Total Pageviews

Wednesday, March 28, 2012

परशुराम भाग - ५

परशुराम भाग - 5 ( रिचिक सेवा का फल  )

माता की सलाह को मानकर राजकुमारी( रिचिक पत्नी ) ने अपने पति रिचिक की यथोचित( कठोर ) सेवा की .
एक दिन रिचिक पत्नी सेवा से प्रसन्न होकर बोले - मुझे बहुत दुःख हैं की तुम्हे मुझसे विवाह करना पड़ा मैं जानता हूँ की मुझसे विवाह करके तुम्हे बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा हैं, अपने महलो के सुख छोड़ कर तुम्हे मेरे साथ मेरे समान कठोर तपस्वी जीवन जीना पड़ रहा हैं मैं तो इस जीवन का आदि हूँ मैंने इसे स्वयं इसे अपनी  इच्छा से चुना हैं पर तुम इस की आदि नही हो, परन्तु मैं कर भी क्या सकता हूँ कभी कभी इश इच्छा बड़ी प्रबल होती हैं और परहित के लिए त्याग अनिवार्य हो जाता हैं.
इतने पर भी तुमने सारे कष्टों को हसते हुए सहा और अपने धर्म का पालन किया मेरी हर प्रकार से सेवा की. कहो तुम्हारी क्या कामना हैं निसंकोच कहो यदि तुम चाहो तो अपने  पिता के घर भी  जा सकती हो और वहा सुख से रह सकती हो.
प्रभु की आज्ञा मान कर मैंने तुमसे विवाह किया हैं पर मैं तुम्हे जबरन यहाँ नही रखना चाहता. और वेसे भी जो निश्चित होगा वही होकर रहेंगा.
रिचिक की बात सुनकर राजकुमारी बोली - स्वामी ये आप क्या कह रहें हैं मैं कही नहीं जाना चाहती और मुझे यहाँ किसी प्रकार का कष्ट नहीं हैं अपितु मैं तो स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली मानती हूँ की मुझे आप जेसा वर प्राप्त हुआ आप की सेवा का अवसर मिला ,धर्म, आध्यात्म, ज्ञान का ऐसा वातावरण मिला परहित करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ अवश्य ही किसी जन्म मैं मैंने पुण्य कर्म किये हैं जिसके फलस्वरूप मुझे ये सब देखने को मिला.
रिचिक राजकुमारी की बातों को सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुए. तुम सच में एक उतम कुल की कन्या हो तुम्हारी वाणी से तुम्हारे कुल के संस्कार साफ़ दिखाई पड़ते हैं तुम सच में राजकन्या हो कहो तुम्हारी क्या इच्छा हैं कोई भी वर मांगों प्रिय. 
रिचिक के मुख से अपने लिए पहली बार इतने कोमल शब्द सुनकर राजकुमारी को पहली बार विवाहित होने का सुख मिला ऐसा लगा मानो आज रिचिक एक ऋषि के रूप में नही अपितु उनके पति के रूप में उनसे बात कर रहें हो और एक पत्नी होने के नाते पति से कुछ भी मांगने का अधिकार तो राजकुमारी को स्वत ही प्राप्त हैं.
राजकुमारी (रिचिक पत्नी) थोड़ी लज्जाती हुई बोली स्वामी यदि आप सच में मुझ पर प्रसन्न हैं यदि आप सच में मुझे कुछ देना चाहते हैं तो में आप से एक पुत्ररुपी रत्न मांगती हूँ.
और पुत्र के साथ साथ ये मांगती हूँ की मेरे पिता के पश्चात राज्य को सम्भालने के लिए व् राजा बनने के लिए  मेरी माता को एक पुत्र और मुझे एक भाई प्राप्त हो.
ऋषि मुस्कुराये वो प्रभु लीला को समझ गये उनके श्रीमुख से अमृतवचन निकले - तथास्तु 
एक सुखी ग्रहस्थी के लिए पति और पत्नी के बीच आपसी समझ होना आवश्यक हैं परिस्थिति केसी भी हो समय केसा भी हो सुख हो या दुःख दाम्पत्य जीवन मैं एक दुसरे का साथ निभाना ही ग्रहस्थ आश्रम की कुंजी हैं.
( सुख और विशवास की कुंजी जेसा  की इस प्रसंग मैं देखने मैं आता हैं.)

Tuesday, March 27, 2012

ज्ञान एवम बुध्दि



प्राचीन काल में राक्षस ब्रह्म देव की आराधना करते थे
 ब्रहम देव ज्ञान के देवता कहे जाते है इसका आशय यह है की राक्षस गणज्ञान -विज्ञान के साधक थे 
इसलिए उनमे ज्ञान विज्ञान का अपार एवम अथाह भण्डार था
 माता सरस्वती बुध्दी की देवी है 
राक्षसों द्वारा माता सरस्वती की साधना कभी नहीं की गई
 इसलिए उनमे निर्मल  प्रज्ञा का अभाव था 
परिणाम स्वरूप ज्ञानी होने के बावजूद वे मूर्खताए करते थे 
ज्ञानी व्यक्ति में निर्मल बुध्दी नहीं हो तो 
व्यक्ति में अहंकार का भावना उत्पन्न हो जाती है 
इसलिए ब्रह्म देव की साधना के साथ माता सरस्वती की स्तुति करना आवश्यक है 
विश्व में बहुत कम मंदिर मिलेगे 
जहा मात्र ब्रह्मा जी की पूजा की जाती है
 ब्रह्मा जी के साथ सरस्वती की प्रतिमा होगी 
या 
ब्रह्मा जी के साथ विष्णु भगवान् एवम महादेव शिव की प्रतिमा होगी इसका मुख्य कारण यह है 
की अकेला ज्ञान अहंकारी निरंकुश हो जाता है 
उसे निर्मल एवम प्रखर  बुध्दि का साथ चाहिए
जिससे वह अपना समुचित उपयोग कर सके 
यदि  ज्ञान के साथ कर्म एवम प्रबंधन अर्थात विष्णु भगवान् एवम शिव का हो तो उसके चमत्कारिक परिणाम मिलते है 
अन्यथा मात्र ज्ञान सैध्दांतिक ही रह जाता है
 उसका व्यवहारिक जीवन में उपयोग नहीं हो पाता है 
 माता सरस्वती अर्थात बुध्दि  ब्रहमा जी अर्थात ज्ञान को वह कल्पना एवम सृजना देती है
जो किसी भी कृति के लिए प्रथम सीढ़ी होती है
महर्षि  विश्वामित्र द्वारा रचित महामंत्र में ईश्वर से केवल अच्छे गुणकर्म
स्वभाव  वाली बुध्दि की ही कामना की गई है
प्रखर  बुध्दी के बल पर सामान्य ज्ञानी बड़े बड़े रचनात्मक कार्य कर पाता है 
जबकि अधिक ज्ञानी व्यक्ति निर्मल बुध्दि के अभाव में आत्मघाती कृत्य कर बैठता है 
तथा प्रखर बुध्दि के अभाव में सामान्य सा कार्य भी नहीं कर पाता है 

Sunday, March 25, 2012

वर्णाश्रम व्यवस्था एवम देश की अर्थ व्यवस्था

शास्त्रों में हमारे शरीर को चार वर्णों में विभक्त किया गया है
 हमारे मस्तक को ब्राह्मण 
, वक्ष तथा हाथो को क्षत्रिय
 एवम उदर को वैश्य 
कटी भाग के नीचे अर्थात पैरो को शुद्र के रूप में संज्ञा दी गई है
 जिस प्रकार सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए 
सभी वर्णों को अपनी योग्यता के अनुसार 
कार्य करने की आवश्यकता है 
इस तथ्य को हमारे शरीर के माध्यम से इस प्रकार समझ सकते है 
की हमारे वक्ष तथा हाथ हमारे शरीर की रक्षा करते है 
उसी प्रकार से देश की सेना तथा आंतरिक सुरक्षा बल देश एवम समाज की सुरक्षा करते है 
वे क्षत्रिय धर्म का पालन करते है 
देश के वैज्ञानिक ,अर्थशास्त्री ,शिक्षाशास्त्री चिन्तक ,विधिवेत्ता हमारे मस्तक अर्थात ब्राह्मण वर्ण का कार्य करते है  
उदर वैश्य का इसलिए कार्य करता है 
क्योकि वह ग्रहण किया गया अन्न को अवशोषित कर सम्पूर्ण शरीर को पोषण प्रदान करता है  
कटी भाग के अधोभाग में पैर शरीर को गतिशील रखते है 
जिस प्रकार से प्रशासनिक अधिकारी एवम कर्मचारी ,कृषक ,मजदूर सारे देश के उत्पादन क्षमता को गति प्रदान करते है 
यदि वैश्य वर्ग में संग्रह प्रवृत्ति बढ़ती  
उसी प्रकार से व्यक्ति के आलस्य के कारण 
मानव का पेट बाहर निकल जाता है 
ऐसा इसलिए होता है 
की प्रशासनिक व्यवस्था के निकम्मेपन एवम निष्क्रियता के कारण व्यापारी वर्ग  बड़े बड़े गोदाम अनाज भरे जाते है
 इसी कारण अर्थ व्यवस्था में महंगाई में वृध्दि होती 
अर्थात व्यक्ति का पेट बड़ने से  शरीर भिन्न -भिन्न प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाता है 
इसका तात्पर्य यह है 
हमारे शरीर की भाँती हमारे देश एवम समाज की व्यवस्था चलती है  जिस प्रकार से हमने अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं दिया 
तो शरीर रुग्ण हो जाता है उसी प्रकार देश के वर्णाश्रम व्यवस्था में संलग्न अंगो द्वारा  अपने कर्तव्यो का भली भाँती कर्तव्य का निष्पादन नहीं किया तो देश की सम्पूर्ण व्यवस्था बिगड़ जाती है 

धर्म













धर्म 
बात पुराने समय की हैं जब लोग तीर्थ यात्रा के लिए पैदल ही जाते थे परिवहन का कोई साधन  उस समय उपलब्ध नही था 
रेल, बस, मोटर गाड़ी को कोई नही जानता था इन सब का अस्तित्व ही नहीं था तब लोग पैदल ही मिलो की धुरी अपने पेरो से तय करते थे हाँ कभी कभी वे अपने साथ अपने पालतु पशुओ जेसे गधे खच्चर आदि को समान और सवारी के निम्मित ले जाते.
उस समय यात्रा अवधि बहुत लबी हो जाती  और रास्ते मैं भोजन पानी की भी कोई सुविधा नहीं होती तो लोग अपने साथ सतू  और चना आधी खाने को ले जाते.


ऐसे ही समय की ये  घटना हैं - सदियों से ये परम्परा हैं की भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग रामेश्वरम जो की दक्षिण भारत मैं स्थित हैं उनका अभिशेख उत्तरभारत  मैं बहने वाली भारत की आत्मा माँ गंगा के जल से ही किया जाता रहा हैं.
वहा के पुजारी और स्थानीय श्रद्धालु लोग अभिषेख  के लिए गंगा जल लाने के लिए भारत के एक छोर से दुसरे छोर तक की कठिन यात्रा करते और माँ गंगा का जल लाकर भगवान् शिव का अभिषेक करते.


पुजारियों  का एक दल उत्तर भारत से माँ गंगा का जल अपने साथ लेकर दक्षिण भारत मैं अपने आराध्य  श्री रामेस्वरम का  जलाअभिसेख  करने के लिए कठिन रास्तो को  को पार कर अपने गंतव्य की और बड  रहा था  मार्ग मैं कई स्थान  अतिभयानक थे लम्बी यात्रा मैं कई बार ऐसे स्थान पड़ते जहा पीने को जल और फल आदि भी नहीं मिलते ऐसे ही एक स्थान से ये दल गुजर रहा था सूरज की तेज किरणों से जमीन  जल रही थी धुर धुर तक  पानी का नामो निशाँ नहीं था सभी बेहाल थे पर अपने स्वामी का  जलाअभिशेख करने की कामना उन्हें शक्ति देती सभी भगवान रामेश्वरम का जयघोष करते हुए बड रहें थे तभी उन्हें रास्ते मैं किसी जीव की दर्दनाक वाणी सुनाई दी देखा तो एक गधा गर्मी से व्याकुल प्यास  से तडप  रहा था उसकी स्थति अत्याधिक गम्भीर थी उसे देख कर लग रहा था की उसकी कुछ ही साँसे शेष हैं .
दल के लोग रुक गये एक ने कहा अरे ये बेचारा तो बहुत संकट  मैं हैं  प्यास से तडप रहा हैं, दूसरा बोला लगता हैं किसी यात्री का होगा पानी की कमी होगी तो इसे यहाँ मरने के लिए छोड़ गया होगा.
चलो अब तो भगवान ही इसका मालिक हैं बिना पानी के इसका  मरना तय हैं आगे भोलेनाथ की इच्छा.
सभी उसे मरता छोड़ कर जाने लगे पर एक आदमी वही रुक गया उससे गधे का दर्द देखा नही जा रहा था वो मन ही मन कुछ सोच रहा था उसने भगवान शिव का स्मरण किया और रामेश्वरम अभिशेख के लिए लाया अपना गंगाजल उस गधे को पिलाने लगा .
उसे देख दुसरे लोग चकित रह गए .
अरे ये क्या कर रहें हो भाई  ये गंगा जल भगवान  शिव के अभिशेख के लिए था तुमने इतना कष्ट उठा  कर महीनो लम्बी कष्टों से भरी यात्रा कर ये गंगा जल भारत के एक कोने से दुसरे कोने को पार कर अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए लाये थे और तुमने अपना  गंगा जल इस गधे  को पिला दिया शिव -शिव बड़ा पाप किया तुमने अब तुम्हारा मनोरथ पूरा नही होगा तभी वो आदमी बोला अरे भइया मेरा गंगा जल इसकी प्यास भुझाने के लिए पूरा नही हैं क्रपा कर के आप लोग भी इसे थोडा सा जल पिला दो बेचारा बहुत तडप रहा हैं बहुत दिनों  से प्यासा हैं हो सकता हैं पानी पीकर ये पुनह स्वस्थ हो जाये इसमें  तोड़ी शक्ति आ जाये. 


शिव शिव क्या बक  रहें हो हमे भी पाप का भागी  बनाओगे ये जल हमारे रामेश्वरम के लिए हैं ये हम उन्ही को अर्पित करेंगे , किसी ने अपना जल नहीं दिया. गधे ने जब उस आदमी का गंगा जल पिया तो उसे बहुत राहत मिली पर पानी उसके लिए काफी नहीं था और गधा प्यासा ही मर गया.
आदमी की आखों से आसू बहने लगे उसे दुःख था की वो गधे की प्यास नही बूझा पाया. 
लो मर गया ना और  तुम्हारा  सारा  जल भी  समाप्त हो गया. 


अब आप ही विचार कीजिये की धर्म क्या हैं क्या रामेश्वरम को जल अर्पित करके वो आदमी धर्म को प्राप्त करलेता  या  उस आदमी ने उस  मरते  हुए प्यास से व्याकुल जीव को पानी पिला कर पाप किया,   
या फिर उसने अपने  धर्म को परिभाषित किया.


क्या वो लोग धर्म को पा  लेगे क्या वो लोग भगवान् को अधिक प्रिय होंगे क्या सच मे भगवान  उन पर कृपा करेगें जिन्होंने भगवान के ही अंश उस जीव को पानी की कुछ बुँदे  देना भी पाप समझा.
  
भगवान ने हमे ये जीवन क्यों दिया इस पर विचार करे धर्म को समझना अति कठिन हैं और उसका पालन करना और भी कठिन आज जहाँ सारी दुनिया धर्म के नाम पर निर्दोष प्राणियों की बली दे रही हैं कर्म काण्ड से अपने को धर्मात्मा सिद्ध कर रहें  हैं वही कुछ  लोग अपने जीवन को परहित मैं लगा कर धर्म की स्थापना कर रहें  हैं.
  
"परहित सरस धर्म हैं नाही परपीड़ा सम दुःख कछु नाही" 


गधा तो मर गया पर मरते मरते उसे संतोष था क्योकि जल की कुछ बुँदे उस के लिए किसी अमृत से कम नही थी आदमी के दिल मैं भी शांति थी की उसने एक मरते हुए को थोडा सुख पहुचाया
और यही सच्चा धर्म हैं 
                                                                         जय भोलेनाथ       

Thursday, March 22, 2012

इन्द्र ,वज्र एवम वृत्तासुर

नवरात्रि के अवसर पर व्रत उपवास कर 
जप तप कर शक्ति पूजा करने का विधान है 
प्राचीनकाल में यह पौराणिक कथा प्रचलित है
 की वृत्तासुर नामक राक्षस जिसने भारी तप कर अलौकिक सिध्दिया प्राप्त की थी 
तथा अपनी तामसिक प्रवृत्तियों के कारण तीनो लोक में अत्याचार करने लगा था 
सभी देवता वृत्तासुर के समक्ष विवश थे 
इसलिए सभी देवता दधिची ऋषि के पास उनकी तपो बल से निर्मित अस्थियो की याचना करने पहुचे
 दधिची ऋषि की अस्थियो द्वारा निर्मित वज्र से वृत्तासुर का वध हुआ  उक्त कथा का तार्किक आशय यह है
 वृत्ति +असुर अर्थात वृत्तियों के असुर को पराजित करने के लिए सर्वप्रथम 
अपनी इन्द्रियों  को दधिची रूपी तपोबल से निर्मित वज्र से पराजित करना होगा 
तभी अपनी आसुरी अर्थात तामसिक प्रवृत्तियों पा विजय प्राप्त कर सकते 
नवरात्रि साधना में यह देखने आता है 
लोग काम क्रोध लोभ इत्यादि तामसिक प्रवृत्तियों पर इन्द्रियों पर वज्र के तपोबल से नियंत्रण करने के बजाय 
मन में एक अनावश्यक अहम भाव लेकर शक्ति की उपासना करते है जिससे मन में सात्विक प्रवृत्तियों का इन्द्र का जाग्रत होने के स्थान पर तामसिक वृत्तियों के वृत्तासुर उत्पन्न होता है 
क्योकि वृत्तासुर की उत्पत्ति भी तो शुक्राचार्य के तप से ही तो हुई थी किन्तु उस तप में तमो भाव का आधिक्य था इसलिये
वास्तविक शक्ति तो सात्विक शक्ति साधना से ही जाग्रत होगी 

Tuesday, March 20, 2012

PARSURAM BHAG - 4










परशुराम भाग - 4 


अपनी पुत्री के विवाह के कुछ समय पश्चात राजा गधिक सपत्निक अपनी पुत्री राजकुमारी से मिलने उसकी कुशल शेम लेने रिचिक ऋषि के आश्रम पहुचे.

अपने परिजनों के आगमन की सुचना पाकर राजकुमारी को अत्यंत प्रसन्नता हुई गधिक ने जेसे ही रिचिक के आश्रम की सीमा  मैं प्रवेश किया तो वे चकित रह गये आश्रम के चारो और एक दिव्या आभा चमक रही थी चारो और शुद्ध वातावरण था, वातावरण मैं अध्यात्मिकता और सकारात्मक उर्जा का वास था.
राजा गधिक और उनकी पत्नी की  समस्त चिंताए समाप्त हो गई .
रिचिक ने अपने स्वसुर और स्वास को अभिनन्दन किया,  पुत्री का अपने परिजनों से मिलन हुआ सभी प्रसन्न थे चलो पुत्री एकांत मैं चल कर बाते करते हैं (माता ने कहा)
गधिक ने रिचिक से कहा चलिए हम भी एकांत मैं चल कर कुछ वार्तालाप करते हैं आप मुझे कुछ ज्ञान उपदेश दीजिये
(ज्ञान आयु के बंधन से मुक्त होता हैं वो आयु की सीमओं से परे होता हैं इस लिए आज राजा गधिक अपने  से कम आयु और रिश्ते मैं अपने जमाई से ज्ञान उपदेश की मांग कर रहें हैं)

माँ ने पुत्री से कहा बेटी  तू प्रसन्न तो हैं ना ? 
माँ मैं सकुशल हूँ अतिप्रसन्न हूँ. 
तेरी ग्रहस्ती केसी चल रही हैं ? हमे नाना नानी बनने का सुख कब मिलेगा?
माँ सब कुछ ठीक हैं परन्तु.
परन्तु! क्या हुआ पुत्री निसंकोच बोलो . माँ ये आज भी सन्यासी की भाति ही व्यवहार करते हैं. इसलिए अभी मुझे पुत्र रत्न की कोई आसा दिखाई नहीं देती.
माता चिंतित हो गई ये तो बड़ा ही चिंता का विषय हैं. 
पुत्री  तू चिंता मत कर मेरी बात ध्यान से सुन तू अपने पति (रिचिक) की कठोर सेवा  कर  जब वो प्रसन्न हो कर तुहे कुछ देना चाहे तो वर मैं उनसे पुत्र मांग लेना और हाँ तेरे पिता के बाद राज्य सम्भालने वाला भी कोई नहीं हैं वर मैं अपने लिए एक भाई( गधिक के लिए पुत्र) भी मांग लेना ........................ '  
जब वो एक हजार दिव्या अस्व प्रकट कर सकते हैं तो वर मैं तुझे और मुझे एक पुत्र भी दे सकते हैं.

(संकट के समय मे जब कोई समस्या हो तो अपने बड़ो को अवश्य बता देना चाहिए वे वे सदा आपके हित की ही बात करेंगे) 

Monday, March 19, 2012

सकारात्मक ऊर्जा

सकारात्मक ऊर्जा व्यक्ति को निराशा से आशा की और ले जाती है 
हम यह देखते है की कुछ व्यक्तियों का सान्निध्य 
किस प्रकार हमारे तन मन में आशा का संचार कर देता है 
जबकि कुछ व्यक्ति की नकारात्मक ऊर्जा हमें उसके प्रति अरुचि उत्पन्न कर देता है
  यही अच्छे बुरे व्यक्ति की पहचान होती है 
क्योकि मानव का शरीर और मन सूक्ष्म  कणों से बना होता है 
जिनका अदृश्य आभा चक्र होता है
 क्यों हमें मंदिर अथवा पूजा स्थल पर जाकर शान्ति मिलती है 
क्यों हमें संतो और महापुरुषों के निकट जाकर आत्मिक आनंद की प्राप्ति होती है 
इसका  एक मात्र सकारात्मक ऊर्जा का वातावरण है 
जब हम किसी श्रेष्ठ एवं वन्दनीय व्यक्ति के चरण स्पर्श करते है 
तो उनके हाथ का हमारे मस्तक को तनिक स्पर्श हमें भीतर तक ऊर्जा से भर देता है 
पर देखने में यह भी आता है उम्र कुछ वरिष्ठ व्यक्तियों को हमें नमस्कार करने की इच्छा नहीं होती है 
ऐसा उन व्यक्तियों की भीतर के तमोगुण से भरे नकारात्मक ऊर्जा स्तर के कारण होता है 
कभी कभी यह देखने में आता है बड़े सभा गृह में बैठे बड़े जन समूह में किसी महान व्यक्ति के प्रवेश करते है अजीब अध्यात्मिक  उर्जा का अहसास  होता है 
 ऐसा उस महापुरुष की निरंतर मन -वचन -कर्म व् साधना द्वारा अर्जित शक्ति के कारण संभव हो पाता है 
इसलिए जीवन में सफलता हेतु अध्यात्मिक उत्थान आवश्यक है 
जो केवल सतत अध्यात्मिक साधना एवम निष्काम कर्म योग तथा जीवन में कथनी व करनी भेद समाप्त करने से संभव होता है 

Friday, March 16, 2012

आवश्यकता









आवश्यकता -

                       कहने को तो ये मात्र एक कहानी है  एक छोटी सी घटना हैं लेकिन कभी कभी एक छोटी सी घटना भी हमे बहुत कुछ सिखा देती हैं आवश्यकता हैं तो बस सबक लेने की कुछ सीखने की -

अरे अम्मा क्या ढूंड रही हो? अम्मा की सोने की नग कही गिर गई थी अरे कुछ नहीं बेटा मेरा नग गिर गया हैं बस उसे ही ढूंड रही हूँ , अरे अम्मा आप भी न देखो दिन ढल आया हैं अँधेरा हो गया हैं और इस अँधेरे मैं आप नग ढूंड रही हैं अरे अम्मा नग तो उजाले मैं मिलेगा ये, कह कर वो व्यक्ति चला गया बुढ़िया को भी ये बात ठीक लगी ठीक ही तो कह रहा हैं उजाले मैं मिलेगी और मैं पगली अँधेरे मैं खोज रही हूँ ।

बुढ़िया ने देखा कुछ ही धुरी पर एक अलाव जल रहा था जिसके कारण बहुत प्रकाश हो रहा था बुढिया अलाव की दिशा मैं चल दी और अलाव के प्रकाश मैं अपना नग ढूंडने  लगी बहुत देर हो गई पर बुढ़िया को अपना नग नही मिला.
एक और आदमी बुढ़िया को कुछ ढूंडता देख रुका और बोला  - अरे अम्मा क्या हुआ क्या ढूंड रही हो?...
अरे बेटा कुछ नहीं मेरा नग गिर गया हैं उसे ही ढूंड रही हूँ आदमी ने पूछा अम्मा आपका नग कहां गिरा था ! अरे बेटा मेरे घर के आँगन मैं गिरा था आदमी चकित था नग गिरा हैं घर के आँगन मैं और ये पागल बुढ़िया उसे यहाँ ढूंड रही हैं.
अरे अम्मा नग तो वही मिलेगा ना जहाँ  गिरा था.
बुढिया को कुछ समझ नहीं आया कोई कह रहा हैं उजाले मैं तलाश करो तो कोई कह रहा हैं आँगन मैं मैं क्या करूँ?
दरअसल दोनों मैं से किसी आदमी की बात गलत नहीं थी दोनों अपनी जगह सही हैं फेर तो बुढ़िया की अक्ल का हैं।
वेसे तो यह घटना साधारण हैं पर इसमें छुपा तथ्य असाधारण हैं -
आज कुछ एसा ही हो रहा हैं जहाँ काम की आवश्यकता हैं वहा काम नहीं हैं और जहा पहले से ही प्रकाश है वह लोग नग ढूंड रहें हैं बुढ़िया को चाहिए था की जहा नग गिरा वहा प्रकाश करे पर बुढ़िया नग वहा ढूंड रही थी जहा पहले से ही उजाला था.
आज जिसे देखो ऐसा ही कर रहा हैं. अँधेरे मैं प्रकाश लाने की मेहनत कोई  नहीं करना चाहता मेरा आशय यह हैं की आज कोई विपदाओ मैं काम नहीं करना चाहता कोई भी वहा अपनी सेवाए नहीं देना चाहता जहा उसकी आवश्यकता हैं.
आज कौनसा डॉक्टर गावं मैं जाकर सेवा करने को तेयार हैं सभी शहर  की आराम दायक परिस्थितियों मैं रहकर धन कमाना चाहते हैं.
कौन सा वैज्ञानिक अपने देश मैं रहकर देश को शक्ति शाली बनाने मैं अपना योगदान देना अपना फर्ज समझता   हैं?
 कोई वैज्ञानिक  इसरो मैं काम नहीं करना चाहता अवसर मिलने पर सभी नासा मैं ही अपनी सेवाए देना चाहते हैं. 
आज सभी अपनी सेवाए विदेशो मैं देना चाहते हैं जहा पहले से ही विकाश का प्रकाश रोशन हैं.
कोई भी इस अँधेरे देश मैं प्रकाश नहीं लाना चाहता अपनी सेवाए नहीं देना चाहता.
 शायद हम भूल गये हैं की ये घर हमारा हैं चाहें केसा भी हो पर हैं तो अपना ही घर. 

Thursday, March 15, 2012

चरित्र संस्कार

व्यक्ति में चरित्र  संस्कार से होता है
संस्कार का आत्मा से सम्बन्ध होता है
आत्मा में संस्कार साधना से होता है
संस्कार का पैमाना व्यक्ति का व्यवहार होता है
जो आत्मा के बिम्ब का प्रतिबिम्ब होता है
विकार ग्रस्त व्यक्ति न जागता न सोता है
वह जीवन में कुछ पाता नहीं
सब कुछ खोता है
इसलिए आत्मा से विकारों को को भगाओ
आत्मा को संस्कारों से सजाओ
संस्कारों से विचारों की गंगा को बहाओ
सत विचारों से जीवन में सकारात्मकता आती है
जो सूर्य की रोशनी की तरह चारो और छाती है
रोशनी सृजन की नई आशाये सजाती है
दिन प्रतिदिन नई मंजिले नवीन ऊँचाइया पाती है
अत आत्मा में ही परमात्मा का वास है
इसकी चेतना में रहती सफलता
प्राणों के पखेरू को मिलता आकाश है
फैला है सभी और असीम शक्ति का आभास है




Tuesday, March 13, 2012

समाधान पुरुष

वर्तमान व्यवहारिक स्थितियों में 
पुरुष चार श्रेणियों में विभक्त किये जा सकते है 
प्रथम प्रकार के पुरुष जिन्हें जड़ पुरुष कहा जा सकता है 
द्वितीय प्रकार के पुरुष जिन्हें समस्या पुरुष कहा जा सकता है 
तृतीय प्रकार के पुरुष को कापुरुष  अथवा पलायन पुरुष कहते है चतुर्थ प्रकार के पुरुष को समाधान पुरुष कहते है 
जड़ पुरुष का आशय यह है
 कि ऐसे पुरुष जिनकी मानसिक चेतना शून्यवत हो 
अर्थात जो दूसरों के आदेशानुसार कार्य करने में समर्थ हो 
स्वयं अपने विवेक से निर्णय लेने में समर्थ नहीं हो 
समस्या पुरुष वे होते है जो स्वयं तो समस्याग्रस्त होते ही है 
जहाँ जाते हैं समस्या खड़ी कर देते हैं या समस्याएँ स्वयं वहां उत्पन्न हो जाती हैं 
 ऐसे पुरुष समस्याओं का रोना ही रोते रहते है  
कापुरुष ऐसे पुरुष होते है
 जिन्हें दुसरे शब्दों में पलायनपुरुष भी कहा जा सकता है 
पलायनपुरुष वे पुरुष होते है 
जो समस्या खड़ी होने पर समस्यास्थल से तुरंत पलायन कर अन्यत्र सुरक्षित स्थान पर चले जाते है 
पुरुषों की सर्वोत्तम श्रेणी समाधान पुरुष की होती है 
ऐसे पुरुष समाज में अल्पमात्रा में पाए जाते है 
इस श्रेणी के पुरुष सभी प्रकार की समस्याओं के समाधान खोजने हेतु तत्पर रहते है
 वे विकट परिस्थितियों से पलायन नहीं करते अपितु उनका दृढ़ता से मुकाबला करते है
 घोर विषम परिस्थितियों में समस्या के समाधान के नए विकल्प तलाशते है 
वर्तमान परिस्थितियों में ऐसे पुरुष समाज में विद्यमान है 
किन्तु अधिक मात्र में ऐसे पुरुषों की समाज, परिवार एवं राष्ट्र को आवश्यकता है 
द्वापर युग में भगवान् श्रीकृष्ण समाधान पुरुष थे 
जिन्होंने  हर  प्रकार कि समस्याओं  के बीच  समाज और राष्ट्र को  नवीन समाधान  एवं विकल्प  प्रदान किये 
 समय-समय पर देश एवं समाज के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में समाधानपुरुष अवतरित हुए 
जिन्होंने समस्याओं के समाधान ही नही दिए बल्कि कई प्रकार के समाधानप्रद सूत्रों का अविष्कार किया 
जो प्रत्येक काल, स्थान एवं परिस्थिति में प्रासंगिक है
वर्तमान  युग को कलयुग अर्थात कृष्णयुग कहा  जा सकता है 
इस युग में भगवान् श्रीकृष्ण व अन्य समाधानपुरुषों द्वारा स्थापित किये गए समाधान के सूत्रों को समझते हुए समाधान पुरुषों में  वृद्धि करते हुए
एवं परिवार,समाज एवं राष्ट्र को सभी प्रकार की  समस्याओं से  मुक्त किया जा सकता है

Monday, March 12, 2012

PRYASH








PRYASH - ( Thomas Alva Edison )

"प्रयाश, कोशिश" कुछ ऐसे शब्द हैं जिनका हमारे जीवन मैं बहुत योगदान हैं जब भी हम किसी काम की शुरुवात करते हैं तो प्रथम चरण प्रयाश कहलाता हैं हम कोशिश करते हैं की हमारे द्वारा  शुरू किया हुआ काम पूरा हो हमे सफलता मिले पर  हम कई बार असफल होते है ,  तब  ये शब्द हमे पुनह उर्जा देते हैं नहीं मैं अपने काम को अधुरा नहीं छोड़ सकता मुझे कोशिस करते रहना होगा मैं प्रयाश करूँगा जब कोई आदमी ये जिद पकड लेता हैं तो  निश्चित ही वो अपने कार्य मैं सफल होता हैं  निश्चित ही वो अपने लक्ष्य को पता हैं .

कुछ ऐसा ही उदाहर्ण हमे एडीसन के जीवन मैं देखने को मिलता हैं -

थोमस अल्वा एडिसन को कौन नहीं जनता उन्होंने   कई महान  आविष्कार किये पर उन्हें याद रखा जाता हैं उनके सबसे बड़े आविष्कार के लिए जिसे आज हम  लाइट बल्ब की नाम से जानते हैं. 

थोमस लोगो के जीवन से अँधेरे को सदा सदा के लिए धुर करना चाहते थे यही उनका लक्ष्य था उनका संकल्प था जिसे पूरा करने के लिए वो दिन रात कई दिनों बिना खाए पिए अपने काम मैं मग्न रहते और ये काम था बल्ब के लिए एक ऐसा फिलामेंट बनाना जिसमें विधुत प्रवाह हो सके फिलामेंट गर्म हो कर प्रकाश तो दे पर इतना गर्म न हो जाये की जल जाये अथवा विधुत आवेग को सह नहीं पाए और ऐसे ही परफेक्ट फिलामेंट के आविष्कार मैं वे कई बार असफल रहें .
 
इस प्रयाश मैं घंटे दिनों मैं दिन सप्ताह मैं और सप्ताह  महीनो मैं बीत गए पर उनके हाथ लगी तो सिर्फ असफलता फैलियर वो लगभग दस  हजार बार असफल हुए, एक बार जब किसी ने उनसे कहा की आप दस  हजार बार असफल हो चुके हैं मैं कह रहा हूँ ये असम्भव हैं तब उनका कहना ये नहीं था की तुम सच कह रहें हो मुझसे ये नहीं होगा उन्होंने ये नहीं कहा की भगवान् मेरे साथ नहीं हैं उन्होंने ये भी नहीं कहा की मेरे पास साधन नहीं हैं या वातावरण मेरे प्रतिकूल हैं उन्होंने ये नहीं कहा की मुझे उपुक्त वातावरण नही मिला.
उनके शब्द थे - My friend I have not failed i"ve just found 10,000 ways that won"t work ive just found one way that works.

 मेरे मित्र मैं असफल नहीं हुआ हूँ मैंने बहुत कुछ सिखा हैं मुझे पता हैं मुझे ऐसे दस  हजार तरीके पता हैं जिससे बल्ब नहीं बन सकता मुझे तो बस एक और प्रयाश करना हैं जिससे मैं बल्ब बना सकूं
और हा यदि कोई और भी बल्ब बनाएगा तो उसे पता होगा की उसे कौन से दस  हजार काम नहीं करने हैं.वो मेरी  उन  हजारो  असफलताओ से सिख कर अपनी शुरुवात करेंगे मैंने तो कुछ दिया  हैं मुझे निराश होने की कोई वजह दिखाई नहीं देती  
और आखिर कार उन्हें वो तरीका मिल ही गया उन्होंने ऐसा फिलामेंट बना ही लिया जिसमें से विधुत बिना अवरुद्ध प्रवाहित हो सके और प्रकाश 
का रूप ले सके
वो था लाइट बल्ब. 
आज आमतोर पर देखने मैं आता हैं की व्यक्ति किसी काम को शुरू तो कर देता हैं हैं पर जब वो उसमें सफल नहीं हो पता तो इसका दोष साधन  , वातावरण भाग्य  ,और परिस्थितयो को देने लगता हैं वो प्रयाश नहीं करता कोशिश नहीं करता एक दो असफलताओ के बाद ही निराश हो जाता हैं और कई बार बहुत ही गलत कदम उठा लेता हैं.
इसलिए जब भी आप किसी काम मैं असफल हो तो एक बार अपने कमरे मैं जलते बल्ब को देख लेना.

Sunday, March 11, 2012

PARSURAM BHAG - 3






परसुराम भाग -  3

( महाराज गधिक को रिचिक की भेट एवं   रिचिक का राजकुमारी से विवाह )

रिचिक ऋषि ये बात समझ गए थे की महाराज अपनी सुकुमारी पुत्री का विवाह उनसे नहीं करना चाहते और इस लिए गधिक ने एसी भेट मांगी जिसे कोई सामान्य व्यक्ति पूरा नहीं कर सकता और नाही ये मांग पूरी करना संभव था क्योकि स्वेद वर्ण वाले एसे अस्व जिनका सिर्फ  दाया कर्ण काला हो इस प्रकार के एक हजार अस्व तो क्या संभवत ऐसा एक भी अस्व मिलना सरल नहीं परन्तु गधिक को पता नहीं था की रिचिक कोई साधारण सन्यासी ब्रह्मण नहीं थे स्वयं प्रभु ने उन्हें चुना था.

रिचिक ने वेदी मैं अग्नि प्रज्वलित की और यज्ञ प्रारम्भ किया होम की अग्नि जलने लगे ऋषि सविधा डालने लगे वेद मंत्रो का उच्चारण शुरू हुआ रिचिक ने दिव्य मन्त्रो का पाद शुरू किया सारा वातावरण दिव्य हो गया.
रिचिक ने मंत्रो को तेज स्वर मैं बोलना प्रारंभ किया ॐ वरुण देवाय नमह ॐ वरुण देवाय नमह यज्ञ की अग्नि और तेज जलने लगी .

ॐ वरुण देवाय नमह ॐ वरुण देवाय नमह 

यज्ञ की अग्नि मेंसे स्वयं वरुण देव प्रकट हुए, रिचिक ने वरुण देव को प्रणाम किया और वरुण देव ने भी रिचिक को प्रणाम किया.
वरुण देव ने कहा - रिचिक आपने मेरा आह्वान किया. कहिये क्या बात हैं. 
जब एक साधारण सा मनुष्य अपनी इच्छाओ का त्याग कर देता हैं जब उसका जीवन उसके लिए नहीं जनकल्याण और  परहित के लिए हो जाता हैं, जब एक साधारण सा व्यक्ति एन्द्रिक विषयों से ऊपर उठ जाता हैं .भोगो का त्याग कर देता हैं तो उसका जीवन स्वयं यज्ञ बन जाता हैं तब ऐसे  व्यक्ति के सामने देवता भी नतमस्तक हो जाते हैं.
आज वही द्रश्य साकार हो रहा था वरुण देव रिचिक के आदेश की प्रतीक्षा कर रहें थे.
वरुण देव आपके आह्वान के पीछे मेरा कोई व्यक्तिगत उद्देश्य नहीं हैं अपितु   सर्वशक्तिमान  भगवन  की आज्ञा से जनकल्याण हेतु  मुझे दिया  हुआ एक अतिमहत्वपूर्ण  कार्य संपन्न करने के लिए मुझे आपकी आवश्यकता हैं.
सुनिए वरुण देव इस कार्य के निमित मुझे आपकी आवश्यकता हैं, 

वरुणदेव - आप कहिये ऋषिवर मैं आपकी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ.
वरुण देव मुझे स्वेद वर्ण वाले ऐसे अश्वो की आवश्यकता हैं जिनका दया कर्ण कला हो मुझे ऐसे एक हजार अस्वो की आवश्यकता हैं,
वरुण देव ने बिना विलम्ब  किये एक हजार दिव्य अस्वो को प्रकट कर दिया .
मुनिवर ये दिव्य अस्व हैं आप जेसा कहैंगे ये आपकी आज्ञा का वेसा ही पालन करेंगे.
रिचिक ने वरुण देव को धन्यवाद दिया वरुणदेव पुनह अग्नि के धुएं मैं विलीन हो गए रिचिक उन हजार अस्वो को लेकर अगले ही दिन  राजा गधिक के पास चल दिए.
महाराज गधिक को जब ये पता चला की रिचिक उन्हे भेट देने के लिए उनकी इच्छा अनुसार एक हजार अस्व लेकर आये तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ वो भागते हुए रिचिक के पास पहुचे उन्होंने देखा रिचिक उसी प्रकार के एक हजार अस्वो के साथ खड़े थे जिनका वर्णन उन्होंने किया था , और आज तो भेट के अनुसार दूसरा दिन ही प्रारंभ हुआ था.
गधिक को अपनी आँखों पर विशवास नही हुआ.
देखिये महाराज आपकी इच्छानुसार मैं अस्वो को ले आया भेट स्वीकार कीजिये.
गधिक रिचिक के तप सामर्थ्य को समझ गए.और दुःख भरे स्वर मैं बोले ऋषिवर मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया हैं मैं समझ गया हूँ मेरी पुत्री के लिए आप से श्रेष्ट  वर नहीं हो सकता मैं अपनी पुत्री का विवाह आप से करके स्वयं को धन्य समझूंगा मेरी पुत्री का ये सोभ्ग्य होगा की उसे आप जेसा पुरुष वरन करे .
 जब दुनिया को किसी व्यक्ति की शमता का पता चलता हैं, उसके सामर्थ्य का ज्ञान होता  हैं जब व्यक्ति अपने आप को सिद्ध कर देता हैं जब दुनिया को उसकी शक्ति का पता चलता हैं , तो वही दुनिया उसकी प्रसंसा करते नहीं थकती जिसे कल तक वो स्वीकारने को तेयार नहीं थी.जिसका त्याग कर दिया गया  था पर अब  वही  उनके लिए सम्माननीय हो जाता हैं  जेसा आज राजा गधिक और रिचिक के प्रसंग से देखने मैं आता हैं
राजा गधिक ने अपनी सुकुमारी पुत्री का रिचिक से भव्य विवाह किया रिचिक ने राजा गधिक से जाने की अनुमति ली और अपनी नवविवाहित वधु को लेकर प्रस्थान किया............................................(शेष भाग भाग ही समय बाद )

Friday, March 9, 2012

मर्यादा जीवन प्रबंधन का प्रभावशाली सूत्र

मर्यादा वह गुण हैं
 जो व्यक्ति के अन्य गुणों को सही दिशा देता हैं
व्यक्ति की कार्यक्षमता में विस्तार करता हैं
 व्यक्ति को अहंकार भावना से परे रखता है 
नारी को लज्जा रूपी आभूषण प्रदान करता है 
 वीरों को जितेन्द्रिय बनता हैं
 रामायण महाग्रंथ मर्यादाग्रंथ कहा जा सकता है 
रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में 
श्रीराम को संबोधित किया गया है  
जहाँ महाभारतकाल में भगवान् विष्णु के अंश श्रीकृष्ण ने स्वयं को ईश्वर प्रमाणित किया है  
वहीं पर रामायण में श्रीराम ने हर क्षण स्वयं को मानव प्रमाणित करने का प्रयास किया है 
श्रीराम के साथ रामायण में उनके अनुज भरत, लक्ष्मण उनके सेवक श्रीहनुमान ने भी जहाँ कहीं भी प्रसंग आये मर्यादा निभाई हैं उदाहरणार्थ 
सीताजी की खोज के समय श्रीहनुमान द्वारा निभाई गयी मर्यादा उल्लेखनीय है
हनुमान जी द्वारा प्रभु के आदेशानुसार 
समुंद्र लांघ कर मात्र अशोक वाटिका में सीताजी की खोज कर उन्हें श्रीराम जी के सन्देश से अवगत कराया 
श्रीहनुमान जी यदि चाहते तो मर्यादा का उल्लंघन कर 
सीताजी की खोज होने के पश्चात 
स्वयं सीताजी को लेकर श्रीरामजी के पास ले आते
 ऐसी स्थिति में श्रीराम और रावण के मध्य युद्ध भी नहीं होता 
और लंका में भारी विध्वंस से बच जाती
हनुमानजी ने सामाजिक मर्यादा का भी पालन किया
 बालि के वध हेतु श्रीराम की प्रतीक्षा की
 हनुमानजी यदि चाहते तो वे इतने सामर्थ्यवान थे कि वे स्वयं बालि को काल के गाल में पहुँचा सकते थे 
किन्तु वे ऐसा करते तो उन्हें विभीषण की भाँति कुलघाती के रूप में याद रखा जाता
 माता सीता ने जीवनभर मर्यादा का पालन किया 
किन्तु मात्र लक्ष्मण रेखा रूपी मर्यादा का उल्लंघन किये जाने का दुष्परिणाम उन्हें जो झेलना पड़ा 
यह  सर्वविदित है 
 श्रीराम ने  भगवान् विष्णु के अवतार होने के बावजूद 
कभी भी विशिष्ट होने का भाव  कभी भी ह्रदय में  नहीं रखा 
 जबकि वर्तमान में कोई भी व्यक्ति विशिष्ट पद धारण करने के पश्चात निरंतर उस पद के अहं भाव में रहकर विशिष्ट सुविधाओं की आकांक्षा रखता है 
इसका तात्पर्य यह है कि जीवन में वृहद लक्ष्य प्राप्त करना हो तो जीवन में मर्यादा होना अत्यंत आवश्यक हैं  
नारी के सभी गुण मर्यादा के बिना निरर्थक है 
रिश्तों में भी मर्यादा आवश्यक है
 प्रत्येक व्यक्ति के कार्यव्यवहार एवं आचरण में मर्यादा परिलक्षित होनी चाहिए मर्यादा जीवन प्रबंधन का प्रभावशाली सूत्र हैं

PARSURAM BHAG -2







परशुराम  भाग - २ ( रिचिक की राजा गधिक से भेट )


शेष से आगे ............ तपस्वी ऋषि रिचिक महाराज गधिक के राज्य मैं पहुंचे  राजा को जब उनके आगमन की सुचना मिली तो उन्होंने उनका भव्य सत्कार किया. धर्मानुसार सेवा की तब राजा बोले ऋषिवर आप ने पधार कर  मुझ पर विशेष कृपा की मुझे अपने आथित्य के योग्य समझा ये मेरा सोभाग्य हैं  कहिये मैं आपकी किस प्रकार से सेवा कर सकता हूँ.
रिचिक बोले महाराज मेरे यहाँ आने का उदेश्य  अतिविशेष हैं मैं यहाँ एक महान कार्य को प्रसस्त करने के लिए आया हूँ.
ये कार्य मुझे सर्वशक्तिमान भगवान् ने स्वयं करने को कहा हैं और इसके लिए आदेश दिया हैं  , गधिक बोले आप आज्ञा करे महाराज मैं आपकी क्या सेवा सहायता कर सकता हूँ 
रिचिक बोले राजन जिस कार्य की मैं बात कर रहा हूँ उसका उद्देश्य समाज मैं संतुलन लाने  और धर्म की संस्थापना से हैं, धर्म जिसकी  संस्थापना के लिए स्वयं भगवान् विष्णु जन्म लेंगे १ ऋषि ने गधिक को वर्तमान स्थिति से अवगत करवाया गधिक को समझ नहीं आया की भगवान् के आगमन और समाज के संतुलित करने मैं वो किस प्रकार सहायता  कर सकते हैं 
तब ऋषि ने कहा राजन मैं आप से एक वचन चाहता हूँ और आशा  करता हूँ  की आप उस वचन को पूरा करेंगें.
गधिक बोले - आप आज्ञा करे मैं अपना सर्वस्व इस कार्य के लिए दे सकता हूँ . तब ऋषि रिचिक ने कहा महाराज मुझे इश्वर ने ये आज्ञा दी हैं की मैं आपकी पुत्री से विवाह करूँ इस कार्य के उद्घाटन के लिए यही प्रथम चरण हैं.
महाराज गधिक ये सुनकर स्तब्ध रह गए.
ये आप क्या कह रहें हैं ऋषिवर ये केसे संभव हैं आप एक सन्यासी हैं तपस्वी हैं वैरागी हैं और मेरी पुत्री राजपुत्री हैं आप कुशा के घर मैं निवास करते हैं और मेरी पुत्री राजमहल मैं आप ने हर सुख का त्याग कर रखा हैं और मेरी पुत्री सुखो में रही हैं, दुःख कभी उसके निकट नहीं आया नहीं नहीं मेरी पुत्री का विवाह आपसे नहीं हो सकता ये असम्भव हैं. रिचिक को इस बात का अंदेशा था की राजन इस बात के लिए   राजी नहीं होंगें तत्पचात उन्होंने राजन को कठोर शब्दों में कहा महाराज ये स्वयं प्रभु  की आज्ञा हैं आपको इस का पालन करना होगा.
जब व्यक्ति को समाज और स्वयं के हित में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता हैं तो वो असमंजस में पड़ जाता हैं और कई बार वो स्वयं के हित को प्राथमिकता देता हैं.
और यहाँ तो बात महाराज की इकलोती पुर्त्री की हो रही हैं जो महाराज को अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं एक पिता होने के कारन गधिक रिचिक के वचन और स्थिति की गंभीरता को भूल गए.
रिचिक बोले महाराज एक पिता होने के कारन आप निर्णय नहीं ले पा रहें है की आप का धर्म क्या हैं प्राथमिकता क्या हैं इसमें कुछ गलत नहीं पर महाराज जब बात राष्ट्र और अपने परिवार में  से किसी एक के हित की हो किसी एक की रक्षा की हो जब इन दोनों में से किसी एक का चुनाव करना हो तब व्यक्ति को चाहिए की वो अपने राष्ट्र समाज को प्राथमिकता दे आप तो एक राजा हैं प्रजा हित को समझते हैं आप को संसय में नहीं पड़ना चाहिए,
जब राष्ट्र ही नहीं रहेगा तो शेष कुछ भी शेष नहीं रहेगा और महाराज इसका  दोष आपको लगेगा. कुछ विचार करिए.
महाराज गधिक को ऋषि की कोई बात प्रभवित नहीं कर पा रही थी वे संतान मोह में अंधे हो चुके थे पर इस बात से भी चिंता में थे की संसार उन्ही को दोष देगा अतः उन्होंने एक युक्ति सोची.

गधिक बोले महाराज में अपनी सुकुमारी पुत्री का विवाह आपसे करने के लिए तेयार हूँ पर इसके लिए आप को हमारी एक मांग पूरी करनी होगी 
रिचिक बोले कहिये महाराज क्या मांग हैं आपकी, गधिक बोले सुनिए ऋषि  हमारे यहाँ पुत्री के विवाह में एक रीती परम्परा हैं जिसके अनुसार वर वधु पक्ष में अपने स्वसुर को स्वसुर की इच्छा अनुसार कुछ भेट में देता हैं.
रिचिक समझ गए की राजन विवाह टालने की युक्ति कर रहें हैं पर वे शांत रहें, कहिये राजन क्या मांग हैं आपकी  में आप को क्या भेट करूँ ?
गधिक बोले मेरी आपसे ये मांग हैं की रीती के अनुसार आप मुझे श्वेत वर्ण वाले अस्व जिनका दया कर्ण(कान) काला हो एसे एक हजार अस्व मुझे भेट स्वरूप चाहिए.
गधिक को लगा की ऋषि ये मांग पूरी नहीं कर पाएंगे "
और न रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी लोकोक्ति सार्थक होगी ...........
ऋषि मन ही मन हस दिए और राजा से कहा राजन में आपकी  मांग पूरी करने का प्रयास करूँगा  गधिक बोले ये भेट दस दिनों के भीतर पूरी करने का रिवाज हैं में आपको वचन देता हूँ की यदि आप इस रीती का पालन करदे तो में अपनी सुकुमारी पुत्री को विवाह आप से कर दूंगा.
इसके बाद रिचिक भेट लाने की बात कहकर चल दिए......................
में शीग्र्हा पधारुन्गा महाराज आप विवाह की तेयारी कीजिये रिचिक चल  दिए ........................................( शेष भाग  कुछ ही समय में  )

PARSURAM BHAG -1







परसुराम भाग - एक

भगवान परशुराम भगवन विष्णु के दस अवतारों मैं से एक हैं. जिनका अवतार दुष्ट अत्याचारी शक्त्रिया राजाओ के विनाश  के लिए हुआ . शक्त्रियो को वर्ण व्यवस्था मैं ऊँचा स्थान  मिला हुआ था राज्य करने का अधिकार उन्ही  के पास सुरक्षित था क्यों की वो वीर युद्ध करने वाले होते सम्पूर्ण समाज की रक्षा का दायित्व इन्ही शक्त्रियो पर था इन्ही की तरह बाकी अन्य तीनो वर्ण भी अनपे अपने कार्य को भली प्रकार से कर के समाज और राष्ट्र के लिए अपना दायित्व निभाते,
ब्रहामन वर्ण यज्ञ धर्म और समाज को ज्ञान का मार्ग दिखता 
वैश्य वर्ण व्यापार आदि करके  लोगो की आवश्यकताओ की पूर्ति करता 
और शुद्र वर्ण समाज के सेवा करता 
इन चारो मैं से यदि एक भी अपना धर्म नहीं निभाए तो समाज की रचना संभव नहीं हो सकती थी परन्तु कुछ ऐसा ही हुआ 
हैहय वंश के शक्त्रिया अपने दायित्व को भूल गए और मनमानी करने लगे अपनी शक्ति और पद का दुरपयोग करने लगे वे अत्याचारी हो गए जिस कारण समाज का संतुलन बिगड़ गया और इसी संतुलन को पुनह स्थपित करने के लिए भगवान परसुराम का जन्म हुआ 
जिसकी कथा इस प्रकार हैं.............................................................१ 

रिचिक ऋषि नाम के एक बहुत तपस्वी युवा सन्यासी थे जो यज्ञ आदि अनुष्ठान करते  वे महान सिधियो के स्वामी थे इश्वर की उन पर विशेष कृपा थी और ये सब उनके तप का ही प्रभाव था.
उनका ये समाज कल्याणकारी तपो यज्ञ इसी तरह चल रहा था एक दिन वो ध्यानमग्न होकर प्रभु का चिंतन कर रहें थे उसी  समय उन्हें एक इश्वानी सुनाई दी हे ऋषिवर ध्यान से सुनिए आपको एक महान कार्य करना हैं रिचीक बोले प्रणाम प्रभु आप किस कार्य की  बात कर रहें हैं, इश्वानी ने कहा सुनिए ऋषि आज  समाज का  संतुलन बिगड़ चूका हैं शक्त्रिया अपनी मर्यादाओ को लाँघ चुके हैं और अपने दायित्व को भूल गए हैं, अतः  अब पुनह समाज को संतुलित  कर और इन दुष्टों का  नाश कर इन्हें दंड देने का समय आ गया हैं इसके लिए अब स्वयं मैं ( भगवान् विष्णु ) अवतार लूँगा और धर्म की संस्थापना करुगा. ऋषि बोले हे प्रभु आप आज्ञा करे .
सुनिए रिचिक आपको गधिक नामक धर्मात्मा राजा की पुत्री से विवाह करना होगा.
ऋषि आश्चर्य से बोले प्रभु मैं तो सन्यासी हु ब्र्म्चारी हूँ  मैं विवाह केसे कर सकता हु प्रभ बोले हे रिचिक कभी कभी धर्म की रक्षा के लिए और समाज कल्याण के लिए अपने संकल्पों  मैं परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता हैं ,इस वक़्त आप का तप - यज्ञ और संन्यास नहीं हैं इस समय आप का दायित्व समाज के संतुलन मैं सहायता करना हैं और इस के लिए आपका विवाह करना अतिआवश्यक हैं.
रिचिक इस मर्म को समझ गए और प्रभु की आज्ञा और समाज कल्याण के पथ पर गधिक महराज की राज्य सभा की और चल दिए.....................................................! (शेष भाग कुछ ही समय बाद  ) 

ईश साधना एवम व्यक्तित्व निर्माण

ईश साधना का व्यक्तित्व निर्माण से किस प्रकार से सम्बन्ध होता हैं नियमित ईश साधना क्यों अनिवार्य हैं 
इन बिन्दुओं के सम्बन्ध विचार करते हैं
 यह उल्लेखनीय हैं कि व्यक्ति शारीरिक स्नान करने के पश्चात जब अपने प्रतिबिम्ब को देखने हेतु दर्पण के समक्ष खड़ा होता हैं
 तो उसके बाह्य आकृति को निखारने में 
दर्पण से सहायता प्राप्त होती हैं 
किन्तु मन का स्नान एवं मन का प्रतिबिम्ब निखारने हेतु व्यक्ति को अपने ईष्ट के समक्ष नियमित रूप से 
साधनारत होना अनिवार्य हैं
प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर के समक्ष नियमित रूप से 
एक निश्चित अवधि के लिए साधनारत नहीं रह सकता 
क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के दोषों को ईश्वरीय दर्पण में देखकर अपने व्यक्तित्व को निखारने का साहस नहीं होता
कोई भी व्यक्ति दुनिया से चाहे कितना भी झूठ बोले 
स्वयं से झूठ नहीं बोल सकता
 ईश साधना कि अवधि में व्यक्ति मन के दोषों को देखते हुए स्वयं कि आत्मा से साक्षात्कार करते हुए परमात्मा तक पहुँच सकता हैं 
यह एक निरंतर चलने वाली दीर्घ प्रक्रिया हैं 
इसका कोई संक्षिप्त मार्ग नहीं हो सकता 
जिस प्रकार किसी कंप्यूटर के दो भाग होते हैं 
बाहरी भाग हार्डवेयर जिसे स्पर्श किया जा सकता हैं 
आंतरिक भाग साफ्टवेयर जो कंप्यूटर को 
चेतना प्रदान करने वाला भाग होता हैं
 जिसमें दोष उत्पन्न होने पर कंप्यूटर 
पूर्ण क्षमता पर कार्य नहीं कर पता हैं 
आत्मा और मन जो हमारे शरीर का आंतरिक भाग होता हैं 
उसे बाहरी दुर्गुण रूपी विषाणुओं से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय  नियमित ईश साधना हैं
 सामान्य रूप से यह देखने में आता हैं 
कि दो समान शैक्षणिक योग्यता वाले व्यक्तियों कि पदीय हेसियत एवं उनके वेतन में भारी अंतर होता हैं 
यह उन व्यक्तियों के आंतरिक गुणों में अंतर के कारण हो पता हैं 
ईश साधना व्यक्ति के आंतरिक गुणों में विकास करने कि प्रक्रिया हैं जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व में पूर्णता आती हैं
 तथा ऐसे व्यक्ति में आत्मविश्वास भरपूर होता हैं
आत्मविश्वास से भरपूर व्यक्ति आत्मबल से परिपूर्ण होता हैं 
वह किसी भी प्रकार कि समस्याओं का सामना करने में सक्षम होता हैं और यही विशेषता व्यक्ति को सामान्य से उसे विलक्षण एवं विशेष बनाती हैं
 इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने ईष्ट की निरंतर एवं नियमित रूप से साधना करनी चाहिए 
 

Wednesday, March 7, 2012

bal hi jeevan hain


बल ही जीवन हैं 

पुरानो मैं एक श्लोक ता हैं -
                                " अस्व नेति गजं नेति व्याग्रः नेति  च नेति च
                            अजा पुत्रम बलि   दध्यात देवों दुर्बल घात्मस्चा "



इसका अर्थ ये हैं की -  दुनिया मैं हमेशा कमज़ोर ही प्रताड़ित होता हैं कमज़ोर ही शिकार होता हैं कमज़ोर और गरीब ही  बली होता  हैं  कमज़ोर को हर कोई परेशान करता हैं उसका उपयोग करता हैं वही सताया जाता  हैं कमज़ोर का कोई अस्तित्व नहीं होता उसकी कोई इच्छा नहीं होती क्योकि उसमे विरोध करने की शक्ति नहीं होती साहस  नहीं होता कमज़ोर प्रतिकार नहीं कर सकता और कर भी दे तो जीत नहीं सकता उसका प्रतिकार सफल नहीं हो सकता क्योकि वो शक्तिहीन  होता हैं बलहीन होता हैं .

इस श्लोक का अनुवाद - घोड़े की बलि नहीं दी जाती हाथी की बलि नहीं दी जाती और सिंह की बलि नहीं नहीं सिंह की बलि तो असम्भव हैं देवताओं  को भी  अजा ( बकरा ) जेसे निर्बल प्राणी की ही बलि दी जाती हैं लगता हैं जेसे देव स्वयं भी  निर्बल की  ही  घात करते हैं. 

"स्वामी विवेकानंद ने  कहा हैं -
 बल ही जीवन हैं निर्बलता मृत्यु,
                              बल ही परम आनंद हैं सात्विक और अमर जीवन "

सूजे हुये चेहरे


संस्कार((संस्कृत्ति ), सहयोग,स्वभाव,विकार(विकृत्ति ) ,प्रहार ,प्रतिकार,मे हम किस प्रकार भेद कर सकते है
इस विषय को हम इस तरह समझ सकते है 
जैसे कोई व्यक्ति अपने हाथ से दूसरे व्यक्ति को भोजन खिलाता है
हाथ की इस प्रव्रत्ती को हम संस्क्रति अर्थात संस्कार कहेंगे
हाथ मदद के लिये आगे बढे तो
हाथ की इस व्रत्ति को सहयोग वृत्ति  कहेंगे
जब हाथ अपनी प्रतिरक्षा मे सामने वाले व्यक्ति पर उठे
और  सामने वाले व्यक्ति के गाल पर सकारण थप्पड़ मारे
हाथ की इस प्रवृत्ति  को हम प्रतिकार कहेगे
जब हाथ किसी व्यक्ति पर अकारण आक्रमण करे
तो इस प्रवृत्ति को प्रहार कहेंगे
जब वही हाथ अपने उदर पोषण हेतु अपने मुख को भोजन का निवाला दे
इस व्रत्ति को हम स्वभाव कहेंगे
जब वही हाथ व्यक्ति अपने गाल पर थप्पड़ मारे
तो इस प्रव्रत्ती को हम विकृत्ति  अर्थात विकार कहेंगे
आज हमारे परिवेश मे व्यक्ति,समाज,देश जिस प्रवृत्ति से गुजर रहा है
वह विकृत्ति  या विकार का दौर है
प्रत्येक ,व्यक्ति,संस्था ,समाज,समुदाय अपने हाथो से
अपने हाथो से अपने गालो पर थप्पड मारे जा रहे है
हमारे सामाजिक ,वैयक्तिक चेहरे इस विकार के कारण सूजन लिये हुये है
जो सबसे बुरी स्थिति है
सूजे हुये चेहरे को लेकर हम व्यक्तिगत ,सामाजिक ,राष्ट्रिय उत्थान की चर्चाये किये जा रहे है
परिणामस्वरूप शब्द अपने अर्थ और प्रभाव खो चुके है