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Tuesday, March 17, 2020

सत्संग का लाभ

लालूराम अपने पिता का एक मात्र पुत्र था 
उसकी पढ़ाई करने में कोई रुचि नही थी फिर भी उसने पढ़ना लिखना सिख लिया था । घर वाले उसे किसी काम के लिए कहते तो वह हा ! हूँ करके अनसुना कर देता था ।ज्यादा कुछ कहते तो वह चिढ़ कर क्रोधित हो जाता और बोलता कि तुम्हे मैं दिखता हूँ खटकता हूँ। अकड़ इतनी कि उसको सारी प्रतिभा स्वयम में ही दिखाई देती थी ।अपने खिलाफ कोई शब्द सुनने के लिए वह तैयार नही था।जब मर्जी होती तब उठता ।जब मर्जी होती तब भोजन करता। अगर इच्छा होती तो सुबह नहा लेता ।नही तो शाम को शाम को रात किसी भी समय स्नान करता ।उसने धारणाये बना ली उसे ध्वस्त करना आसान नही था।घर वाले भी उससे उकता गए थे। एक दिन वह नदी के किनारे जाकर बैठ गया ।नदी के पास पुराना मंदिर था | आश्रम और गौशाला थी वहां का माहौल देखकर लालूराम का मन वहां लग गया ।संतो के मुँह से उसे अच्छी अच्छी बातें सुनने अच्छा लगता था। लालूराम अब वही रहने लगा था। आश्रम की रसोई में जब भी कभी कोई संत महंत आते तो वह उत्साहित होकर उनके लिए भोजन बनाता। तरह तरह की आध्यात्मिक चर्चाओ रस ले लेकर सुनता। आश्रम के संत कही तीर्थ यात्रा मेलो में जाते तो वह भी उनके साथ चला जाता । उसे कार जीप चलाना आ गया था। वाहन चलाते चलाते संत उदाहरण लेकर उसे पौराणिक प्रसंगों को सुनाते  जो भीतर तक प्रभावित कर देती । शनै: शनै: लालूराम का व्यक्तित्व निखरने लगा था। उसके हृदय में दुसरो के प्रति करुणा का भाव उमड़ने लगा था। अब वह पहले जैसा लालूराम नही रहा। अब वह ललितानंद बन चुका था। गुरु के मुख से पौराणिक आख्यानों को सुन कर ।संतो के मुख से भजनों को सुनकर जो ज्ञान और अनुभूतिया प्राप्त हुई थी वे भीतर से उसे आंनदित करती रहती थी ।उसे सत्संग का अर्थ और उससे मिलने वाले लाभ समझ में आ गए थे