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Monday, December 19, 2011

सतयुग कलयुग और शिवत्व


बार बार मन -मस्तिष्क मे यह प्रश्न उठता है कि कलयुग और सतयुग मे अन्तर क्या है
अच्छे बुरे लोग सतयुग मे भी थे और कलयुग मे भी है
इसका उत्तर किसी भी विचारक से सन्तोषप्रद नही मिल पाता है
चिन्तन करने पर इसका जबाब अन्तरात्मा देती है कि सतयुग को सतयुग इसलिये कहा जाता था कि
उस समय सत्य और असत्य मे भेद करना आसान था
इस युग मे सत्य और असत्य का मिश्रण इस प्रकार से तथ्यों मे रहता है
कि उनमे भेद करना अत्यन्त दुष्कर कार्य होता है
सतयुग मे व्यक्ति की कथनी और करनी मे कोई अन्तर नही होता था
इस युग मे व्यक्ति कि कथनी और करनी मे भारी अन्तर होता है
इसलिये पुरातन युग मे इतनी जटिल न्याय व्यवस्था की आवश्यकतानही थी कि
सारे तथ्य दर्पण के समान स्वच्छ दिखाई देते थे
किसी भी घटना मे सत्य के अनुसंधान के विशेष प्रयास नही करना पडते थे
इस युग जिसे कलयुग कहते है मे किसी भी घटना अथवा विषय वस्तु के विवाद मे
सत्य असत्य मे इस प्रकार से मिश्रित रहता है कि सत्य को असत्य से प्रथक करने के लिये
सम्पूर्ण ज्ञान कौशल और अनुभव अन्वेषण द्रष्टि का उपयोग आवश्यकता होता है
अन्यथा असत्य सत्य का रूप धारण कर सत्यान्वेषी को भ्रमित कर सकता है
आशय यह है कि न्याय कर्म एवम अन्वेषण कर्म मे उस तीसरे नैत्र की आवश्यकता होती है
जिसे हम शिव जी का तीसरा नैत्र कहते है
जो तथ्य व्यक्ति के दो नैत्र नही देख पाते
उनको देखने के लिये अनुभव ,ज्ञान ,अन्तः चेतना के तीसरे नैत्र की आवश्यकता होती है
तीसरे नैत्र की द्रष्टि पाने हर किसी के लिये संभव नही
इसके लिये व्यक्ति को शिव सा व्यक्तित्व अंगीकार करना पडता है
इसलिये शिव को सत्य के साथ जोडा जाता है
जो सत्य शिव सी द्रष्टि से देखा जाता है वह सत्य बाहर और भीतर दोनो और से सुन्दर होता है
अर्थात उसमे पूर्ण सौन्दर्य का वास होता है
वह व्यक्ति जिसने शिव सी द्रष्टि प्राप्त कर ली वह कभी भ्रमित हो ही नही सकता
इसलिये कलयुग पर विजय प्राप्त करने के लिये शिवत्व धारण करना ही होगा