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Saturday, December 17, 2011

पात्रता प्राप्ती एवम परमेश्वर



सामान्य रूप से यह देखा जाता है
कि कोई सामान्य व्यक्ति किसी अति विशिष्ट व्यक्ति से मिलने हेतु उसके निकट जाता है
तो उसे सर्वप्रथम पूर्व अनुमति लेना पडती है
अनुमति मिलने पर ही कोई सामान्य व्यक्ति विशिष्ट व्यक्ति से मिल पाता है
किन्तु बात ईश्वर कि हो तो उसके लिये अनुमति ही नही बल्कि कठोर साधना
समर्पण एवम निश्छल ह्रदय कि अावश्यकता होती है
भगवान राम जो विष्णु भगवान के अंश थे
यदि अयोध्या के राजा राम होते ,तो क्या उनसे घनघोर वन मे निवास रत
केवट निषाद , दलित महिला शबरी ,सुग्रीव ,इत्यादि का मिलना संभव था ,
क्या राक्षस कुल मे उत्पन्न त्रिजटा का महा देवी महालक्ष्मी की अंश सीता जी से मिलना संभव था
,बिल्कुल नही
किन्तु इन सभी को भगवान राम एवम देवी सीता मिले ही नही अपितु इनके साथ सुख दुख भी बॅाेटे
यह क्या एक अाश्चर्य से कम नही कि
भिन्न भिन्न भौगोलिक परिस्थितियो समाज प्रदेशो मे उत्पन्न व्यक्तियों की
परमात्म रूप से भिन्न भिन्न प्रकार से मिलने कि स्थितिया बनी
मात्र यही कारण नही हो सकता कि भगवान राम को वनवास मिला हो
सूक्ष्मता से चिन्तन करने पर हमे यह ज्ञात होगा
कि उक्त स्थितियो अर्थात वन मधुबन विरक्ति अासक्ति जीवन म्रत्यु का
विश्व रुप परम पिता परमात्मा के लिये का कोई महत्व नही है
भगवान राम या माता सीता वन मे रहते या महल मे
उनमे ईश अंश होने से कोई बडा अंतर नही अा जाता
मात्र परमात्म अंश श्रीराम को तो उन अात्माअों के निकट जाना था
जो परिस्थितियो वश उनसे मिलने मे समर्थ नही हो पा रही थी, वनवास भोगना तो मात्र निमित्त था
अाशय यह है कि यदि पात्रता नही हो तो कोई भी व्यक्ति कितना ही समय निकाल कर
किसी विशिष्ट व्यक्ति अथवा ईश्वर से मिलने के कितने उपाय कर ले उसका प्रयोजन सफल नही होगा
,यदि व्यक्ति मे पात्रता हो तो परमात्मा ऐसी स्थितियो का निर्माण करता है
कि पात्र व्यक्ति से स्वयम ही वांछित विशिष्ट व्यक्ति स्वतः मिल जाता है
यहा तक कि भगवान स्वयम भक्त की खोज मे वन वन भटकते उसके घर अा जाते है
अौर पात्र व्यक्ति के साारे मनोरथ पूर्ण होते है

घनिष्ठता शिष्टता विशिष्टता



कोई व्यक्ति घनिष्ठ हो और अति विशिष्ट हो
उस व्यक्ति से मिलने का क्या तरीका हो सकता है
इसका बेहतरीन उदाहरण भगवान श्रीकृष्ण एवम सुदामा मिलन का प्रसंग है
सुदामा जो श्रीकृष्ण के बाल सखा थे ने फिर भी ने द्वार पालों से जाकर कहा कि वे श्रीकृष्ण जो मिलना चाहते है और उनका नाम सुदामा है
द्वार पाल उनकी दीन-हीन अवस्था देख कर स्तब्ध रहे
किन्तु सुदामा अनुमति मिलने तक वे प्रतिक्षा करते रहे
लम्बे समय की प्रतिक्षा के पश्चात वे श्रीकृष्ण के द्वार पर आने  पर ही महल के भीतर गये
सुदामा की इसी शिष्टतापूर्ण व्यवहार एवम मित्रता का परिणाम था कि भगवान श्रीकृष्ण नंगे दौडते हुये द्वार पर सुदामा को लेने आये
जबकि वर्तमान मे देखने मे यह तथ्य आता है कि
जब कोई घनिष्ठ व्यक्ति किसी महत्वपूर्ण पद पर पहुच जाता है
तो उसके मित्र निकट सम्बंधी शिष्टाचार की सारी हदे लांघ कर लोगो के सामने
रौब झाडने के लिये सीधे विशिष्ट व्यक्ति से मिलते है तथा ऐसी हरकते करते है कि
जिससे सारा वातावरण विषाक्त हो जाता है
परिणाम यह होता है कि प्रथम द्रष्टि मे ही उस विशिष्ट और घनिष्ठ व्यक्ति के मन मे क्षोभ उत्पन्न होता है
और मिलने वाला व्यक्ति जिस अपेक्षा से मिलने जाता है उसे न तो सही प्रकार से व्यवहार मिल पाता है
तथा उसका समाधान भी नही हो पाता है
सुदामा ने श्रीकृष्ण से मिलने के समय न तो आतुरता दिखाई और न ही अपनी पीडा प्रकट की
श्रीकृष्ण भगवान ने उनकी अवस्था को देखकर उनकी मनोदशा व उनकी वास्तविक स्थितियो को समझ लिया
करुणा सागर श्रीकृष्ण ने सुदामा घर पहुचते उसके पहले ही उसका समाधान कर दिया
यह घनिष्ठ विशिष्ट मित्रता के साथ की गई शिष्टता का ही तो परिणाम था
अन्यथा मात्र घनिष्ठता मे कि गई उद्दंडता सुदामा का कहा भला कर पाती