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Tuesday, October 16, 2012

गहराई


जीवन में जितनी ऊँचाई सार्थकता रखती है
उतनी गहराई सार्थकता रखती है
व्यक्तित्व में जितनी
ऊँचाई आवश्यक नहीं
उतनी गहराई आवश्यक है
बिना गहराई लिए ऊँचा लंबा व्यक्ति हो
व्यक्तित्व हो या ईमारत  उसका आधार कमजोर होता है
गहरा चिंतन ,गहरा सोच ,गहरी योजनाये ,गहरी भावनाए ,
व्यक्ति को शांत और सौम्य बनाती है
जबकि व्यक्तित्व का उथलापन व्यक्ति को चंचल और और अस्थिर बनाता है
जीवन में समग्रता प्राप्त करने के लिए
कठोर परिश्रम के साथ विषय तथा तथ्य के प्रति गहरा अध्ययन अनिवार्य है
भक्ति हो ,प्रीती हो ,या नीति हो उसमे गहराई से डूब जाना होता है
इसलिए गहराई से डरने की नहीं सवरने की आवश्यकता है
समग्र गहराईया  जब हम अपने व्यक्तित्व में समा लेते है
तो हम स्वयं को सामर्थ्यवान और सशक्त बना लेते है
आशय यह है की सागर की तरह गहरा और सुधीर बनो




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उत्थान या पतन

उत्थान या पतन परस्पर विरोधी शब्द है
 परन्तु उनके भावार्थ बहुत गहरे और व्यापक है
उत्थान जहा व्यक्ति ,वस्तु,समाज को के ऊपर  उठने
या उठाने के प्रयास के लिए उपयोग में लाया जाता है
जबकि पतन का आशय इसके विपरीत किसी भी दृष्टि से
नीचे गिरने के लिए प्रयोग में लाया जाता है
किन्तु कभी कभी पतन में उत्थान निहित होता है
तो कभी  उत्थान में पतन निहित होता है
यह  व्यक्ति व्यक्ति की समझ  का अंतर होता है
झरने का पतन जहां प्रकृति में सौन्दर्य ,जल में प्रवाह उत्पन्न कर देता है
वही वर्षा में बारिश की बूंदों का धरा पर पतन
 सृष्टि को हरियाली से आच्छादित कर देता है
हिम शिखर से सरिता का पतन मैदानी भागो को
उपजाऊ बना देता है
दूसरी और महानगरो में अट्टालिकाओ का उत्थान
हरीतिमा को निगल कर जलवायु पर्यावरण को क्षति कारित कर देता है
अहंकार से उत्थित मस्तक व्यक्ति को पतन की और पहुंचा देता है
जबकि स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान से उठा मस्तक
 आत्मनिर्भरता की और व्यक्ति को अग्रसर करता है
कहा गिरना? कैसे गिरना? पतन किन कारणों से होना ?
इस तथ्य पर पतन की सार्थकता और निरर्थकता होती है
आदर्शो और सिध्दान्तो की रक्षा करते करते
कई राज्य साम्राज्यों  का पतन हुआ 
लेकिन उनके पतन ने इतिहास में अपना अनोखा  स्थान
बनाया अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया 

कई वीरो के मस्तक रणभूमि में अपने मातृभूमि के लिए  गिरे
गुरुचरणों में महापुरुषों के सम्मुख मस्तक का पतन
व्यक्ति को उत्थान की राह की और ले जाता है
व्यक्ति का चारित्रिक पतन उसे कुमार्ग ,कुसंगति ,कलुष
 ,कुकर्म की और ले जाने वाला होता है
प्राचीनकाल में विन्ध्याचल पर्वत के  दिनों दिन होते उत्थान
प्रकृति और समाज के लिए संकट बन गया था
जिसे रोकने के लिए महर्षि अगस्त्य को उपाय करना पडा
कहने का आशय यह है की पतन सदा निरर्थक नहीं होता
और उत्थान यदि जन कल्याण लोक कल्याण हेतु न होकर
निज स्वार्थो की पूर्ति तक सीमित रहे तो
वह सार्थक नहीं होता