आखिर वो दिन आ ही गया जिसके लिए नियति ने खेल खेला था रिचिक पत्नी ने जो वर ऋषि से मांग था ऋषि द्वारा उस वर की पूर्ति अब होने ही वाली थी ऋषि ने शुभ महूर्त के दिन अपनी पत्नी से कहा आज तुम्हारी सेवा के फल स्वरूप तुम्हारे वर को पूरा करने के लिए मैं आज एक महान यज्ञ का अनुष्ठान करूंगा तुम अपनी माँ के साथ इस यज्ञ मैं आहुति दोगी तूम यज्ञ के लिये तेयार हों जाओ .
ऋषि ने महायज्ञ शुरू किया रिचिक पत्नी और और उनकी साँस ने इस यज्ञ मैं आहुति दी यज्ञ समाप्त हुआ यज्ञ समाप्त होने के पश्चात रिचिक ने प्रसाद स्वरूप चरु बनाया ( चरु - चावल , दूध , पञ्चमेवों से बनी खीर ).
और उस चरु को दो भागो मैं बराबर विभाजित कर दिया एक भाग अपनी पत्नी के लिए और दूसरा भाग अपनी सांस के लिए रखा , रिचिक ने अपनी पत्नी से बोला देखो यज्ञ के प्रसाद स्वरुप ये चरु मैंने तुम्हारे
और माता जी के लिए बनाया हैं ध्यान रखना दाया वाला पात्र तुम्हारे लिए हैं और बाया वाला पात्र माता जी के लिए है इस बात का ठीक से ध्यान रखना रिचिक इतना कहकर कुछ आवश्यक काम से कुछ देर के लिए आपनी कुटी मे चले गये रिचिक पत्नी चरु लेकर अपनी माँ के पास पहुची।
माँ उन्होंने ये प्रसाद दिया है इसे आप ग्रहण कीजिये जब माँ ने देखा की पुत्री उन्हें बड़ी सावधानी से चरु दे रही हैं तो उन्होंने प्रश्न किया क्या बात हैं बेटा दोनों चरु मैं कुछ अंतर हैं क्या ?
पुत्री ने कहा नही माँ ऐसी कोई बात नही हैं पर उनकी आज्ञा हैं की मैं आप को ध्यान से बायाँ पात्र ही दूँ .
और उस चरु को दो भागो मैं बराबर विभाजित कर दिया एक भाग अपनी पत्नी के लिए और दूसरा भाग अपनी सांस के लिए रखा , रिचिक ने अपनी पत्नी से बोला देखो यज्ञ के प्रसाद स्वरुप ये चरु मैंने तुम्हारे
और माता जी के लिए बनाया हैं ध्यान रखना दाया वाला पात्र तुम्हारे लिए हैं और बाया वाला पात्र माता जी के लिए है इस बात का ठीक से ध्यान रखना रिचिक इतना कहकर कुछ आवश्यक काम से कुछ देर के लिए आपनी कुटी मे चले गये रिचिक पत्नी चरु लेकर अपनी माँ के पास पहुची।
माँ उन्होंने ये प्रसाद दिया है इसे आप ग्रहण कीजिये जब माँ ने देखा की पुत्री उन्हें बड़ी सावधानी से चरु दे रही हैं तो उन्होंने प्रश्न किया क्या बात हैं बेटा दोनों चरु मैं कुछ अंतर हैं क्या ?
पुत्री ने कहा नही माँ ऐसी कोई बात नही हैं पर उनकी आज्ञा हैं की मैं आप को ध्यान से बायाँ पात्र ही दूँ .
माँ ने कहा मुझे ऐसा लगता हैं की जमाई जी ने तुम्हारे लिए विशेष चरु बनाया हैं जिसके पीने से तुम्हें उतम संतान की प्राप्ति होगी , ओर शायद मेरे लिए साधारण चरु बनाया है आखिर तुम उनकी पत्नी हो , माँ ने कहा देखो पुत्री तुम्हारा चरु मुझे दे दो आखिर तुम्हारे भाई को राजा होना हैं माँ के अत्यधिक आग्रह करने पर पुत्री ने चरु बदल लिए दोनों ने प्रसाद लिया इतने मैं रिचिक आ गये पत्नी का मुख देख कर वो सब समझ गये उन्होंने बोला मैने जों चरू तुम्हारे लिए दिया था वों ज्ञान और ब्राहमण तत्व का प्रतीक था।
और जो चरु मैंने माता जी के लिए दिया था वो युद्ध वीरता ,शोर्य का प्रतीक था जो राजा के अनिवार्य गुण हैं परन्तु अब ठीक इसके विपरीत होगा रिचिक पत्नी ने कहा मेरा पुत्र और युद्ध क्रपा करे स्वामी मैं ऐसा नही चाहती मुझसे गलती हो गई कुछ तो उपाए करे। पत्नी के बार बार आग्रह करने पर रिचिक ने चरु का प्रभाव बाँट दिया फल स्वरूप रिचिक के पुत्र स्वरूप जम्दागनी और जम्दग्नी के पुत्र के रूप मैं परशुराम जी का जन्म हुआ। और रिचिक पत्नी के भाई के स्वरूप विस्वामित्र का जन्म हुआ
और जो चरु मैंने माता जी के लिए दिया था वो युद्ध वीरता ,शोर्य का प्रतीक था जो राजा के अनिवार्य गुण हैं परन्तु अब ठीक इसके विपरीत होगा रिचिक पत्नी ने कहा मेरा पुत्र और युद्ध क्रपा करे स्वामी मैं ऐसा नही चाहती मुझसे गलती हो गई कुछ तो उपाए करे। पत्नी के बार बार आग्रह करने पर रिचिक ने चरु का प्रभाव बाँट दिया फल स्वरूप रिचिक के पुत्र स्वरूप जम्दागनी और जम्दग्नी के पुत्र के रूप मैं परशुराम जी का जन्म हुआ। और रिचिक पत्नी के भाई के स्वरूप विस्वामित्र का जन्म हुआ
जो बाद मैं चरु के प्रभाव से क्षत्रिय राजा होने पर भी तप कर ब्रहामण हूए .
जमदाग्नि के पूत्र परशुराम जी जो ब्रह्मिन होते हुए भी अपने युद्ध कोशल से क्षत्रिय धर्म का निर्वहन किया और
इक्कीस बार धरती को दुष्ट हेहयक्षत्रिय राजाओ से विहीन कर दिया जो की अधर्म के स्वरूप थे और अपने बल से धरती को कष्ट दे रहें थे।
यदि सभी वर्ग व्यवस्था के अनुरूप अपने अपने धर्म का निर्वाह करे और एक दुसरे का सम्मान करे तो यही सम्पूर्ण धरा के लिए कल्याणकारी होगा धर्म होगा .
( विश्वामित्र जी जमदागनी ऋषि की माता के भी थे और परशुराम जी जमदागनी और रेणुका के पुत्र थे)
"जब जब होत धर्म की हानि बडत अधम असुर अभिमानी तब तब प्रभु धरी विविध शरीरा हरही हरी भव सज्जन पीरा"
जब जब धर्म की हानि होती हैं तब तब ईश्वर भिन्न भिन्न रूपों मैं जन्म लेता हैं और सज्जनों की पीड़ा को हरता हैं (अधर्म का नाश कर और धर्म की स्थापना कर) .
यदि सभी वर्ग व्यवस्था के अनुरूप अपने अपने धर्म का निर्वाह करे और एक दुसरे का सम्मान करे तो यही सम्पूर्ण धरा के लिए कल्याणकारी होगा धर्म होगा .
( विश्वामित्र जी जमदागनी ऋषि की माता के भी थे और परशुराम जी जमदागनी और रेणुका के पुत्र थे)
"जब जब होत धर्म की हानि बडत अधम असुर अभिमानी तब तब प्रभु धरी विविध शरीरा हरही हरी भव सज्जन पीरा"
जब जब धर्म की हानि होती हैं तब तब ईश्वर भिन्न भिन्न रूपों मैं जन्म लेता हैं और सज्जनों की पीड़ा को हरता हैं (अधर्म का नाश कर और धर्म की स्थापना कर) .