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Tuesday, December 27, 2011

त्रिदेव एवम जीवन दर्शन

त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु महेश के कार्यो में मूलभूत अंतर क्या है 
सामान्य रूप से कहा जाता है ब्रह्मा सृष्टि का  निर्माण करते है 
विष्णु जी पालन तथा शिव जी संहार करते है
किन्तु यह उनके कार्यो का अधूरा परिचय है 
वैसे ब्रह्मा जी के कार्यो परिचय के सम्बन्ध यह कहना महत्वपूर्ण होगा की शब्द को ब्रह्म की संज्ञा दी गई है
ब्रहमा जी ने समय समय पर राक्षसों को वचन देकर वरदान दिए है 
इसलिए उनको वचन का देवता भी कहा जा सकता है 
बोलचाल की भाषा में किसी महत्वपूर्ण वाक्य को ब्रह्म वाक्य कहा जाता है 
अर्थात वह वाक्य जो सत्य हो अटल हो तथा फलीभूत हो  
शब्द में ब्रहम होने का मतलब यह है की जो भी हम बोलते है वह शब्द सुनने वाले पर उच्चारित शब्द के अनुसार प्रतिक्रिया करता है 
चाहे वह सकारात्मक प्रतिक्रिया करे या नकारात्मक प्रतिक्रिया करे यह उस शब्द की प्रकृति पर निर्भर करता है 
इसलिए शब्द में ही ब्रह्म अर्थात ब्रह्मा जी का वास होता है
दुसरे स्थान पर विष्णु का सम्बन्ध कर्म से होता है 
इसका तात्पर्य यह है की जब तक सृष्टि है तब तक जीवन है 
कर्म के बिना जीवन जड़ है कर्म ही जीवन में चेतनता प्रदान करता है
चेतना कई प्रकार की हो सकती है जहा चेतना है वहा कर्म है जहा कर्म है फल है 
सत्कर्म में ईश्वर का अर्थात विष्णु भगवान् का वास होता है 
इसलिए भगवान् विष्णु के सभी अवतारों ने कर्म की आराधना पर बल दिया है 
कर्म शील व्यक्ति के साथ भगवान् विष्णु का आशीर्वाद होता है
भगवान शिव सहिष्णुता तथा उत्तरदायित्व,प्रबंधन  के देवता है 
भगवान् शिव ने माता गंगा के अतिरिक्त ऐसे जीव जन्तुओ तथा भूत प्रेत पिशाचो पशुओ के प्रति भी उत्तरदायित्व का निर्वहन किया जिन्हें सभी देवगण ने त्यक्त कर रखा था 
समस्त राक्षसों के भी आराध्य देव शिव रहे है
जहा तक सहिष्णुता का बात की जाय शिव जी जैसा सहिष्णु देव मिलना असम्भव है 
सामान्य रूप से जिस व्यक्ति को कही सम्मान नहीं मिलता उसे उसके ससुराल में तो सम्मान तो मिलता ही है
किन्तु शिव जी को उनके ससुराल में सार्वजनिक रूप से ससुर द्वारा अपमानित किया गया फिर भी वे मौन रहे
अंत में उनकी पत्नी माता सती को क्रोध आने पर जब हवन कुण्ड माता सती ने आत्मदाह किया
तब जाकर शिव जी धैर्य टूटा इसलिए धैर्य सहिष्णुता एवम दायित्व का पाठ भगवान् शिव से हमें ग्रहण करना चाहिए 
शिव जी प्रबंधन में अद्वितीय थे इसलिए भिन्न भिन्न प्रकार के प्राणी उनके साथ होने के बावजूद उन्होंने सभी के लिए गणा अध्यक्षों की नियुक्ति कर रखी थी 
और स्वयं तपस्या रत रहते थे 
आशय यह है की वर्तमान जीवन में कोई व्यक्ति  शब्द को सिध्द कर हर वचन का मुल्य समझता  है तथा वाणी के माध्यम से शब्द को मुख से बहार निकालता है 
उसकी जिह्वा एवम कंठ में सरस्वती का वास होता है अर्थात शब्द ब्रह्म की अनुगामिनी वाणी स्वरूपा सरस्वती होती है 
कोई यदि जीवन को सत्कर्मो को करते हुए सृजनरत रहता है तो उसे लक्ष्मी स्वरूपा लक्ष्मी की प्राप्त होती है 
लक्ष्मी के बल पर पुन नव कर्मो में रत होता जाता है तो लक्ष्मी बहु गुणित होती जाती है 
इसलिए कर्म के देवता विष्णु की अनुगामिनी लक्ष्मी माता को कहा जाता है 
जो व्यक्ति सहिष्णुता पूर्वक तथा कुशलता पूर्वक अपने दायित्वों का निर्वहन कुशल प्रबंधन के माध्यम से भलीभांति करता है वह अद्भुत शक्ति का अनुभव करता है 
उसे असीम बहु आयामी शक्तिया प्राप्त होती है वह शिव में समाहित होकर शक्ति संपन्न हो जाता है

Friday, December 23, 2011

समुद्र मंथन से निकला चिंतन


वृहद् लक्ष्य के लिए बहुत अधिक श्रम एवम बल की आवश्यकता होती है
किन्तु वृहद् लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लम्बे संघर्ष  असीम धैर्य भी चाहिए
जब वृहद् लक्ष्य के कई लोग साथ हो तो सभी प्रकार के व्यक्तियों में से किस व्यक्ति की क्या भूमिका रही
उस  भूमिका  से उस व्यक्ति के आचरण का पता चल जाता है
लक्ष्य प्राप्त होने पर लक्ष्य में उसका क्या अंश रहना चाहिए यह देखा जाता है
प्राचीन काल में  समुद्र मंथन का प्रसंग आता है
समुद्र मंथन में अर्थात वृहद् पैमाने पर अमूल्य प्रकार
की कृतियों को प्राप्त करने का उपक्रम था  जिसमे भारी श्रम बल की आवश्यकता थी इसलिए उस युग में विद्यमान समस्त शक्तियों की आवश्यकता थी
रचनात्मक कार्य में जिसका भी सहयोग मिले लेना चाहिए 
उस समय उस व्यक्ति की पृष्ठभूमि को ध्यान में नहीं रखना चाहिए
इसलिए देव दानव सभी गंधर्व किन्नर नाग यक्ष इत्यादि जन समूहों के समग्र प्रयास की आवश्यकता थी
सभी समूहों ने संगठित होकर समुद्र का मंथन प्रारंभ किया 
जिसमे समय समय पर तामसिक प्रवृत्तियों ने अपनी दुष्प्रवृत्तियों को प्रदर्शित भी किया 
समुद्र मंथन का निरिक्षण पथ प्रदर्शन भगवान् विष्णु कर थे  
वे एक एक व्यक्ति की भूमिका एवम उनके आचरण का मूल्यांकन कर समुद्र मंथन में प्राप्त प्रतिफल में उनके अंश को भी निर्धारित करते जा रहे थे 
दैत्य शक्ति के पास बल तो अत्यधिक था 
किन्तु उनके आचरण को दृष्टिगत रखते समुद्र मंथन से प्राप्त प्रतिफल मिलने पर प्रतिफल उनके हाथो में जाने पर दुरुपयोग की संभावना अधिक थी 
इसलिए समुद्र मंथन में दैत्य शक्ति के पर्याप्त सहयोग के बावजूद समुद्र मंथन के दौरान जो उनकी प्रव्रत्तिया उजागर हुई उसे देखते हुए समुद्र मंथन की सफलता के उपरान्त समुद्र मंथन से प्राप्त प्रतिफल से असुरो को वंचित रखा गया 
आशय यह है अच्छे कार्य में सभी लोगो का सहयोग लेना चाहिए
किन्तु अच्छे कार्य से प्राप्त होने वाली उपलब्धियों को गलत हाथो में जाने से लोक हित में जाने रोकना भी आवश्यक है
इससे यह भी स्पष्ट होता है की वृहद् लक्ष्य में सभी लोगो के अच्छे बुरे आचरण सामने आ जाते है
जो लक्ष्य प्राप्त होने मिली उपलब्धियों व् संसाधानो समुचित विभाजन में सहायक होती है

Thursday, December 22, 2011

सहिष्णुता सृजन क्षमता एवम शिव

शिव जी को यद्यपि  प्रलय का देवता माना जाता है
अधिकतर लोग शिव जी को लोक कल्याण का देवता भी मानते है
मेरी द्रष्टि मे शिव जी ऐसे देव है जो घोर विषम विपरित परिस्थितियो मे
जीवन कैसे जिया जावे इसे दर्शाते है
हिम से घिरे घनघोर वन मे ऊँचे -ऊँचे पर्वतो बीच कन्दरा
मे हिंसक जंगली पशुओ के बीच निवासरत होना यही संदेश तो देता है
सहन शक्ति कि इतनी क्षमता की समुद्र मंथन से निकले हलाहल को पीने के पश्चात नीलकंठ हो जाना
और उसी कंठ मे विषैले सर्पों को गले मे धारण कर लेना विचित्र लगता है
किन्तु वर्तमान मे भी जिस व्यक्ति की जितनी अधिक दर्द दुख कठिनाईया सहन करने की क्षमता होगी
वह प्रतिकुल परिस्थितियो मे उतना ही अपना अस्तित्व बचा कर जीवन के समस्त समाधान प्राप्त कर सकता है
व्यक्ति को जीवन मे कुछ निर्माण करना है तो उसे शिव जी सहन क्षमता विकसित करना होगी
इतनी विपरित परिस्थितियो के बीच शिव का ध्यान मग्न होना तथा
मस्तक पर गंगा एवम चंद्रमा धारण कर लेना यह दर्शाता है कि विपरित परिस्थितयो मे व्यक्ति को धैर्य न खोकर
पूरी एकाग्रता से चंद्रमा सी शीतल बुध्दि धारण कर कर्म रत रहना चाहिये
तथा बडी -बडी जिम्मेदारी को उठाने को तत्पर रहना चाहिये
भले ही विषैले सर्पो के समान दुष्ट जनों से व्यक्ति घिरा हो
ऐसा करने से व्यक्ति के चिंतन से वह स्रजन की धारा प्रवाहित होगी
जैसे शिव जी के मस्तक से स्रजन की गंगा प्रवाहित हुई
ऐसी स्रजन की गंगा आस पास के वातावरण को
उसी प्रकार सम्रध्द करेगी जैसे पुण्य सलिला गंगा ने
धरा मे अपना निर्मल जल सिंच कर उसे उर्वर बना कर
मानवता को सम्रध्द किया
तात्पर्य यह है व्यक्ति मे विपरित परिस्थितियों मे कार्य करने कि जितनी क्षमता होगी
वह उतना ही विशाल लक्ष्य सामने रखेगा ,उतनी ही महती जिम्मेदारिया निभाने मे समर्थ होगा
और  उसी अनुपात मे महान कार्य कर सकेगा



Wednesday, December 21, 2011

कल्पना भावना संवेदना एवम अध्यात्मिक चेतना

कल्पना किसी भी अविष्कार की पहली सीढी होती है
कल्पना के बिना किसी भी कृति की रचना संभव नही है
चाहे वह कविता गीत गजल या चित्रात्मक कृति  हो
कल्पना वह अंकुर है जो पल्लवित होकर विशाल व्रक्ष बन जाता है
कल्पना वह छोटा जल स्त्रोत है जो निर्झर से सागर बनने का उपक्रम है
कल्पना से शून्य व्यक्ति रचनाधर्मिता से विहीन होता है
लेकिन कल्पना का उदगम मनुष्य की संवेदना ,भावना ,से होता है
भावना एवम संवेदना से शून्य व्यक्ति कल्पना विहीन होता है
उस व्यक्ति में सृजन की सम्भावना नहीं होती
कविता शब्द शिल्प के माध्यम से हृदय की अनुभूतियो को
लय में सजाना है जिसे भिन्न -भिन्न अलंकारों एवम बिम्बों से सुसज्जित किया जाता है
कविता का रचा जाना एक अध्यात्मिक अनुभव भी है
अचानक ऐसे भावो का प्रकट होना जिनका  स्वत स्फुरण हो
ईश्वरीय अनुभूति होते है
प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि इसी अंत प्रज्ञा से वेद की ऋचाये  रचते थे
शनै शनै उनका संग्रह ग्रंथो से  निर्माण हो जाता था
श्लोको का सृजन भी इसी अंत प्रज्ञा से हमारे विद्वान कर लिया करते थे
भगवान् कृष्ण जो सभी प्रकार की सिद्दियो से संपन्न थे उनमे भी
काव्य सृजन का सिध्दी थी इसीलिए उपनिषद जैसे जटिल ग्रन्थ को गीता के रूप में सरलीकृत कर दिया
काव्य सृजन हो या संगीत कला दोनों में ही व्यक्ति का आत्मोत्थान होता है यह अवश्य है उक्त कार्य व्यक्ति को समर्पण एवम निस्पृह भाव से करना होते है
व्यक्ति की अध्यात्मिक उन्नति कुण्डलिनी जागरण की अवस्था पर भी निर्भर करती है
नाद योग से हमारे कई संगीतज्ञो का कुण्डलिनी जागरण हुआ है
आशय यह है व्यक्ति को सृजन कर्म में रत रहना चाहिए
इसी में व्यक्ति परिवार समाज ही नहीं आत्मा का भी कल्याण है 

  


Monday, December 19, 2011

सतयुग कलयुग और शिवत्व


बार बार मन -मस्तिष्क मे यह प्रश्न उठता है कि कलयुग और सतयुग मे अन्तर क्या है
अच्छे बुरे लोग सतयुग मे भी थे और कलयुग मे भी है
इसका उत्तर किसी भी विचारक से सन्तोषप्रद नही मिल पाता है
चिन्तन करने पर इसका जबाब अन्तरात्मा देती है कि सतयुग को सतयुग इसलिये कहा जाता था कि
उस समय सत्य और असत्य मे भेद करना आसान था
इस युग मे सत्य और असत्य का मिश्रण इस प्रकार से तथ्यों मे रहता है
कि उनमे भेद करना अत्यन्त दुष्कर कार्य होता है
सतयुग मे व्यक्ति की कथनी और करनी मे कोई अन्तर नही होता था
इस युग मे व्यक्ति कि कथनी और करनी मे भारी अन्तर होता है
इसलिये पुरातन युग मे इतनी जटिल न्याय व्यवस्था की आवश्यकतानही थी कि
सारे तथ्य दर्पण के समान स्वच्छ दिखाई देते थे
किसी भी घटना मे सत्य के अनुसंधान के विशेष प्रयास नही करना पडते थे
इस युग जिसे कलयुग कहते है मे किसी भी घटना अथवा विषय वस्तु के विवाद मे
सत्य असत्य मे इस प्रकार से मिश्रित रहता है कि सत्य को असत्य से प्रथक करने के लिये
सम्पूर्ण ज्ञान कौशल और अनुभव अन्वेषण द्रष्टि का उपयोग आवश्यकता होता है
अन्यथा असत्य सत्य का रूप धारण कर सत्यान्वेषी को भ्रमित कर सकता है
आशय यह है कि न्याय कर्म एवम अन्वेषण कर्म मे उस तीसरे नैत्र की आवश्यकता होती है
जिसे हम शिव जी का तीसरा नैत्र कहते है
जो तथ्य व्यक्ति के दो नैत्र नही देख पाते
उनको देखने के लिये अनुभव ,ज्ञान ,अन्तः चेतना के तीसरे नैत्र की आवश्यकता होती है
तीसरे नैत्र की द्रष्टि पाने हर किसी के लिये संभव नही
इसके लिये व्यक्ति को शिव सा व्यक्तित्व अंगीकार करना पडता है
इसलिये शिव को सत्य के साथ जोडा जाता है
जो सत्य शिव सी द्रष्टि से देखा जाता है वह सत्य बाहर और भीतर दोनो और से सुन्दर होता है
अर्थात उसमे पूर्ण सौन्दर्य का वास होता है
वह व्यक्ति जिसने शिव सी द्रष्टि प्राप्त कर ली वह कभी भ्रमित हो ही नही सकता
इसलिये कलयुग पर विजय प्राप्त करने के लिये शिवत्व धारण करना ही होगा


Saturday, December 17, 2011

पात्रता प्राप्ती एवम परमेश्वर



सामान्य रूप से यह देखा जाता है
कि कोई सामान्य व्यक्ति किसी अति विशिष्ट व्यक्ति से मिलने हेतु उसके निकट जाता है
तो उसे सर्वप्रथम पूर्व अनुमति लेना पडती है
अनुमति मिलने पर ही कोई सामान्य व्यक्ति विशिष्ट व्यक्ति से मिल पाता है
किन्तु बात ईश्वर कि हो तो उसके लिये अनुमति ही नही बल्कि कठोर साधना
समर्पण एवम निश्छल ह्रदय कि अावश्यकता होती है
भगवान राम जो विष्णु भगवान के अंश थे
यदि अयोध्या के राजा राम होते ,तो क्या उनसे घनघोर वन मे निवास रत
केवट निषाद , दलित महिला शबरी ,सुग्रीव ,इत्यादि का मिलना संभव था ,
क्या राक्षस कुल मे उत्पन्न त्रिजटा का महा देवी महालक्ष्मी की अंश सीता जी से मिलना संभव था
,बिल्कुल नही
किन्तु इन सभी को भगवान राम एवम देवी सीता मिले ही नही अपितु इनके साथ सुख दुख भी बॅाेटे
यह क्या एक अाश्चर्य से कम नही कि
भिन्न भिन्न भौगोलिक परिस्थितियो समाज प्रदेशो मे उत्पन्न व्यक्तियों की
परमात्म रूप से भिन्न भिन्न प्रकार से मिलने कि स्थितिया बनी
मात्र यही कारण नही हो सकता कि भगवान राम को वनवास मिला हो
सूक्ष्मता से चिन्तन करने पर हमे यह ज्ञात होगा
कि उक्त स्थितियो अर्थात वन मधुबन विरक्ति अासक्ति जीवन म्रत्यु का
विश्व रुप परम पिता परमात्मा के लिये का कोई महत्व नही है
भगवान राम या माता सीता वन मे रहते या महल मे
उनमे ईश अंश होने से कोई बडा अंतर नही अा जाता
मात्र परमात्म अंश श्रीराम को तो उन अात्माअों के निकट जाना था
जो परिस्थितियो वश उनसे मिलने मे समर्थ नही हो पा रही थी, वनवास भोगना तो मात्र निमित्त था
अाशय यह है कि यदि पात्रता नही हो तो कोई भी व्यक्ति कितना ही समय निकाल कर
किसी विशिष्ट व्यक्ति अथवा ईश्वर से मिलने के कितने उपाय कर ले उसका प्रयोजन सफल नही होगा
,यदि व्यक्ति मे पात्रता हो तो परमात्मा ऐसी स्थितियो का निर्माण करता है
कि पात्र व्यक्ति से स्वयम ही वांछित विशिष्ट व्यक्ति स्वतः मिल जाता है
यहा तक कि भगवान स्वयम भक्त की खोज मे वन वन भटकते उसके घर अा जाते है
अौर पात्र व्यक्ति के साारे मनोरथ पूर्ण होते है

घनिष्ठता शिष्टता विशिष्टता



कोई व्यक्ति घनिष्ठ हो और अति विशिष्ट हो
उस व्यक्ति से मिलने का क्या तरीका हो सकता है
इसका बेहतरीन उदाहरण भगवान श्रीकृष्ण एवम सुदामा मिलन का प्रसंग है
सुदामा जो श्रीकृष्ण के बाल सखा थे ने फिर भी ने द्वार पालों से जाकर कहा कि वे श्रीकृष्ण जो मिलना चाहते है और उनका नाम सुदामा है
द्वार पाल उनकी दीन-हीन अवस्था देख कर स्तब्ध रहे
किन्तु सुदामा अनुमति मिलने तक वे प्रतिक्षा करते रहे
लम्बे समय की प्रतिक्षा के पश्चात वे श्रीकृष्ण के द्वार पर आने  पर ही महल के भीतर गये
सुदामा की इसी शिष्टतापूर्ण व्यवहार एवम मित्रता का परिणाम था कि भगवान श्रीकृष्ण नंगे दौडते हुये द्वार पर सुदामा को लेने आये
जबकि वर्तमान मे देखने मे यह तथ्य आता है कि
जब कोई घनिष्ठ व्यक्ति किसी महत्वपूर्ण पद पर पहुच जाता है
तो उसके मित्र निकट सम्बंधी शिष्टाचार की सारी हदे लांघ कर लोगो के सामने
रौब झाडने के लिये सीधे विशिष्ट व्यक्ति से मिलते है तथा ऐसी हरकते करते है कि
जिससे सारा वातावरण विषाक्त हो जाता है
परिणाम यह होता है कि प्रथम द्रष्टि मे ही उस विशिष्ट और घनिष्ठ व्यक्ति के मन मे क्षोभ उत्पन्न होता है
और मिलने वाला व्यक्ति जिस अपेक्षा से मिलने जाता है उसे न तो सही प्रकार से व्यवहार मिल पाता है
तथा उसका समाधान भी नही हो पाता है
सुदामा ने श्रीकृष्ण से मिलने के समय न तो आतुरता दिखाई और न ही अपनी पीडा प्रकट की
श्रीकृष्ण भगवान ने उनकी अवस्था को देखकर उनकी मनोदशा व उनकी वास्तविक स्थितियो को समझ लिया
करुणा सागर श्रीकृष्ण ने सुदामा घर पहुचते उसके पहले ही उसका समाधान कर दिया
यह घनिष्ठ विशिष्ट मित्रता के साथ की गई शिष्टता का ही तो परिणाम था
अन्यथा मात्र घनिष्ठता मे कि गई उद्दंडता सुदामा का कहा भला कर पाती



Monday, December 12, 2011

दंड का अनुपात


दंड नीती सामान्य सिद्दांत यह है की किसी अपराधी को उसके अपराध की मात्रा के अनुरूप दंड देना चाहिए
पुराणिक पात्रो में गौतम ऋषि अहिल्या इन्द्र का प्रसंग आता है
यह कथा है इन्द्र ने छल से गौतम ऋषि का रूप धर कर गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का शील भंग किया था
तब गौतम ऋषि ने इन्द्र को कुष्ठ रोगी अर्थात शरीर छिद्र -मय होने का श्राप दिया था
जबकि रावण ने माता सीता का हरण किया था तो श्रीराम जो भगवान् विष्णु के अवतार थे
ने रावण को मृत्यु -दंड दिया था रावण का अपराध इन्द्र के अपराध से लघु था
फिर रावण को मृत्यु दंड एवम इन्द्र को मात्र श्राप
इस प्रश्न का उत्तर कोई तर्क -शास्त्री दे या न दे
पर ईश्वर कभी अनुपातहीन दंड दे ही नहीं सकता
जहा तक इन्द्र को बलात्संग से गंभीर मामले में मात्र श्राप देना का कतई यह अर्थ नहीं है
की उन्हें देवता होने का लाभ मिला
अपितु तात्पर्य यह है की गौतम ऋषि एक तपस्वी व्यक्ति थे
जिनके लिए विवाहित जीवन का इतना महत्व नहीं था
और उनके लिए विवाह आवश्यक भी नहीं था
इसलिए उनकी परिस्थितिया श्रीराम से भिन्न थी
श्रीराम पिता से वचन बद्द होकर वनवासरत जो भगवान् विष्णु के अवतार होकर मर्यादा में रह कर मानव रूप धारण कर घोर विषम परिस्थितियों में निवास रत थे
ऐसे व्यक्ति जिसको पूर्व में उसके पिता ने घर से निकाल दिया हो जो दर -दर की ठोकरे खा रहा हो
उस व्यक्ति के प्रति किया गया छोटा अपराध भी दीर्घ होता है
ऐसे व्यक्ति सहायता के स्थान पर पीड़ित करना मानवता को लज्जित करने वाला होता है
और फिर सीता जी स्वयम महालक्ष्मी काअवतार थी
वर्तमान भारतीय दंड व्यवस्था मे भारतीय दंड विधान कि धारा ३२३ सामान्य व्यक्ति के साथ मारपीट के बारे मे दंड प्रावधानित करती है
जिसमे अधिकतम दंड एक वर्ष है जबकि किसी लोक सेवक के सााथ मारपीट मे उक्त अधिनियम की धारा ३३२ मे तीन वर्ष तक का कारावास प्रावधानित है
तत्कालीन परिस्थितियों मे श्रीराम स्वयम के लिये नही संसार कल्याण की भावना के लिये भगवान विष्णु के अंश होकर अवतरित हुये थे
जबकि गौतम अपने अात्म कल्याण हेतु तपस्वी के रूप मे रह रहे थे
इसलिये श्रीराम कि लोक सेवक की अवस्था भी थी

Friday, December 9, 2011

शेषसायी विष्णु





पोराणिक ग्रन्थों मे एक चित्र भगवान शेषसायी विष्णु का देखने मे आता है 
आखिर  क्या कारण है कि कोई देवता जो सर्प को शैया बना कर गहन निन्द्रा मे लेटा हो 
और उनके चरणों मे देवी लक्ष्मी सेवारत हो और नाभी से ब्रह्म देव अंकुरित हो रहे हो 
उपरोक्त चित्र क्या हमारे तार्किक मन को सोचने को बाध्य नही करता 
हमारे महर्षियों ने कोई परिकल्पना तो की होगी 
जिसके आधार पर उक्त चित्र निर्मित हुआ 
इस प्रश्न का उत्तर मेरा मन मष्तिस्क यह देता है कि
यदि व्यक्ति जीवन मे ऐसी स्थिति हो की वह विकट परिस्थितियो से घिरा तो उसे क्या करना चाहिये 
जैसे भगवान विष्णु के सिर पर अनेक फनधारी शेषनाग होना यह दर्शाता है कि 
यदि काल ही नही महाकाल सिर  खडा हो घबराने बजाय भगवान विष्णु तरह शीतल मष्तिस्क से चिन्तन करते हुये कार्ययोजना बना कर अपनी रचनात्मक व्रत्ती बनाये रखे 
परिणाम स्वरुप रचनात्मकता से उसी प्रकार से कर्म फल अंकुरित होगा 
जैसे विष्णु भगवान की नाभि से ब्रह्म देवता अंकुरित हुये 
ऐसी स्थिति मे शेषनाग जैसे सहस्त्र फणधारी नाग रूपी महाकाल 
ऐसे सृष्टि  रचना के देवता को देखकर फड-फडाते रहे 
किन्तु चिन्तन पुरुष को भगवान विष्णु को क्षति पहुचाने के स्थान पर उनकी शैया बन गये
ऐसे विलक्षण पुरुष के चरणों उपलब्धियों एवम भौतिक सम्पत्तयों को तो होना ही था 
इसलिये भगवान विष्णु के चरणों मे महादेवी महालक्ष्मी सेवारत हुई


Monday, December 5, 2011

वरदान या श्राप


प्राचीनकाल मे वरदान या श्राप का बहुत महत्व होता था, वर्तमान मे भी कोई परिस्थितिया ऐसी बन जाती है
जो व्यक्ति विशेष के लिये वरदान होती है या किसी व्यक्ति के लिये श्राप बन जाती है
कोई परिस्थिती जो अनुकूल हो उसे उस व्यक्ति के लिये वरदान कहा जाता है
किन्तु उस व्यक्ति के अकर्म या दुष्कर्म उसे श्राप मे परिवर्तित कर देते है
कभी -कभी किसी व्यक्ति कि प्रतिकूल परिस्थितीया उस व्यक्ति की कर्मठता
एवम समय के अनुसार अनुकूलन क्षमता उस व्यक्ति के लिये श्राप के स्थान पर वरदान का कार्य करती है
जैसे कि अधिक मात्रा मे किया गया स्वादिष्ट भोजन व्यक्ति को पुष्ट करने के बजाय बीमार बना देता है
और किसी दरिद्र व्यक्ति की दरिद्रता उस व्यक्ति के पाचन तंत्र को स्वस्थ रखती है
प्राचीनकाल मे यही स्थिति रावण ,हिरण्यकश्यप ,इत्यादी राक्षसों के साथ हुई, उन्हें अमरत्व के वरदान प्राप्त थे
किन्तु उनकी स्वेच्छाचारिता एवम उद्दंड प्रव्रत्ती ने उन्हें असमय काल ने ग्रसित कर लिया
दूसरी और महर्षि मार्केण्डेय की अल्प आयु का श्राप उनकी सतत कर्म व्रत्ती ने उन्हें अमरता प्रदान की
रुद्र अवतार पवन पुत्र को दिया गया स्म्रति लोप का श्राप उनकी शक्ती अपव्यय करने से रोकने का कारण रहा
जिसका उन्होनें उपयोग समुद्र लांघने ,लंका दहन तथा विजय मे किया
इसी प्रकार नल- नील वानरों को महर्षियों द्वारा दिया गया श्राप श्रीराम सेतु बनाने के काम आया
आशय  यह है की वरदान या श्राप उस व्यक्ति की क्षमता एवम रचनात्मकता प्रव्रत्ती पर पर निर्भर करता है
कि वह उसे किस रुप मे लेता है

Sunday, December 4, 2011

भगवान विष्णु




ईश्वर को सदा न्यायकारी कहा जाता है |
भगवान विष्णु को राक्षस पक्षपाती देवता कहते थे |
क्योकि प्राचीनकाल में भगवान् विष्णु सदा देवताओं की सहायता करते थे और राक्षसों का संहार
 ऐसा वे इसलिए करते थे ,की कोई राक्षस स्वर्गलोक के इन्द्रासन पर विराजित न हो जाए|
वे चाहते थे की तत्कालीन सत्ता के सूत्र सज्जन व्यक्ति के हाथो में रहे|
  यदि ऐसा है तो सज्जन एवम दुर्जन सभी समुदायों एवम एवम प्रजातियों में रहते है
राक्षसों में भी प्रहलाद .एवम बलि नामक दैत्य भगवन विष्णु के अत्यंत प्रिय भक्त थे |
वह कौनसे कारण  थे |की भगवान विष्णु ने प्रहलाद को उनका अत्यंत प्रिय भक्त होने के बावजूद इन्द्र का आसन नहीं दिया तथा राजा बलि के इन्द्र बनाने का अवसर छीन  लिया  |
जबकि दोनों उक्त दैत्यों में दैवीय गुण तत्कालीन देवताओ के राजा इन्द्र से अधिक थे|
इसका कोई जबाब किसी तर्क शास्त्री के पास हो या न हो |
मै ऐसा सोचता हूँ की भगवान् कभी पक्षपाती हो ही नहीं सकते|
भगवान विष्णु के पास प्रहलाद एवम राजा बलि को इन्द्र आसन पर आसीन न होने देने का यह कारण था|
की किसी राज्य पर शासन के के लिए राजा का ही नहीं अपितु उसके मंत्री परिषद् में भी गुणवान व्यक्ति होने चाहिए|
 इन्द्रराज की मंत्री परिषद् में इन्द्र देवता से अधिक गुणी देवतागण थे |
जैसे सूर्य ,अग्नि ,वरुण ,वायु ,गुरु , यम इत्यादि जो गुणों में इन्द्र से अधिक ही गुणवान एवम चरित्रवान थे
जबकि राक्षसों में मात्र राजा बलि ,या प्रहलाद ही गुणी थे |शेष दैत्य गुणहीन ही नहीं ,अपितु सुख -चैन के शत्रु थे
वर्तमान में भी देखने में यह आता है की किसी राज्य का या देश का मुखिया बहुत सज्जन व्यक्ति होता है
किन्तु उसके सलाहकार तामसिक गुणों से युक्त होते है 
परिणाम यह होता है पूरी व्यवस्था भ्रष्ट हो जाती है