ईश साधना का व्यक्तित्व निर्माण से किस प्रकार से सम्बन्ध होता हैं नियमित ईश साधना क्यों अनिवार्य हैं
इन बिन्दुओं के सम्बन्ध विचार करते हैं
यह उल्लेखनीय हैं कि व्यक्ति शारीरिक स्नान करने के पश्चात जब अपने प्रतिबिम्ब को देखने हेतु दर्पण के समक्ष खड़ा होता हैं
तो उसके बाह्य आकृति को निखारने में
दर्पण से सहायता प्राप्त होती हैं
किन्तु मन का स्नान एवं मन का प्रतिबिम्ब निखारने हेतु व्यक्ति को अपने ईष्ट के समक्ष नियमित रूप से
साधनारत होना अनिवार्य हैं
प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर के समक्ष नियमित रूप से
एक निश्चित अवधि के लिए साधनारत नहीं रह सकता
क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के दोषों को ईश्वरीय दर्पण में देखकर अपने व्यक्तित्व को निखारने का साहस नहीं होता
कोई भी व्यक्ति दुनिया से चाहे कितना भी झूठ बोले
स्वयं से झूठ नहीं बोल सकता
ईश साधना कि अवधि में व्यक्ति मन के दोषों को देखते हुए स्वयं कि आत्मा से साक्षात्कार करते हुए परमात्मा तक पहुँच सकता हैं
यह एक निरंतर चलने वाली दीर्घ प्रक्रिया हैं
इसका कोई संक्षिप्त मार्ग नहीं हो सकता
जिस प्रकार किसी कंप्यूटर के दो भाग होते हैं
बाहरी भाग हार्डवेयर जिसे स्पर्श किया जा सकता हैं
आंतरिक भाग साफ्टवेयर जो कंप्यूटर को
चेतना प्रदान करने वाला भाग होता हैं
जिसमें दोष उत्पन्न होने पर कंप्यूटर
पूर्ण क्षमता पर कार्य नहीं कर पता हैं
आत्मा और मन जो हमारे शरीर का आंतरिक भाग होता हैं
उसे बाहरी दुर्गुण रूपी विषाणुओं से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय नियमित ईश साधना हैं
सामान्य रूप से यह देखने में आता हैं
कि दो समान शैक्षणिक योग्यता वाले व्यक्तियों कि पदीय हेसियत एवं उनके वेतन में भारी अंतर होता हैं
यह उन व्यक्तियों के आंतरिक गुणों में अंतर के कारण हो पता हैं
ईश साधना व्यक्ति के आंतरिक गुणों में विकास करने कि प्रक्रिया हैं जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व में पूर्णता आती हैं
तथा ऐसे व्यक्ति में आत्मविश्वास भरपूर होता हैं
आत्मविश्वास से भरपूर व्यक्ति आत्मबल से परिपूर्ण होता हैं
वह किसी भी प्रकार कि समस्याओं का सामना करने में सक्षम होता हैं और यही विशेषता व्यक्ति को सामान्य से उसे विलक्षण एवं विशेष बनाती हैं
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने ईष्ट की निरंतर एवं नियमित रूप से साधना करनी चाहिए
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