सीखना एक सतत प्रक्रिया है कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता है कि वह परिपूर्ण हो चूका है अब सीखने की कोई उसे कोई आवश्यकता नहीं है सीखता वही है जिसमे जिज्ञासा अर्थात जानने सीखने की लगतार प्रवृत्ति होती है जो व्यक्ति यह मान लेता है कि वह परिपूर्ण हो चुका है वह समग्र रूप से कुशलता प्राप्त हो चुका है उसमे उत्थान की सम्भावनाये समाप्त हो जाती है व्यक्ति कितना भी कुशल हो जाए उसके कार्य में दोष निकाला जा सकता है जो लोग दूसरे लोगो का मूल्यांकन करते है और भिन्न भिन्न प्रकार की कमिया निकालते है वही कार्य उनसे करवाये जाने पर वे भी उतनी ही त्रुटियों करते पाये जायेगे क्योकि कार्य का मूल्यांकन आदर्श परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते किया जाता है यथार्थ के धरातल वास्तविक समस्याएं कल्पना से परे पाई जाती है उनका हल तत्कालिक व्यवहारिक परिस्थितियों को देख कर तत्क्षण निर्णय लेकर ही किया जा सकता है इसलिए जब भी किसी व्यक्ति के कार्य का मूल्यांकन करो स्वयं को उस व्यक्ति के स्थान पर रखते हुए करो कि आप उस व्यक्ति के स्थान पर होते तो क्या करते ऐसी स्थिति जो भी मूल्यांकन करेंगे वह वास्तविक और सटीक मूल्यांकन होगा
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