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Tuesday, June 30, 2020

व्यक्तित्व की सघनता

वृक्ष हो या व्यक्ति उसका  बड़ा होना पर्याप्त नही है। घना होना भी आवश्यक है, नही तो लोग ऊंचाई से आतंकित होने लगते है ।पास आने पर भी डर लगता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व में ऊंचाई के साथ घनत्व भी होना चाहिये ।घनत्व के साथ व्यक्ति के व्यक्तित्व में गुरुत्व भी होना  चाहिए
            लोग अक्सर सफलता और ऊँचे लक्ष्य पाकर उदारता खो देते है उदारता ही व्यक्ति के व्यक्तित्व की सघनता निर्धारित करती है अहंकार से ग्रस्त होने पर व्यक्ति किसी काम का नही रहता । अधिकार और वैभव प्राप्त होने पर तो कोई भी व्यक्ति सामान्य शिष्टाचार भूल जाता है । अपने अधिकारों का दुरुपयोग  प्रारम्भ कर देता है ।ऐसे अहंकारी व्यक्ति से किसको क्या मिल सकता है ? जो लोग ऐसे व्यक्ति से कोई आशा रखते है तो वह ऐसा ही होगा जैसे रेत में से  कोई व्यक्ति तेल निकाल ले। मरुथल में कोई व्यक्ति उद्यान लगा ले ।जो वृक्ष सघन होते है वे ही छायादार और फलदार होते है । जो व्यक्ति उदार होते है वे मानवीय गुणों की सघनता से परिपूर्ण होते है उनके पास दुसरो को देने के लिए सकरात्मकता ,सर्जनात्मकता ,होती है इसलिए लोग उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर खींचे चले आते है । उन्हें जबरन किसी को बुलाने की आवश्यकता नही होती है अपनी बात को मनवाने के लिए कुतर्को का सहारा नही लेना पड़ता । उनके व्यक्तित्व में सदैव स्नेह संवेदना और करुणा की छाया रहती है । उनका सानिध्य मात्र ही तन मन को आल्हादित कर देता है 
           घने वृक्षो के  पत्तो और डालियो पर जिस प्रकार पंछी सुरक्षा का भाव पाते है ।अपने घोंसले बनाते है । पथिक थकान मिटाते है ।घने वृक्ष की विद्यमानता यह सुनिश्चित करती है कि उसके आस पास निश्चय ही मीठे जल का स्त्रोत होगा । उसी प्रकार से सघन व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति की सघनता के पीछे उनकी जड़ो की गहनता और संस्कारों की विरासत होती है ।

Tuesday, June 23, 2020

बेनियाज़ मियाद के पार-कहानी समीक्षा

जहाँ हमारे देश मे मानसिक अवसादों पर बहुत कम साहित्य लिखा गया है वही हिंदी उपन्यासकारा और वरिष्ठ लेखिका श्रीमती मृदुला गर्ग की द्वारा अभिलिखित कहानी "बेनियाज़ मियाद पार" में  मनोवैज्ञानिक समस्याओं की और गंभीरता से ध्यान आकृष्ट किया गया है। कहानी में बताया गया है कि किस प्रकार से कोई व्यक्ति मानसिक अवसाद से ग्रस्त होकर विचारो के भ्रांतियों का शिकार हो जाता है ।चिकित्सक भी समझ नही पाते है कि यह शारीरिक रुग्णता है या मनोवैज्ञानिक ऐसी स्थिति में व्यक्ति निराशाओ से घिरता जाता है ।
              बेनियाज़ मियाद पार को लेखिका का आत्मानुभव कहे तो ज्यादा अच्छा होगा।लेखिका की आयु 80 वर्ष होना बताई गई है बुजुर्ग व्यक्तियों की आयु जनित अंग शिथिलताओ के साथ मनोवैज्ञानिक समस्याएं भी पैदा होने लगती है । कहानी में उकेरी गई अनुभूतियो से हमे बुजुगों की मानसिक स्थितियों को समझने में सहायता मिलती है ।कहानी जिस प्रकार से कही गई है उससे पाठक का मन गुदगुदाता है ।
      कहानी का संदेश यह है कि कब कोई मानसिक समस्या शारीरिक समस्या बन जाती है हमे पता ही नही चलता ।यह कहानी ऐसे लोगो की अनुभूतियो को शब्द प्रदान करती है ।जो तरह तरह की मानसिक पीड़ाओं से घिरे रहते है और जो अपनी पीड़ा को सही प्रकार से प्रगट ही नही कर पाते है ।कहानी में लेखिका के रूप में प्रकाशन जगत से जुड़ी चिंताओं को इस रूप में प्रगट किया है लेखक को पता ही नही चलता कि उसके द्वारा अभिलिखित कृति से प्राप्त निधि का प्रकाशक द्वारा किस प्रकार व्ययन किया गया है 
       कहानी हमे इस तथ्य से अवगत कराती है हमारे देश मे कुशल मानसिक चिकित्सक नही होने से और मनोरोगियों को गलत दवाईया दिए जाने से किस प्रकार से मरीज साइड इफ़ेक्ट का शिकार होता जाता है ।

Friday, June 19, 2020

हसीनाबाद-उपन्यास समीक्षा

लेखिका गीता श्री द्वारा अभिलिखित उपन्यास जो वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ है ।यह उपन्यास समाज के एक ऐसे वर्ग की पीड़ा को बयान करता है जिनके बारे में लोग खुले मुँह बात करना पसंद नही करते  अर्थात ग्रामीण क्षेत्र के सामन्तवादी लोगो की वासनाओ की तृप्त करने वाली महिलाओं और उनके बच्चों की दास्तान का नाम है हसीनाबाद।
           वैसे तो देश के कई हिस्सों में हसीनाबाद जैसी बस्तियां दिखाई देती है परंतु उपन्यास में उल्लेखित हसीनाबाद बिहार के वैशाली जिले से सम्बंधित है  उपन्यास की केंद्रीय पात्र सुंदरी जिसे कुछ लोग बचपन मे उसके गांव उठाकर ले जाते है और बाद में उसे है हसीनाबाद में ठाकुर सजावल सिह ठाकुर की कामनाओ का शिकार होना पडता है ।सुंदरी जिसे अपनी नियति मान लेती है । कालांतर में सुंदरी को ठाकुर सजावल सिंह से एक पुत्र रमेश और एक पुत्री गोलमी पैदा होती है । उपन्यास की सम्पूर्ण कथा सुंदरी की पुत्री गोलमी के इर्द गिर्द घूमती है ।हसीना बाद में सुंदरी जैसी अनेक स्त्रियां होती है जो अलग अलग ठाकुरों की यौन इच्छाओ की पूर्ति की साधन मात्र होती है ।परम्परा के तहत ठाकुर उनके जीवन यापन की सारी व्यवस्था करते है ।ऐसी महिलाओं की लड़कियों को पुनः अनैतिक कृत्यों में लिप्त होना पड़ता है कला संगीत नृत्य के माध्यम से ठाकुरों अगली संतति की तृष्णाएं शांत करनी पड़ती है ।लड़को को ठाकुरों सेवा में रह कर लठैतों की भूमिका निभाना पड़ती है ।।                                 कथानक के अनुसार हसीनाबाद मूल भूत सुविधाओ से वंचित रहता है ।महिलाओं के बच्चे अशिक्षित ।ऐसे में एक दिन सुंदरी गांव के मंदिर में अन्य स्थान से आई भजन मंडली के सदस्य  सुगन महतो के साथ प्रेम प्रसंग के रहते अपनी पुत्री गोलमी को लेकर भाग जाती है और सूजन महतो जो पूर्व से अन्य महिला से विवाहित है रहने लगती है । सुंदरी की पुत्री गोलमी और उसकी सहेली रज्जो गांव के अन्य लड़के खेचरु और अढाई सौ के बचपन को उपन्यास में लेखिका द्वारा बहुत खूबसूरती से चित्रित किया गया है। कथा के अनुसार सुंदरी गोलमी को पढ़ाना चाहती है परंतु गोलमी नृत्य और संगीत में रुचि रखती है । उधर सुंदर पुत्र रमेश जिसे वह मालती देवी के पास छोड़कर आ गई थी। वह उपेक्षित बचपन बीताते हुए बड़ा होता जाता है अपनी माँ और बहन के प्रति मन मे घृणा का भाव रखता है । रमेश अपने मित्र उस्मान जो ईट के भट्टे पर मजदूर है तथा ठाकुरों के निर्देशों पर क्रूर कृत्यों को अंजाम देता है के साथ आत्मीयता और सामीप्य का अनुभव करता है ।गोलमी अपनी नृत्य और संगीत में रुचि के चलते नृत्य कला मंडली का गठन कर गांव गांव में लोगो का मनोरंजन करती है । नृत्य कला मंडली में गोलमी का साथ रज्जो खेचरु अढाई सौ देते है इसी दौरान एक राजनेता राम बालक सिंह की दृष्टि गोलमी पर पड़ती जो गोलमी की नृत्य और गीत की कथ्य शैली से प्रभावित होकर उन्हें अपनी पार्टी के चुनाव के प्रचार हेतु मना लेते है ।
         समय के साथ गोलमी कला के सोपान के माध्यम से राजनीति के शिखर पर पहुँच जाती है और रमेश कुशल राजनेता के रूप में स्वयम को स्थापित कर लेता है 
          उपन्यास  अंग्रेजो के समय के पुराने सामन्तवाद  को आजादी के नवीन रूप धारण करते बताया गया है । किस प्रकार राज नेता राम खिलावन के पिता संग्राम सिंह जो प्रथम कोटि के शराबी थे फर्जी तौर पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी घोषित रोचक कथा के माध्यम से प्रगट किया गया है  । सामंतवादियों द्वारा यौन शोषण की गई महिलाएं जब वृध्दावस्था को प्राप्त होती उनकी मानसिक स्थितियों को सूक्ष्मता से विश्लेषित  किया गया है ।कथा में वरिष्ठ लेखक प्रभात रंजन जी की कृति "कोठागोई" में उल्लेखित चतुर्भुज और उनसे जुड़ी नृत्यांगनाओ और उनके जुड़े संदर्भो को स्पर्श किया है ।उपन्यास की भाषा मे कही कही काव्यात्मकता नज़र आती है ।

Monday, June 15, 2020

वह हार नही मानता




जीवन में एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति चारो और से ख़ुद को ठगा सा पाता है ,उसने सारी जिंदगी जिस उम्मीद को लिए खुद को दिलासा दिया एक वक्त के बाद वह उस उम्मीद को भी धुंधला सा पाता है..

फिर भी जाने किस विश्वास में वह खुद को ढांढस बंधाता है और उसी धुंधली उम्मीद को लिए अपना बोझ उठता है..

अपने अतीत से जब जब वह आंखे मिलाता है  उसकी आंखों से सदा पानी बह आता है जाने क्या देखता है वह अतीत के झरोखें में जो उसे आज भी रुलाता है..

कुछ यादें उसके दर्द को मरहम लगाती है तो वह मुस्कुराता है इसी हल्की सी ख़ुशी में वह खुद को बहलाता है और आगे बढ़ता है पग पग जीवन का बोझ उठाता है..

अब उसके चेहरे पर थकान सी दिखने लगी है निराश है शायद साँसे थकने लगी है कोई तो बात है जो वह फिर भी चल रहा है उसे मालूम है कि वक़्त भी उसे छल रहा है..

उसने भी तो कहां अभी रार मानी है समय को चुनौती देती उसकी वाणी है, जो सोचा था वैसा कब होता है यही सोचकर वह जीवन का बोझ ढोता है...

अब आगे क्या होगा यह कोई नही जानता लेकिन इतना है के वो हार नही मानता!




Thursday, June 11, 2020

चन्दावती-उपन्यास की समीक्षा

अनुज्ञा  प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास चन्दावती जो सुप्रतिष्ठित नवगीतकार श्री भारतेन्दु मिश्र द्वारा लिखित है ।एक ऐसी ग्रामीण महिला जिसका नाम चन्दावती है के जीवन पर आधारित है ।जो बाल विधवा हो गई है और उसे उसके ससुराल वालों ने ससुराल से बहिष्कृत कर दिया है ।चन्दावती तेली समाज की हैऔर वह रामलीला में सीता जी की भूमिका निभाती रही है ।गांव में ही रहने वाले और चन्दावती से आयु में अधिक ब्राह्मण समाज के विधुर व्यक्ति हनुमान दादा जो रामलीला में रावण की भूमिका निभाते रहे है और पहलवानी के शौकीन है का चन्दावती से प्रेम हो जाता है ।दोनों एक दूसरे से विवाह कर लेते है ।बाद में चन्दावती को पता चलता है कि हनुमान दादा कुश्ती में आई चोट के कारण संतानोत्पत्ति में असमर्थ है । मैले में लगने वाले जड़ी बूटियों के दवाखाने में उपचार हेतु सपत्नीक जाते है जहाँ बाबा चन्दावती को नियोग की सलाह देते है चन्दावती उपरोक्त परिस्थितियों में स्वयं को ठगा हुआ पाती है 
       चन्दावती को ब्राह्मण समाज से भिन्नं तेली समाज की सदस्य होने के कारण हनुमान दादा के परिवार के लोग उनके भाई और भतीजा शिवप्रसाद तरह तरह से अपमानित करते है।एक बाल विधवा को कितनी प्रकार की मानसिक यातनाएं झेलना पड़ती है यह उपन्यास में बहुत अच्छी तरह से दर्शाया है लोग ऐसी महिलाओं से अनैतिक संबंध बनाना चाहते है पर विवाह कोई नही करना चाहता है ।निचले तबके की विधवा महिला से विवाह करने वाले सवर्ण पुरुष को भी हेय दृष्टि से देखा जाता है ।चन्दावती जिसने अपने भतीजे शिवप्रसाद को पुत्रवत स्नेह दिया ।शिवप्रसाद के विवाह उत्सव के दौरान जिस उत्साह का प्रदर्शन किया ।उसी के द्वारा चन्दावती के पति की मृत्यु हो जाने पर जिस प्रकार से चन्दावती को घर से बाहर निकाल दिया जाता है ।वह अत्यंत हृदय विदारक है लेखक द्वारा विवाह उत्सव पर बारात प्रस्थान के पश्चात महिलाओं द्वारा किये जाने वाले प्रहसनों को जिस मनोरंजक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है वह अद्भुत है ।चन्दावती को उसके भतीजे शिव प्रसाद द्वारा घर से बाहर निकालने पर चन्दावती द्वारा जिस प्रकार प्रतिकार किया जाता है वह उल्लेखनीय है धरना प्रदर्शन देवी दल का गठन, ग्रामीण महिलाओं में रचनात्मक शक्ति का निर्माण , अपनी आवाज को सर्वोच्च स्तर पर पहुचाना, इन सभी उपक्रमो का उपन्यास में बहुत अच्छी प्रकार से समावेश किया गया है ।ग्रामीण आंचलिक महिलाओं की कठिनाइयों के बारे नगरों की अभिजात्य वर्ग की महिलाओं और उनसे जुड़े आंदोलनों को पता ही नही है 
        उपन्यास में आगे चन्दावती के उसके पति की सम्पति के अधिकारों के संघर्ष को लेकर गांव की कुंताबाई और उसकी लड़कियों द्वारा सहयोग दिया जाता है ।चन्दावती के संघर्ष में उसका भाई शंकर भोजाई रजना भी सहयोग करती है ।गांव की राजनीति , पुलिस प्रशासन का धन बल के सहारे  चन्दावती भतीजे शिवप्रसाद द्वारा अपने पक्ष में उपयोग कर चन्दावती को कुचलने के किस प्रकार प्रयास किया जाता है ।यह हमारे पंचायती राज और प्रशासनिक व्यवस्था पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े कर देता है इसी कड़ी में एक हद तक लोक तंत्र के चौथे स्तम्भ को भी उपन्यास ने कठघरे में खड़ा किया है । अंत मे चन्दावती और कुंता शिव प्रसाद द्वारा रचे गए षडयंत्रो के तहत मारी जाती है परन्तु चन्दावती द्वारा जो आंदोलन स्वयम के अधिकारों के लिए प्रारम्भ किया गया था। वह अंचल की समस्त नारी समुदाय के लिये बन जाता है। जिस मकान से चन्दावती को बहिष्कृत किया गया था।वह देवी दल का कार्यालय और जो जमीन उसे मिलना थी उस विद्यालय निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है
         उपन्यास की अंतर्वस्तु और भाषा सरस हैं ।मूल रूप यह उपन्यास अवधी भाषा मे लिखा गया है बाद में हिंदी में अनुवाद किया गया है इसलिए अवधी भाषा के अंचल में प्रचलित लोक गीतों को पढ़ने का अवसर भी मिल जाता है।कुल मिला कर इस उपन्यास की विशेषता यह है कि जो पाठक इसके कथानक से जुड़ जाता है तो वह पढ़ते चला जाता है कथा में निरन्तर प्रवाह है । कथानक की परिस्थितियां कृत्रिम नही लगती ।पात्र जीवंत प्रतीत होते है 

Tuesday, June 9, 2020

गुस्सा करने का अधिकार

गुस्सा अर्थात क्रोध करने का अधिकार भी हर किसी को उपलब्ध नही होता । यह अधिकार एक विशेषाधिकार है या तो गैर जिम्मेदारों का हथियार होता है या अधिकारों से सम्पन्न ऐसे व्यक्तियों को प्राप्त होता है। जो दूसरों पर अनावश्यक रूप से अपना प्रभुत्व जमाना चाहते है । बेचारे गरीब शोषित , अपना उत्तर दायित्व समझने वाले व्यक्ति को गुस्सा करने का अधिकार कहा रहता है। जिसके पास कुछ खोने का भय नही होता और पाने कोई संभावना नही रहती ।वह गुस्सा कर अपने महत्व स्थापित करने का प्रयास करता है और परिवार व समाज मे कलह ईर्ष्या अशांति का वातावरण तैयार कर अपनी मांगे मनवाता है ।
           थोड़ी थोड़ी बात पर गुस्सा हो जाना ,बात बात पर भड़क जाना,अपनी बात को स्वीकारोक्ति दिलवाने के लिए अनुचित तर्कों का सहारा लेना,यह एक कमजोर  और असफल व्यक्ति के लक्षण है । समझदार व्यक्ति के लिए ऐसे व्यक्तियों से निपटने के लिए स्वयं को संयमित और नियंत्रित करने के अतिरिक्त कोई उपाय नही है ।
          कमजोर और असफल व्यक्तियों को यह पता ही नही चलता कि उनकी गुस्सेल प्रवृत्ति से अभी तक कितना नुकसान उठा चुके है । हकीकत में उनकी असफलता का सबसे बड़ा कारण उनका अकारण और असमय अनुचित्त व्यक्ति पर गुस्सा होना ही होता है।बेचारा सफल और जिम्मेदार व्यक्ति तो निरंतर जहर ही पीता रहता है ।अनगिनत कठिनाईया उठाने के बावजूद समस्या के समाधान में रत रहता है
          कभी कभी लोग यह यह कहते है अमुक व्यक्ति को गुस्सा आता ही नही है ।उन्हें यह मालूम नही होता कि बेचारे उस व्यक्ति को अतीत में गुस्से की कीमत चुकाई है । वैसे भी हर किसी व्यक्ति पर गुस्सा भी तो नही किया जा सकता ।व्यक्ति जिसे अपना समझता है अधिकार समझता है।उसी पर गुस्सा किया जा सकता है ।अविश्वसनीय पराये और अनुत्तरदायी व्यक्ति पर गुस्सा करने से क्या लाभ । समाज मे ऐसे कितने व्यक्ति है जो किसी पर गुस्सा नही करते उसका कारण यह है ।एक एक उनका सारे रिश्तों से विश्वास उठ चुका है ,आत्मीयता समाप्त हो चुकी है मात्र कर्तव्य समझ कर अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे है ।लोगो को ऐसे व्यक्तियों को कभी हल्के में नही लेना चाहिए। ऐसे व्यक्ति कभी भी बड़ा निर्णय ले सकते है ।जिसका परिणाम ऐसे लोगो को उठाना पड़ सकता है जो छोटी छोटी बात पर गुस्सा करना अपना अधिकार समझते है और ऐसे जिम्मेदार और संयमित व्यक्ति अपमानित करते रहते है

Monday, June 8, 2020

नीति नियत और नियति -कहानी

अभय के परिवार में तीन सदस्य थे ।अभय उसकी माँ और उसके पिता शिवनारायण शिवनारायण शासकीय सेवक थे ।
       यदा कदा अभय और उसकी माता के बीच यह चर्चा होती रहती थी कि शिवनारायण जी का स्वास्थ्य खराब रहता है,यदि शिवनारायण के सेवा निवृत्ति के पूर्व उनकी मृत्यु हो जाती है तो अभय को अनुकम्पा नियुक्ति और उसकी मां को पेंशन मिलती रहेगी ।इस प्रकार अभय और उसकी माँ अपने भविष्य के लिए पूरी तरह से आश्वस्त थे ।शिवनारायण जी के स्वास्थ्य खराब रहने कारण उनकी समय समय पर चिकित्सा और जांच होती रहती थी।दवाईया भी समय समय पर दी जाती थी ।
     अभय अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त होने के कारण किसी प्रतियोगी परीक्षा में भाग नही लेता और नही पढ़ने लिखने में उसकी कोई रुचि थी।शिवनारायण जी अभय को कुछ कहते तो अभय की माँ शिवनारायण जी को टोक देती उन्हें कुछ कहने नही देती ।शनै: शनै: समय निकलता जा रहा था। अभय निरन्तर ढीठ और उद्दंड होता जा रहा था।   इधर एक दिन अभय की माँ को अचानक चक्कर आ गए और वह बाथरूम में गिर पड़ी ।डॉक्टर को बताया तो कई प्रकार की  चिकित्सकीय जांचे हुई। रिपोर्ट आने पर पता चला कि अभय की माँ को गम्भीर और असाध्य बीमारी है । अभय के पिता को शासकीय सेवा करते करते 60 वर्ष पूरे होने वाले थे ।सेवा निवृत्त होने के ठीक दूसरे दिन अभय के पिता शिवनारायण को ह्रदयाघात हो गया ।हॉस्पिटल में भर्ती होने के उनका देहांत हो गया ।अब तो अभय की अनुकंपा होने के भी सारी संभावना भी समाप्त हो गई थी। अभय एवम उसकी माता को इस बात का दुख था कि शिवनारायण को मरना ही था तो सेवा में रहते मरते ,सेवा निवृत्त होने के दूसरे दिन मरने से क्या लाभ हुआ ।एक मात्र अनुकम्पा नियुक्ति की अभय की आशा भी टूट गई। फिर भी अभय को इस बात के लिए हो गया कि अभी तो माँ की पेंशन से काम चलता रहेगा ।परन्तु भाग्य को कुछ और ही मंजूर था।अभय मां की बीमारी अब और भी अधिक बढ़ चुकी थी।गंभीर स्वरूप धारण करने से दवाईयों का खर्च भी अत्यधिक हो गया था। माँ की पेंशन के सारे पैसे इलाज में ही खर्च होने लगे ।अभय की आंखों के आगे अंधेरा छा गया था ।
            अभय अब स्वयम को असहाय अनुभव कर रहा था।सोच रहा था काश उसने कोई अच्छा सोच होता है ।वह सकारात्मक सोच रखता तो आज वह अपने पैरों पर खड़ा होता ।उसे समझ आ गया था यह आदमी की नीति और नियत का ही खेल है ।आदमी की नीति और नियत जैसी होती है उसकी नियति वैसी ही बन जाती है ।