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Sunday, December 23, 2012

भाग्य और पुरुषार्थ


भाग्य और पुरुषार्थ एक सिक्के के पहलु है
कुछ व्यक्ति भाग्य के भरोसे रहते है
अर्थात
वह अपने पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं करते
कुछ लोग पुरुषार्थ पर ही विश्वास करते
भाग्य के भरोसे नहीं रहते
भाग्य वादी दर्शन के कारण कितने भविष्य वक्ता अपना भाग्य बना रहे है भविष्य वक्ताओं से भ्रमित होकर
कई भाग्य वादी अपना वर्तमान और भविष्य खराब कर रहे है
कई लोग जीवन में प्राप्त हो रही असफलताओं
के पीछे अपना दुर्भाग्य होना बता रहे है
वास्तव में भाग्य और पुरुषार्थ के सिद्धांतो में से
कौनसा सिद्धांत सही है
किस मार्ग का अनुसरण हमारे लिए श्रेयस्कर होगा
इस विषय पर यह हमें यह विचार करना चाहिए की
आखिर भाग्य क्या है ?
भाग्य भगवान् शब्द से बना है
अर्थात जो व्यक्ति भाग्य पर भरोसा करता है
उसे भगवान् पर भरोसा करना चाहिए
यदि कोई व्यक्ति भगवान पर भरोसा करता है
तो यह बात समझनी चाहिए की
भगवान् कभी अकर्मण्य व्यक्तियों का सहयोगी नहीं हो सकता है
यद्यपि कुछ व्यक्तियों को जीवन में कुछ उपलब्धिया
भाग्य के कारण हासिल हुई दिखाई देती है
परन्तु सूक्ष्मता से देखने पर ज्ञात होगा की
वह उस व्यक्ति के पूर्व कर्मो का परिणाम है
भौतिक जगत में हमारी दृष्टि व्यक्ति के मात्र वर्तमान
जन्म से जुड़े कर्मो को ही देख पाती है
जबकि व्यक्ति तो आत्मा और देह का सम्मिश्रण है
आत्मा प्रत्येक जन्म में भिन्न भिन्न देह धारण करती है
देह की आयु पूर्ण होने पर व्यक्ति का भौतिक स्वरूप देह नष्ट हो जाती है आत्मा के साथ व्यक्ति के संस्कार और कर्म रह जाते है
जो व्यक्ति के भावी जन्मो में उसका भाग्य निर्धारित करते है
इसलिए पुरुषार्थ को भाग्य से भिन्न नहीं माना जा सकता है
क्षमतावान और पुरुषार्थी व्यक्ति सदा आस्तिक रहता है
अर्थात वह एक हाथ में भाग्य और दुसरे हाथ में पुरुषार्थ रख कर
कर्मरत रहता है
गीता में इस सिध्दांत को कर्मयोग के रूप में संबोधित किया है
ऐसा व्यक्ति अपना कर्म पूर्ण समर्पण परिश्रम से करता है
परन्तु अहंकार की भावना को परे रख कर
स्वयम की कार्य क्षमता को ईश्वरीय कृपा ही मानता है
परिणाम स्वरूप ऐसा व्यक्ति कभी भी दुर्भाग्य को दोष नहीं देता
ऐसे व्यक्ति को ही भगवान् अर्थात भाग्य की कृपा प्राप्त होने लगती है

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