व्यक्ति
आत्म केद्रित हो तो वह निर्णय
सही नहीं ले सकता
आत्म
केन्द्रित व्यक्ति की दृष्टि
अत्यंत संकीर्ण होती है
ऐसे
व्यक्ति को समग्र हित की चिंता
नहीं होती
व्यक्ति
में दो प्रकार की भावनाए होती
है
स्वार्थ
और परमार्थ घोर स्वार्थी
व्यक्ति मात्र स्वयं के हित
की चिंता करता है
जैसे
जैसे स्वार्थ का विस्तार स्वयम
से परिवार
परिवार
से समाज ,समाज
से राष्ट्र की और होता जाता
है
स्वार्थ
परमार्थ में परिवर्तित होता
है
समाज
में हम देखते है की कुछ लोग
जीवन भर
स्वयं
के सुख की चिंता में लीन रहते
है
उन्हें
दूसरो के सुख दुःख से कोई अंतर
नहीं पड़ता
ऐसे
व्यक्ति के सारे निर्णय
आत्मकेंद्रित होते है
ऐसे
व्यक्तियों को स्वयं के दुःख
पहाड़ जैसे दिखाई देते है
अपने
दुखो के सामने अपने परिजन के
दुःख उन्हें बौने प्रतीत होते
है
यह
सच है की यह भावना प्रत्येक
व्यक्ति में अलग -अलग
अनुपात में होती है
एक
उम्र तक प्रत्येक व्यक्ति
में यह भावना होना सामान्य
बात है
परन्तु
कुछ लोग जीवन भर इसी भावना से
ग्रस्त रहते है
उन्हें
अहसास भी नहीं होता कि उनकी
इस भावना के कारण
उनके
परिजन कितनी मानसिक पीड़ा से
गुजरते होगे
परन्तु
उन्हें इस बात से कोई अंतर
नहीं पड़ता
ऐसे
आत्म केद्रित व्यक्तियों से भिन्न
समाज में आशा कि किरण के रूप
में
ऐसे
व्यक्ति भी दिखाई देते है
जिनकी उम्र पारिवारिक एवं
सामाजिक दायित्वों
उठाते
गुजर गई एक के बाद एक जिम्मेदारिया
इस तरह से उठाते गए कि
उन्हें
स्वयं के दुःख अनुभूति नहीं
हुई और
सुख
भोग लेने कि इच्छा भी जाग्रत
नहीं हुई
इस
विषय में हम ऐसी लड़कियों कि
भूमिका को भी समाज में देखते
है
जो
अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय
अपने परिवार को दे चुकी है
शनै
शनै उनकी विवाह कि आयु कब निकल
चुकी होती उन्हें पता ही चलता
परन्तु
परिवार के प्रति परमार्थ कि
भावना
उन्हें
स्वयम के बारे में सोचने का
अवसर ही नहीं देती