सत्य क्या है और असत्य क्या है
स्थान परिवेश और समय के साथ साथ
सत्य और असत्य के स्वरूप बदल जाते है
कभी असत्य सत्य के आवरण में हमें दिखाई देता है
तो कभी सत्य का सूरज बादलो की ओट में
निस्तेज और प्रभावहीन दिखाई देता है
परन्तु जिस वक्तव्य से लोक कल्याण हो
आत्मा की उन्नति हो वह किसी भी रूप में हो
वह वास्तविक सत्य होता है
सत्य बोलने में तात्कालिक लाभ नहीं मिलता
दूरगामी परिणाम अच्छे होते है
जबकि असत्य भाषण से तात्कालिक लाभ
भले ही कोई हासिल कर ले
दूरगामी परिणाम आत्मघाती होते है
असत्य भाषण करने वाले व्यक्ति द्वारा कही गई
हर बात संदिग्ध दिखाई देती है
ऐसे व्यक्ति को अपनी बात को सत्य प्रमाणित करने के लिए
तथ्य रखने पड़ते है
इसलिए कहा जाता है कि
न च सभा यत्र न सन्ति वृध्दा
वृध्दा न ते येन न वदन्ति धर्म
धर्म सानो यत्र न सत्य मस्ती
सत्य न तत यत छल नानुम वृध्दिम
सत्य के स्वरूप को जानने समझने के लिए
एक दृष्टि की आवश्यकता होती है
जिसे अनुभव ज्ञान एवं प्रज्ञा की दृष्टि कही जा सकती है
ऐसी दृष्टि को शिव के तीसरे नेत्र की उपमा दी जा सकती है
जिस व्यक्ति को शिव की तीसरे नेत्र की प्राप्त हो चुकी हो
उसे सत्य पर आधारित पहचाने में तनिक भी देर नहीं लगती