जीवन में एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति चारो और से ख़ुद को ठगा सा पाता है ,उसने सारी जिंदगी जिस उम्मीद को लिए खुद को दिलासा दिया एक वक्त के बाद वह उस उम्मीद को भी धुंधला सा पाता है..
फिर भी जाने किस विश्वास में वह खुद को ढांढस बंधाता है और उसी धुंधली उम्मीद को लिए अपना बोझ उठता है..
अपने अतीत से जब जब वह आंखे मिलाता है उसकी आंखों से सदा पानी बह आता है जाने क्या देखता है वह अतीत के झरोखें में जो उसे आज भी रुलाता है..
कुछ यादें उसके दर्द को मरहम लगाती है तो वह मुस्कुराता है इसी हल्की सी ख़ुशी में वह खुद को बहलाता है और आगे बढ़ता है पग पग जीवन का बोझ उठाता है..
अब उसके चेहरे पर थकान सी दिखने लगी है निराश है शायद साँसे थकने लगी है कोई तो बात है जो वह फिर भी चल रहा है उसे मालूम है कि वक़्त भी उसे छल रहा है..
उसने भी तो कहां अभी रार मानी है समय को चुनौती देती उसकी वाणी है, जो सोचा था वैसा कब होता है यही सोचकर वह जीवन का बोझ ढोता है...
अब आगे क्या होगा यह कोई नही जानता लेकिन इतना है के वो हार नही मानता!
मन में चलते अंतर्द्वंद्व को उकेरती कविता
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