परदोष दर्शन, छिन्द्रान्वेषण करना एक प्रवृत्ति होती है
वर्तमान में पर इस प्रकार की प्रवृत्ति सभी और व्याप्त है
किस प्रकार से किस व्यक्ति या वस्तु में कब कैसे दोष देखा जाय
यह कार्य सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं
हर कोई व्यक्ति इस कार्य के लिए सक्षम होता भी नहीं है
कहते जहा न पहुंचे कवि वहा पहुंचे अनुभवी
परदोष दर्शन, छिन्द्रान्वेषण के लिए भी यही उक्ति लागू होती है
जो व्यक्ति भूतकाल या वर्तमान काल में जितने अधिक दोषों से लिप्त होता है
वह परदोष दर्शन में उतना ही पारंगत होता है
क्योकि जो दोष रहित व्यक्ति वह दृष्टि कहा से लायेगा
यदि प्रयास भी करेगा तो उसे दोषों के साथ गुण भी दिखाई देगे
वैसे भी इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति गुणहीन नहीं है
निकृष्ट से निकृष्ट व्यक्ति में भी कोई न कोई गुण अवश्य होता है
ऐसी स्थिति में परदोष दर्शन के कार्य में अपूर्णता रहना संभव है
छिन्द्रान्वेषण का कार्य इतना सहज और सरल नहीं है
व्यक्ति हो या वस्तु हो या हो कृति सभी में अपूर्णता रहना संभव है
जिन्हें वरिष्ठ लोग छिद्र के नाम से संबोधित करते है
साहित्यिक जगत में इस प्रक्रिया को समालोचना के नाम से पहचाना जाता है
इस प्रक्रिया में पारंगत जन समालोचक कहलाते है
कहते है" निंदक नियरे राखिये"
अर्थात समालोचक ,आलोचक ,छिन्द्रान्वेषी ,जन को
अपने निकट रखने से स्वयं को दोषों से बचाया जा सकता है
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