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Friday, March 9, 2012

मर्यादा जीवन प्रबंधन का प्रभावशाली सूत्र

मर्यादा वह गुण हैं
 जो व्यक्ति के अन्य गुणों को सही दिशा देता हैं
व्यक्ति की कार्यक्षमता में विस्तार करता हैं
 व्यक्ति को अहंकार भावना से परे रखता है 
नारी को लज्जा रूपी आभूषण प्रदान करता है 
 वीरों को जितेन्द्रिय बनता हैं
 रामायण महाग्रंथ मर्यादाग्रंथ कहा जा सकता है 
रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में 
श्रीराम को संबोधित किया गया है  
जहाँ महाभारतकाल में भगवान् विष्णु के अंश श्रीकृष्ण ने स्वयं को ईश्वर प्रमाणित किया है  
वहीं पर रामायण में श्रीराम ने हर क्षण स्वयं को मानव प्रमाणित करने का प्रयास किया है 
श्रीराम के साथ रामायण में उनके अनुज भरत, लक्ष्मण उनके सेवक श्रीहनुमान ने भी जहाँ कहीं भी प्रसंग आये मर्यादा निभाई हैं उदाहरणार्थ 
सीताजी की खोज के समय श्रीहनुमान द्वारा निभाई गयी मर्यादा उल्लेखनीय है
हनुमान जी द्वारा प्रभु के आदेशानुसार 
समुंद्र लांघ कर मात्र अशोक वाटिका में सीताजी की खोज कर उन्हें श्रीराम जी के सन्देश से अवगत कराया 
श्रीहनुमान जी यदि चाहते तो मर्यादा का उल्लंघन कर 
सीताजी की खोज होने के पश्चात 
स्वयं सीताजी को लेकर श्रीरामजी के पास ले आते
 ऐसी स्थिति में श्रीराम और रावण के मध्य युद्ध भी नहीं होता 
और लंका में भारी विध्वंस से बच जाती
हनुमानजी ने सामाजिक मर्यादा का भी पालन किया
 बालि के वध हेतु श्रीराम की प्रतीक्षा की
 हनुमानजी यदि चाहते तो वे इतने सामर्थ्यवान थे कि वे स्वयं बालि को काल के गाल में पहुँचा सकते थे 
किन्तु वे ऐसा करते तो उन्हें विभीषण की भाँति कुलघाती के रूप में याद रखा जाता
 माता सीता ने जीवनभर मर्यादा का पालन किया 
किन्तु मात्र लक्ष्मण रेखा रूपी मर्यादा का उल्लंघन किये जाने का दुष्परिणाम उन्हें जो झेलना पड़ा 
यह  सर्वविदित है 
 श्रीराम ने  भगवान् विष्णु के अवतार होने के बावजूद 
कभी भी विशिष्ट होने का भाव  कभी भी ह्रदय में  नहीं रखा 
 जबकि वर्तमान में कोई भी व्यक्ति विशिष्ट पद धारण करने के पश्चात निरंतर उस पद के अहं भाव में रहकर विशिष्ट सुविधाओं की आकांक्षा रखता है 
इसका तात्पर्य यह है कि जीवन में वृहद लक्ष्य प्राप्त करना हो तो जीवन में मर्यादा होना अत्यंत आवश्यक हैं  
नारी के सभी गुण मर्यादा के बिना निरर्थक है 
रिश्तों में भी मर्यादा आवश्यक है
 प्रत्येक व्यक्ति के कार्यव्यवहार एवं आचरण में मर्यादा परिलक्षित होनी चाहिए मर्यादा जीवन प्रबंधन का प्रभावशाली सूत्र हैं

PARSURAM BHAG -2







परशुराम  भाग - २ ( रिचिक की राजा गधिक से भेट )


शेष से आगे ............ तपस्वी ऋषि रिचिक महाराज गधिक के राज्य मैं पहुंचे  राजा को जब उनके आगमन की सुचना मिली तो उन्होंने उनका भव्य सत्कार किया. धर्मानुसार सेवा की तब राजा बोले ऋषिवर आप ने पधार कर  मुझ पर विशेष कृपा की मुझे अपने आथित्य के योग्य समझा ये मेरा सोभाग्य हैं  कहिये मैं आपकी किस प्रकार से सेवा कर सकता हूँ.
रिचिक बोले महाराज मेरे यहाँ आने का उदेश्य  अतिविशेष हैं मैं यहाँ एक महान कार्य को प्रसस्त करने के लिए आया हूँ.
ये कार्य मुझे सर्वशक्तिमान भगवान् ने स्वयं करने को कहा हैं और इसके लिए आदेश दिया हैं  , गधिक बोले आप आज्ञा करे महाराज मैं आपकी क्या सेवा सहायता कर सकता हूँ 
रिचिक बोले राजन जिस कार्य की मैं बात कर रहा हूँ उसका उद्देश्य समाज मैं संतुलन लाने  और धर्म की संस्थापना से हैं, धर्म जिसकी  संस्थापना के लिए स्वयं भगवान् विष्णु जन्म लेंगे १ ऋषि ने गधिक को वर्तमान स्थिति से अवगत करवाया गधिक को समझ नहीं आया की भगवान् के आगमन और समाज के संतुलित करने मैं वो किस प्रकार सहायता  कर सकते हैं 
तब ऋषि ने कहा राजन मैं आप से एक वचन चाहता हूँ और आशा  करता हूँ  की आप उस वचन को पूरा करेंगें.
गधिक बोले - आप आज्ञा करे मैं अपना सर्वस्व इस कार्य के लिए दे सकता हूँ . तब ऋषि रिचिक ने कहा महाराज मुझे इश्वर ने ये आज्ञा दी हैं की मैं आपकी पुत्री से विवाह करूँ इस कार्य के उद्घाटन के लिए यही प्रथम चरण हैं.
महाराज गधिक ये सुनकर स्तब्ध रह गए.
ये आप क्या कह रहें हैं ऋषिवर ये केसे संभव हैं आप एक सन्यासी हैं तपस्वी हैं वैरागी हैं और मेरी पुत्री राजपुत्री हैं आप कुशा के घर मैं निवास करते हैं और मेरी पुत्री राजमहल मैं आप ने हर सुख का त्याग कर रखा हैं और मेरी पुत्री सुखो में रही हैं, दुःख कभी उसके निकट नहीं आया नहीं नहीं मेरी पुत्री का विवाह आपसे नहीं हो सकता ये असम्भव हैं. रिचिक को इस बात का अंदेशा था की राजन इस बात के लिए   राजी नहीं होंगें तत्पचात उन्होंने राजन को कठोर शब्दों में कहा महाराज ये स्वयं प्रभु  की आज्ञा हैं आपको इस का पालन करना होगा.
जब व्यक्ति को समाज और स्वयं के हित में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता हैं तो वो असमंजस में पड़ जाता हैं और कई बार वो स्वयं के हित को प्राथमिकता देता हैं.
और यहाँ तो बात महाराज की इकलोती पुर्त्री की हो रही हैं जो महाराज को अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं एक पिता होने के कारन गधिक रिचिक के वचन और स्थिति की गंभीरता को भूल गए.
रिचिक बोले महाराज एक पिता होने के कारन आप निर्णय नहीं ले पा रहें है की आप का धर्म क्या हैं प्राथमिकता क्या हैं इसमें कुछ गलत नहीं पर महाराज जब बात राष्ट्र और अपने परिवार में  से किसी एक के हित की हो किसी एक की रक्षा की हो जब इन दोनों में से किसी एक का चुनाव करना हो तब व्यक्ति को चाहिए की वो अपने राष्ट्र समाज को प्राथमिकता दे आप तो एक राजा हैं प्रजा हित को समझते हैं आप को संसय में नहीं पड़ना चाहिए,
जब राष्ट्र ही नहीं रहेगा तो शेष कुछ भी शेष नहीं रहेगा और महाराज इसका  दोष आपको लगेगा. कुछ विचार करिए.
महाराज गधिक को ऋषि की कोई बात प्रभवित नहीं कर पा रही थी वे संतान मोह में अंधे हो चुके थे पर इस बात से भी चिंता में थे की संसार उन्ही को दोष देगा अतः उन्होंने एक युक्ति सोची.

गधिक बोले महाराज में अपनी सुकुमारी पुत्री का विवाह आपसे करने के लिए तेयार हूँ पर इसके लिए आप को हमारी एक मांग पूरी करनी होगी 
रिचिक बोले कहिये महाराज क्या मांग हैं आपकी, गधिक बोले सुनिए ऋषि  हमारे यहाँ पुत्री के विवाह में एक रीती परम्परा हैं जिसके अनुसार वर वधु पक्ष में अपने स्वसुर को स्वसुर की इच्छा अनुसार कुछ भेट में देता हैं.
रिचिक समझ गए की राजन विवाह टालने की युक्ति कर रहें हैं पर वे शांत रहें, कहिये राजन क्या मांग हैं आपकी  में आप को क्या भेट करूँ ?
गधिक बोले मेरी आपसे ये मांग हैं की रीती के अनुसार आप मुझे श्वेत वर्ण वाले अस्व जिनका दया कर्ण(कान) काला हो एसे एक हजार अस्व मुझे भेट स्वरूप चाहिए.
गधिक को लगा की ऋषि ये मांग पूरी नहीं कर पाएंगे "
और न रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी लोकोक्ति सार्थक होगी ...........
ऋषि मन ही मन हस दिए और राजा से कहा राजन में आपकी  मांग पूरी करने का प्रयास करूँगा  गधिक बोले ये भेट दस दिनों के भीतर पूरी करने का रिवाज हैं में आपको वचन देता हूँ की यदि आप इस रीती का पालन करदे तो में अपनी सुकुमारी पुत्री को विवाह आप से कर दूंगा.
इसके बाद रिचिक भेट लाने की बात कहकर चल दिए......................
में शीग्र्हा पधारुन्गा महाराज आप विवाह की तेयारी कीजिये रिचिक चल  दिए ........................................( शेष भाग  कुछ ही समय में  )

PARSURAM BHAG -1







परसुराम भाग - एक

भगवान परशुराम भगवन विष्णु के दस अवतारों मैं से एक हैं. जिनका अवतार दुष्ट अत्याचारी शक्त्रिया राजाओ के विनाश  के लिए हुआ . शक्त्रियो को वर्ण व्यवस्था मैं ऊँचा स्थान  मिला हुआ था राज्य करने का अधिकार उन्ही  के पास सुरक्षित था क्यों की वो वीर युद्ध करने वाले होते सम्पूर्ण समाज की रक्षा का दायित्व इन्ही शक्त्रियो पर था इन्ही की तरह बाकी अन्य तीनो वर्ण भी अनपे अपने कार्य को भली प्रकार से कर के समाज और राष्ट्र के लिए अपना दायित्व निभाते,
ब्रहामन वर्ण यज्ञ धर्म और समाज को ज्ञान का मार्ग दिखता 
वैश्य वर्ण व्यापार आदि करके  लोगो की आवश्यकताओ की पूर्ति करता 
और शुद्र वर्ण समाज के सेवा करता 
इन चारो मैं से यदि एक भी अपना धर्म नहीं निभाए तो समाज की रचना संभव नहीं हो सकती थी परन्तु कुछ ऐसा ही हुआ 
हैहय वंश के शक्त्रिया अपने दायित्व को भूल गए और मनमानी करने लगे अपनी शक्ति और पद का दुरपयोग करने लगे वे अत्याचारी हो गए जिस कारण समाज का संतुलन बिगड़ गया और इसी संतुलन को पुनह स्थपित करने के लिए भगवान परसुराम का जन्म हुआ 
जिसकी कथा इस प्रकार हैं.............................................................१ 

रिचिक ऋषि नाम के एक बहुत तपस्वी युवा सन्यासी थे जो यज्ञ आदि अनुष्ठान करते  वे महान सिधियो के स्वामी थे इश्वर की उन पर विशेष कृपा थी और ये सब उनके तप का ही प्रभाव था.
उनका ये समाज कल्याणकारी तपो यज्ञ इसी तरह चल रहा था एक दिन वो ध्यानमग्न होकर प्रभु का चिंतन कर रहें थे उसी  समय उन्हें एक इश्वानी सुनाई दी हे ऋषिवर ध्यान से सुनिए आपको एक महान कार्य करना हैं रिचीक बोले प्रणाम प्रभु आप किस कार्य की  बात कर रहें हैं, इश्वानी ने कहा सुनिए ऋषि आज  समाज का  संतुलन बिगड़ चूका हैं शक्त्रिया अपनी मर्यादाओ को लाँघ चुके हैं और अपने दायित्व को भूल गए हैं, अतः  अब पुनह समाज को संतुलित  कर और इन दुष्टों का  नाश कर इन्हें दंड देने का समय आ गया हैं इसके लिए अब स्वयं मैं ( भगवान् विष्णु ) अवतार लूँगा और धर्म की संस्थापना करुगा. ऋषि बोले हे प्रभु आप आज्ञा करे .
सुनिए रिचिक आपको गधिक नामक धर्मात्मा राजा की पुत्री से विवाह करना होगा.
ऋषि आश्चर्य से बोले प्रभु मैं तो सन्यासी हु ब्र्म्चारी हूँ  मैं विवाह केसे कर सकता हु प्रभ बोले हे रिचिक कभी कभी धर्म की रक्षा के लिए और समाज कल्याण के लिए अपने संकल्पों  मैं परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता हैं ,इस वक़्त आप का तप - यज्ञ और संन्यास नहीं हैं इस समय आप का दायित्व समाज के संतुलन मैं सहायता करना हैं और इस के लिए आपका विवाह करना अतिआवश्यक हैं.
रिचिक इस मर्म को समझ गए और प्रभु की आज्ञा और समाज कल्याण के पथ पर गधिक महराज की राज्य सभा की और चल दिए.....................................................! (शेष भाग कुछ ही समय बाद  ) 

ईश साधना एवम व्यक्तित्व निर्माण

ईश साधना का व्यक्तित्व निर्माण से किस प्रकार से सम्बन्ध होता हैं नियमित ईश साधना क्यों अनिवार्य हैं 
इन बिन्दुओं के सम्बन्ध विचार करते हैं
 यह उल्लेखनीय हैं कि व्यक्ति शारीरिक स्नान करने के पश्चात जब अपने प्रतिबिम्ब को देखने हेतु दर्पण के समक्ष खड़ा होता हैं
 तो उसके बाह्य आकृति को निखारने में 
दर्पण से सहायता प्राप्त होती हैं 
किन्तु मन का स्नान एवं मन का प्रतिबिम्ब निखारने हेतु व्यक्ति को अपने ईष्ट के समक्ष नियमित रूप से 
साधनारत होना अनिवार्य हैं
प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर के समक्ष नियमित रूप से 
एक निश्चित अवधि के लिए साधनारत नहीं रह सकता 
क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के दोषों को ईश्वरीय दर्पण में देखकर अपने व्यक्तित्व को निखारने का साहस नहीं होता
कोई भी व्यक्ति दुनिया से चाहे कितना भी झूठ बोले 
स्वयं से झूठ नहीं बोल सकता
 ईश साधना कि अवधि में व्यक्ति मन के दोषों को देखते हुए स्वयं कि आत्मा से साक्षात्कार करते हुए परमात्मा तक पहुँच सकता हैं 
यह एक निरंतर चलने वाली दीर्घ प्रक्रिया हैं 
इसका कोई संक्षिप्त मार्ग नहीं हो सकता 
जिस प्रकार किसी कंप्यूटर के दो भाग होते हैं 
बाहरी भाग हार्डवेयर जिसे स्पर्श किया जा सकता हैं 
आंतरिक भाग साफ्टवेयर जो कंप्यूटर को 
चेतना प्रदान करने वाला भाग होता हैं
 जिसमें दोष उत्पन्न होने पर कंप्यूटर 
पूर्ण क्षमता पर कार्य नहीं कर पता हैं 
आत्मा और मन जो हमारे शरीर का आंतरिक भाग होता हैं 
उसे बाहरी दुर्गुण रूपी विषाणुओं से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय  नियमित ईश साधना हैं
 सामान्य रूप से यह देखने में आता हैं 
कि दो समान शैक्षणिक योग्यता वाले व्यक्तियों कि पदीय हेसियत एवं उनके वेतन में भारी अंतर होता हैं 
यह उन व्यक्तियों के आंतरिक गुणों में अंतर के कारण हो पता हैं 
ईश साधना व्यक्ति के आंतरिक गुणों में विकास करने कि प्रक्रिया हैं जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व में पूर्णता आती हैं
 तथा ऐसे व्यक्ति में आत्मविश्वास भरपूर होता हैं
आत्मविश्वास से भरपूर व्यक्ति आत्मबल से परिपूर्ण होता हैं 
वह किसी भी प्रकार कि समस्याओं का सामना करने में सक्षम होता हैं और यही विशेषता व्यक्ति को सामान्य से उसे विलक्षण एवं विशेष बनाती हैं
 इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने ईष्ट की निरंतर एवं नियमित रूप से साधना करनी चाहिए