इसकी भिन्न भिन्न तिथिया तमोगुण से सतोगुण की और बढ़ने की अवस्थाये है 
महत्त्वपूर्ण यह तथ्य है की इस यात्रा में कौनसा पथिक रामत्व रूपी सतोगुण के कितना निकट पहुचा

Sunday, April 1, 2012

क्षमा का अधिकार


क्षमा का अधिकार 




शास्त्रों  मैं लिखा हैं -
 
"क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हैं
        उसे नही जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल  हैं"

क्षमा को वीरो का आभूषण बतलाया जाता हैं अपने क्षत्रु को विजय  के  पश्चात क्षमा कर देना न केवल एक बहुत बड़ा निर्णय होता हैं अपितु उसमे  ये शंका भी रहती हैं की क्षत्रु पुनह आघात कर सकता हैं. परन्तू  जो बलवान होता हैं सशक्त होता हैं विजयी होता हैं वो अपनी शरण मैं आये हुए क्षत्रु को बिना इस विषय पर विचार किये क्षमा कर देता हैं और क्षमा करने का अधिकार भी उसी को शोभा देता हैं जिसमे  बल होता हैं जो शक्तिवान होता हैं सामर्थ्यवान होता हैं. क्योंकी कमजोर किसी को क्या क्षमा करेगा उस द्रश्य की कल्पना कीजिये जिसमे एक कमज़ोर एक पहलवान से कहे जा मैंने तुझे माफ़ किया जा घर  जाकर खेर मना आज तेरा  दिन  अच्छा  हैं कल्पना मात्र से ही हँसी आ जाना स्वाभाविक हैं.
क्षमा करने का अधिकार सदेव बलवान को ही प्राप्त हैं आखिर वो व्यक्ति किसी को माफ़ क्या करेगा जिसमे बल ही  नही शक्ति नही जो किसी को हरा नही सकता जो कभी जीत नही सकता जो कभी विजित नही हुआ वो तो केवल कल्पना ही कर सकता हैं.
श्लोक का विवरण - क्षमा उसी को शोभ देती हैं जिसके पास बल होता हैं यहा उदाहरण के लिए भुजंग अर्थात सर्प को इंगित किया हैं सर्प जो की गरल (विष ) का स्वामी होता हैं उसकी मात्र एक काट से ही सामने वाला काल को प्राप्त हो जाता हैं और ऐसे ही बल वाला व्यक्ति क्षमा करने का अधिकार रखता हैं .
क्षमा उसे शोभा नही देती जिसके पास ना तो बल होता हैं ना ही साहस होता हैं ( बिना दाँतों वाला, बिना विष वाला, सरल और सीधा सा कमजोर प्राणी भला किसी को क्या मारेगा और क्या माफ़ करेगा)
यहाँ विष को बल के रूप मैं वर्णित किया गया हैं .
बिना दांतों,विष वाला सीधा सरल  आदि उपमा बोधक शब्द कमजोर व्यक्ति को इंगित करते हैं. 
बल किसी भी रूप मैं हो सकता हैं - भुजबल, बाहुबल, आत्मबल, व्यक्ति का किसी बड़े पद पर होना प्रसासनिक बल, जनबल ,बुधिबल आदि.
 
इस प्रसंग  से ये बात भी निकल कर आती हैं की बल के साथ - साथ  शील का होना भी अति आवश्यक हैं जो व्यक्ति बलवान होने के साथ साथ शीलवान होता हैं वो और अधिक उच्च होता हैं उसका बल उतना ही अधिक शोभा  पाता  होता हैं और वही उस शक्ति का सही पात्र होता हैं.
शील - बल का अभिमान ना होना उसका दुरपयोग ना करना ही शील वान होना हैं आत्मिक सयंम और विनम्रता युक्त बल .