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Monday, December 17, 2012

रक्त बीज


माँ दुर्गा जिसे नवरात्रि में प्रसन्न करने के लिए
जप तप व्रत अनुष्ठान किये जाते है
कुछ लोग स्वयम को ईश्वरीय मात्र सत्ता के
समीपता का अनुभव करते हुए मिथ्याभिमान पाल लेते है
दुर्गा सप्त शती में उल्लेख है रक्त बीज नामक राक्षस
जिसकी प्रत्येक रक्त बूँद से नवीन राक्षस उत्पन्न हो जाता था
क्या कभी हमने सोचा है की प्रत्येक व्यक्ति के भीतर
एक रक्त बीज विद्यमान है
जिसे हमारे ह्रदय में विराजमान ईश्वरीय सत्ता संहार करना चाहती है
पर हम अपने भीतर के रक्त बीज को पोषण देते रहते है
परन्तु ह्रदय में विराजमान ईश्वरीय शक्ति को जाग्रत नहीं करते
रक्त बीज हमारे मन में विद्यमान कुविचार है
कुविचार हमें करते कुकर्म की और प्रवृत्त करते है
विचार की श्रृंखला एक बार प्रारम्भ होने पर आसानी से टूट नहीं पाती है
एक कुविचार को कई कुविचारो और कुकर्मो को जनक होता है
नवरात्री में साधना के दौरान हमारे भीतर की
दैवीय सत्ता जैसे ही एक कुविचारो का दमन करती है
वैसे दूसरा कुविचार तीव्र गति से उठ जता है
दूसरा कुविचार को पुन दैवीय शक्ति समाप्त करती है
तो तीसरा कुविचार शिर उठाने लगता है
यह संघर्ष जब अंतहीन होने लगता है
तो हमें अपने भीतर स्थित माँ नव दुर्गा का आश्रय लेना होता है
अर्थात क्रिया की त्रि-शक्ति को अवलंबन लेना होता है
तब हमारे भीतर स्थित देवीय शक्ति मन में उठने वाले
दुष्ट विचारों का शमन न कर वध करती है
वध भी इस प्रकार से करती है की दूसरा तीसरा या कोई भी
कुविचार पुन उत्पन्न हो ही नहीं
इस प्रकार से हमारी नव दुर्गा साधना सफल होकर
हमें सच्चे अर्थो में दैवीय आशीर्वाद प्रात होता है

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