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Friday, October 12, 2012

योग ,भोग और जीवन दृष्टि

व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान जीवन के प्रति
उसके दृष्टि कोण से होती है
व्यक्तित्व में योग वृत्ति हो तो
वह व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ती है
भोग प्रवृत्ति हो तो वह व्यक्ति को तोड़ती ही नहीं
अपितु रिश्तो को निचोड़ती है
हमारा व्यक्तित्व भ्रमर की प्रवृत्ति लिए हुए होना चाहिए
प्रेमपूर्ण मित्रता हो या आत्मीय रिश्ते हो
या प्रकृति के प्रति उपयोगिता के सिध्दांत हो
वे योग प्रवृत्ति से निभाये जाये 
तभी सार्थक और रसपूर्ण होते है
प्राकृतिक संसाधनों का  भोग प्रवृत्ति से उपयोग 
उपभोग कहलाता है
और हम उपभोक्ता बन जाते है
उसी प्रकार से हम प्रेम हो या रिश्ते 
उन्हें आदान प्रादान की भावना से निभाते है
तो वे रिश्ते हमें जोड़ते नहीं अपितु तोड़ते जाते है
रिश्तो में यह प्रवृत्ति भोग प्रवृत्ति कहलाती है
जीवन का आनंद भोग में नहीं योग में है
भोग रोग का जनक होता है
क्या हम जानते है ?
कि प्रकृति की सुन्दर प्रतिकृति
सौन्दर्य और रस से परिपूर्ण फूलो में
 उपवन में समाहित होती है
जब कोई भ्रमर फुल से पराग लेता 
और वह शहद एकत्र करता है
तो वह प्रकृति एवं जीवन के प्रति योग की भावना को
 प्रतिबिंबित करता है
परन्तु जब कोई मानव गुलाब के फूलो से
 गुलकंद एकत्र करने हेतु उन्हें यांत्रिक पध्दति से
सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर गुलकंद ,
गुलाब जल का उत्पादन करता है
तो वह भोग प्रवृत्ति को प्रगट करता है
योग प्रवृत्ति से नियति हो या रिश्ते हो
 उन्हें सही रूप में सवारा संजोया जाय तो
सृजन होता है
भोग प्रवृत्ति नियति हो या रिश्ते हो 
उन्हें निखारता नहीं है
उन्हें सदा सदा के लिए मिटा देता है 
नष्ट कर देता है

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