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Friday, November 9, 2012

श्रेष्ठ उद्देश्य के प्रति समर्पण

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व्यक्ति को व्यक्तिगत मान अपमान की भावना से 
मुक्त होकर श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए समर्पित रहने के लिए 
सदा तत्पर रहना चाहिए
इस तथ्य को समझने के लिए महाभारत काल के 

तीन पात्रो का उल्लेख किया जाना आवश्यक है
 महाभारत काल अर्थात द्वापर युग मे 
धनुर्विद्या मे पारंगत तीन प्रमुख शिष्य थे
प्रथम एकलव्य,द्वितीय कर्ण,तृतीय  अर्जुन,
शिक्षा ग्रहण करने के तीनो के तरीके भिन्न थे
अर्जुन गुरु द्रोण के परम प्रिय शिष्य थे जिन्होने 
राजपुत्रो की तरह शिक्षा ग्रहण की थी
एकलव्य वनवासी होने से तथा कर्ण के पास
 राजपुत्र की पहचान नही होने से
उन्हें गुरु द्रोण द्वारा यह कह कर शिक्षा देने से इन्कार 
कर दिया गया कि वे मात्र राजपुत्रो को ही शिक्षा देते है
एकलव्य द्वारा गुरु द्रोण की प्रतीक प्रतिमा के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास कर धनुर्विद्या मे प्रवीणता प्राप्त की
गुरु का आशीर्वाद न होने के कारण गुरु दक्षिणा के फलस्वरुप
उन्हे अंगुष्ठ दान करना पड़ा
भगवान परशुराम का मात्र ब्राह्मण पुत्रो को ही 
शिक्षा देने के प्रण के कारण
कर्ण ने छल करते हुये ब्राह्मण का छद्मवेश धारण कर शिक्षा प्राप्त की
योग्यता मे समान होने के बावजूद कर्ण गुरु के शाप शापित हुए
इस कारण घोर आवश्यकता के समय युद्ध कला का 
ज्ञान  वे भुल गये थे और  अकाल मृत्यु के ग्रास बने
वास्तव मे एकलव्य एवम कर्ण के साथ अन्याय हुआ
पर क्या उन्होने अपनी प्रतिभा और शौर्य के साथ भी 
वास्तव न्याय किया था
वर्तमान मे विचारणीय यह है
महाभारत मे सत्य और  असत्य के मध्य युध्द के दौरान
नितान्त निजी कारणो से कर्ण ने असत्य के
 प्रतीक दुर्योधन का साथ दिया
एकलव्य की युद्ध मे कोई भूमिका नही रही
अर्जुन निज गुरु द्रोण के विरुद्ध युद्धरत रहते 
सत्य के पक्ष मे युद्ध लड़ते 
गुरु के और से श्रेष्ठ उद्देश्य के लिये समर्पित होकर 
इतिहास पुरुष ही नही
नारायण के साथ नर के रूप मे सुशोभित हुये
तात्पर्य यह है की व्यक्ति को वृहद् उद्देश्य की खातिर
अपने साथ  अतीत में हुए अन्याय और अपमान 
पूर्ण व्यवहार को भुलाकर
सत्य का साथ देने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए
नहीं तो उसके सम्पूर्ण ज्ञान और कौशल्य के
 दुरूपयोग की संभावना बनी रहती है
अथवा वे गुमनामी के अँधेरे में खो जाता है

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