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Thursday, October 18, 2012

पाषाण और हिमखंड

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पाषाण को सरल भाषा मे पत्थर और  हिमशिला को बर्फ 
कहा जाता है
दोनो के गुण धर्म मे भिन्नता होती है
जहां पाषाण सरलता पूर्वक आकार  नही बदलता
वही हिमखण्ड वातावरण मे थोड़ी सी उष्णता बढने पर
अपना मूल आकार  खो देता है
पाषाण मे किसी भी प्रकार की आकृति  बनाना
चित्र रूप देना आसान  नही होता
परन्तु हिमखण्ड को योजना अनुसार
किसी भी प्रकार की आकृति  दी जा सकती है
हम पाषाण से निर्मित प्रतिमा को पूजते है
पाषाण को प्राण प्रतिष्ठित करते है
पाषाण पर रची गई कृतियाँ  दीर्घकाल तक बनी रहती है
हजारो वर्षो तक अपना मूल स्वरूप कायम रखती है
पूरे मनोयोग से पाषाण पर रचे गये शिल्प सजीव और
 जीवंत हो उठते है
फिर किसी व्यक्ति को पाषाण ह्रदय कह कर 
क्यो ?निष्ठुर ठहराया जाता है
निष्ठाये पाषाण की तरह हो तो विश्वास साकार हो जाता है
आस्थाये पाषाण की प्रतिमा के प्रति जग जाये
तो ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति होती है
उत्क्रष्ट प्रकृति का पाषाण अथवा पत्थर 
रत्न के रूप धारण कर लेता है
तथा मूल्यवान बन जाता है
वर्तमान मे लोगो के पारस्परिक विश्वास 
जिस प्रकार से समाप्त हो रहे है
निष्ठाये जिस प्रकार से परिवर्तित हो रही है
 ऐसे मे पाषाण मे उत्कीर्ण सृजनात्मकता 
 हमारे लिये एक मात्र प्रेरणा स्त्रोत रह गये है
हिमखण्डो मे रचा गया शिल्प शाश्वत नही रहता  
,आकर्षक  हो सकता है
किसी व्यक्ति या वस्तु की बाह्य कोमलता 
सम्वेदनशीलता का आधार नही हो सकती
बाह्य कोमलता भ्रान्ति उत्पन्न कर सकती है
किन्तु व्यक्ति या सामाज मे क्रान्ति और  
सम्वेदना पैदा करने के लिये
आतंरिक  कोमलता ,निर्मलता विशालता ,होनी आवश्यक  है
उसके लिये विचारो की दृढ़ता  भी होनी चाहिये
नारियल फल के बाहरी कवच की कठोरता 
उसके भीतर के भाग को कोमल बना देती है
और  आंतरिक  जल को निर्मलता ,मधुरता प्रदान करती है
नदियो मे रहते पाषाण कण (रेत) कितने ही 
वृहद् निर्माण के आधार  है
निर्मल नीर के जनक है
इसलिये हे! पाषाण के भीतर बसे देव 
हमारे मन मे निर्मलता बनाये रखो
ह्रदय को कोमलता प्रदान करो !
हमारे मन से उद्विग्नता तथा चंचलता समाप्त करो!
मन स्थिरता, शांती,तथा व्यक्तित्व को कान्ति प्रदान करो!
ताकि हमारी निष्ठाये अविचलित ,विश्वास अडिग हो
संकल्प अटल हो हम भीतर से निश्छल हो
 

वृत्त ,वृत्ति एवं वृत्तांत


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व्रत का व्रत्तियो से गहरा सम्बन्ध है
यदि हम दुष्प्रव्रत्तियो का शमन न कर पाये तो 
व्रत करना निरर्थक है
वर्तमान मे नवरात्री के नौ दिवस हमे 
अपनी दुष्प्रव्रत्तियो का शमन करने
तथा इन्द्रिय जनित समस्त कामनाओं ,वासनाओं  का
दमन करने की प्रेरणा देते है
हम यह देखते है कि नवरात्री के अवसर पर 
प्राय महिलाये,और पुरुष
निराहार व्रत का पालन करते है 
तथा दुर्गा सप्तशती का पाठ करते है
क्या यह व्रत उपासना कि परिपूर्णता है ?
सभी साधक तथा,उपासना से जुड़े लोग 
यह  जानते है कि पांच  कर्मेन्द्रिया और  
पांच ज्ञानेन्द्रिया प्रत्येक मानव को प्राप्त होती है
निराहार व्रत से तो मात्र जिव्हा इन्द्री से जुड़ी  
स्वाद तथा उदर से जुड़ी भूख को
ही शमन करने का ही प्रयास होता है
जिव्हा से जुडी वाक प्रव्रत्ति का शमन नही होता
यदि हम वाचाल प्रव्रत्ति को कुछ समय के लिये विराम दे सके तो
हमे कितनी आत्म शांती प्राप्त हो सकती है
यह केवल अनुभूति की विषय वस्तु है
जिसे केवल सच्चा साधक ही अनुभव कर सकता है
मौन साधना सर्वोच्च कोटि की साधना मानी जाती है
साधक और  साध्य के मध्य साधना के उच्च स्तर पर 
मौन सम्वाद होता है
व्यक्ति के मन को ही नही ,परिवार को ,समाज को 
सम्पूर्ण विश्व को शांती की कामना वेद मंत्र 
शांति पाठ मे की गई है
जो साधना व्यक्ति को आत्म शांती न दे सके
परिवार ,समाज ,देश ,विश्व मे शांती स्थापित न कर सके
वह सच्ची साधना नही हो सकती
शांती का भाव कही अन्यत्र से आयातित नही किया जा सकता
वह तो भीतर से से बाहर की और विस्तारित होता जाता है
परन्तु कितने साधक नवरात्री मे मौन व्रत धारण करते है
यह चिन्तन का विषय होना चाहिये
साधना के क्षणो मे  हम स्वयम को अन्तर्मुखी कर पाये
स्वयम को समझ पाये तो ईश्वरीय तत्व को
 समझने की स्थिति मे पहुँच  पायेगे
अन्यथा परम्परा का निर्वाह करते हुये देह से जुड़ी 
देवी की साधना मे रत हो
एक अन्तहीन और  निरर्थक थका देने वाली व्रत 
एवम व्रतान्तो से जुड़ी यात्रा ही हमारी नियती बन जायेगी
http://www.ahmedabadcity.com/tourismtest/images/navratri2.JPG