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Tuesday, February 26, 2013

मन्त्र यंत्र तंत्र


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मन्त्र यंत्र तंत्र का प्रयोग अक्सर तांत्रिको द्वारा किये जाने वाले 
कर्म काण्ड अनुष्ठानो के लिए किया जाता है
परन्तु उक्त शब्दों का हमारे दैनिक जीवन किये जाने वाले
नित्य कार्यो उनकी भूमिकाओं से बहुत अधिक होता है
जीवन में किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने सूत्र ही मन्त्र यंत्र और तंत्र है
उक्त सूक्त गणितीय सूत्र है जो जीवन की बड़ी से बड़ी कठिनाइयो पर
विजय प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है
हम जीवन में असफलता प्राप्त क्यों करते है
क्योकि बिना मंत्रणा बिना किसी योजना के हम कार्य प्रारंभ कर देते है
मन्त्र को प्रथम स्थान पर रखने का तात्पर्य यह है
की सर्वप्रथम किसी भी कार्य योजना को क्रियान्वित करने के पूर्व
उसके सभी पहलुओ पर अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए
यंत्र का तात्पर्य यह है की सोचे गए कार्य की अपने मन में
रेखा चित्र खीच लेना चाहिए तदपश्चाद  वांछित लक्ष्य की और 
अग्रसर होने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ कर लेना चाहिए 
हमारे यत्न ठीक उसी प्रकार होने चाहिए 
जिस प्रकार पूजा में रखे जाने वाले ताम्र यंत्र पर बने 
रेखाचित्रअलग -अलग कार्यो के लिए अलग -व्यूह रचना दर्शाते है
क्योकि बिना व्यूह रचना बिना रण-नीती के 
इच्छित कार्य शीघ्रता एवं पूरी कुशलता के साथ 
सम्पन्न नहीं किया जा सकता है  
तंत्र अर्थात किसी कार्य को मूर्त रूप देना 
अर्थात धरातल पर कल्पना को साकार करना
मन्त्र यंत्र के पश्चात तंत्र की और अग्रसर होने का आशय भी यह है 
कि सम्पूर्ण तैयारी के पश्चात ही किसी कार्य को मूर्त रूप देना चाहिए 
अन्यथा योजनाये विफल होने कि संभावना रहती है 
 

Wednesday, February 20, 2013

कल्पना और सच्चाई






  कई बार व्यक्ति कल्पना को ही सच समझने लगता है  और वही उसके लिए सच्चाई बन जाती हैं यहा तक की वास्तविक जीवन मैं उसकी कोई रूचि ही शेष नही रहती वह अपनी उन्ही कल्पनाओ को अपना वास्तविक जीवन बना लेता हैं और उसी में खुश रहता हैं 
कल्पना और स्वप्न  दोनों मे ज्यादा अंतर  नहीं हें कल्पना हमारी सोच पर हमारी रचना होती हें और सपना हमारे दिमाग की रचना होती हैं जिसे हम नही हमारा दिमाग रचता हैं उन पर हमारा बस नही हें इसीलिए सपने अच्छे व बुरे किसी भी रूप मे आ जाते हें ये हम तय नही कर सकते और कुछ लोग उन सपनों को ही हकीकत की संज्ञा दे दे ते है वो सपनों में ही जीने लगते हे उसमें कुछ बुरा भी नही, पर वास्तिवक जीवन को भुलाकर कल्पना और सपनों मे जीना खुद अपने को छलना हें क्योकि अगर सच में प्यास लगी हो तो सपनों और कल्पनाओ के जल से वो प्यास नही बुझ सकती उस प्यास को तो वही जल मिटा सकता हैं जिसका अस्तित्व सच में  हो ना की कल्पना में 
इसी  तरह कुछ  लोग भ्रम में जीने लगते हैं अपने चारो और भ्रम का ऐसा मायाजाल रच लेते हें और उसी को सच मान बैठते है जबकि वो उसके लिए सही नही हैं और जब कोई उसका अपना उसका हितेषी उसे सच्चाई का बोध करता हें तो वह उसे नही मानता और उस हितेषी को ही गलत साबित करने लगता हैं और तो और उस पर क्रोधित भी हो जाता हैं।
पर इस में खुद उसका ही अहित हें यदि किसी चीज़ को पाना हैं तो कल्पना लोक मैं उसकी रचना करना गलत हें उसके लिए कर्म करना पड़ता हें परिश्रम करना पड़ता हें पसीना बहाना पड़ता हें तब जाकर वह वस्तु या लक्ष्य मिलता हें अच्छा समय कभी नही आता उसका इंतज़ार करना और तब तक कल्पनाओ में जीना मुर्खता हैं उसे तो पुरुषार्थ के बल पर लाया जा सकता हैं 
क्योकि कल्पना और स्वप्न मैं जीना ठीक उसी तरह हैं जेसे कोई जन्मांध रंगों की व्याख्या करे।

Tuesday, February 19, 2013

भगवान श्रीक्रष्ण की रानीया और तत्व ज्ञान




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श्री क्रष्ण जो ईश्वरीय अवतार थे की मुख्य रूप से तीन रानीया थी
प्रथम रूक्मणी द्वितीय सत्यभामा तृतीय जाम्बवती
तीनो से विवाह प्रसंग की कथा अलग-अलग प्रकार की है
रूक्मणी जो क्षत्रिय कन्या थी से विवाह हरण कर किया था
सत्यभामा जो वैश्य कन्या थी से विवाह का कारण मणि
के चोरी के आरोप से मुक्त होने के प्रयास का परिणाम था
जाम्बवती ॠक्षराज जाम्बावान की पुत्री थी
जो वनवास मे निवास करते थे से भी मणी चोरी के आरोप से
 मुक्त होने का प्रयास ही था
राधा जो भगवान की परम प्रेयसी थी 
से भगवान क्रष्ण ने विवाह नही किया
वह आजीवन  उनके ह्रदय मे रही
उपरोक्त रानीया और प्रेयसी राधा तो प्रतीक है
प्रतीको मे निहीतार्थ को समझना आवश्यकहै
राधा जो प्रेम तत्व का प्रतीक है का आशय यह है कि
प्रेम को सांसारिकता के संस्कारो की आवश्यकता नही रहती
उसे सदा ह्रदय बसाये रखना चाहिये
इसलिये राधा से भगवान क्रष्ण ने विवाह नही किया था
जाम्बवती भगवान के चरणो मे एक भक्त की भेट है
ॠक्षराज जाम्बवान जो भगवान विष्णु के परम भक्त थे
ने पराक्रम मे भगवान के अंश श्रीक्रष्ण से समान रूप से सामना किया
उसके बावजूद भक्ति भाव से ओत -प्रोत होकर फिर चोरी
हुई मणी सहित अपनी पुत्री जाम्बवती को भगवद चरणो को समर्पित कर दिया
भक्ति अहंकार विहीन होती समर्पण भक्ति का भाव होता है
इसीलिये जाम्बवती रानी रहते हुये भी पूर्ण समर्पण भाव से
भगवान क्रष्ण के प्रति पूर्ण रुपेण समर्पित रही
सत्य भामा जो वास्तव मे सत्य का भ्रम था
अर्थात कोई तथ्य सत्य नही होने के बावजूद सत्य होने का भ्रम पाल लेना
स्वयम मे सत्य समाहित होने का भ्रम होना सत्य भामा कहलाता है
सत्यभामा जो वैश्य की पुत्री थी के पिता ने यह भ्रम पाल लिया था
कि वह जो कह रहा है वही सत्य है वास्तव पूरे विश्व मे वह ही धनाढ्य है
इस भ्रम के कारण उसने सत्य के साक्षात स्वरूप भगवान श्री क्रष्ण को 
असत्य ठहराने मे संकोच नही किया 
भगवान क्रष्ण ने जब उसके भ्रम का निवारण किया
तब सत्य भामा के पिता ने अपने सारे भ्रम ईश्वर को समर्पित कर दिये
वर्तमान मे भी हम परिवेश मे ऐसे व्यक्तियो को देखते है
जो अकारण भ्रम पाल लेते अनेक प्रकार की आशंकाओं से ग्रस्त रहते है
दूसरो लोगो पर अकारण आक्षेप लगाते रहते
ऐसे व्यक्तियो के लिये सत्यभामा का प्रसंग अनुकरणीय है
रूक्मणी का हरण भगवान क्रष्ण को इसलिये करना पडा था
क्योकि रूक्मणी राज कुमारी होकर पराक्रमी राजा रुक्मी की बहन थी
भगवान क्रष्ण ने रुक्मी के अहंकार को नष्ट करने के लिये
रुक्मणी का हरण किया था
अहंकार की भावना नष्ट होने के बाद सौन्दर्य और सम्रद्धि की प्रतिमूर्ति
रूक्मणी भगवान क्रष्ण की जीवन संगीनी बनी और सदा उनके निकट रही
तात्पर्य यह है व्यक्ति को अहंकार से ग्रस्त नही रहना चाहिये
अहं भावना से ग्रस्त व्यक्ति से भगवान सब कुछ हर लेते है
जिस व्यक्ति मे अहंकार का नाश हो गया हो 
उसे सौन्दर्य सम्रद्धि और  आत्मीयता प्राप्त होती है



Monday, February 18, 2013

सफलता और लक्ष्य


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सफल व्यक्तियो की जीवनीया
प्रेरणा और उत्साह ग्रहण करने के लिये होती है
असफल व्यक्तियो के जीवन पर द्रष्टिपात किया जाना भी
इसलिये आवश्यक होता है
ताकि जो त्रुटिया उन्होने की वे त्रुटिया हम न करे
छोटी छोटी सफलताये कम महत्वपूर्ण नही होती
वे बडी सफलताये बडे लक्ष्य प्राप्त करने के लिये मार्ग प्रशस्त करती है
हमारे आस -पास अच्छे विचारो और संस्कारो के समूह रहने चाहिये
जो जीवन मे सफलताये सुनिश्चित करते है
विकार ग्रस्त व्यक्तियो का सम्पर्क व्यक्तित्व को विकृत कर देता है
शनैः शनैः हम पतन की ओर व्यक्ति चला जाता है
सफलता के सीमीत कारण और असफलता के अनेक असीमीत कारण होते है
सफलता को हर व्यक्ति अपनी साधना और परिश्रम का फल बताता है
जिन व्यक्तियो का किसी के जीवन मे कोई योगदान नही होता
वे भी सफल व्यक्ति की सफलता के पीछे स्वयम को मानते है
परन्तु असफलता और असफल व्यक्ति को लोग नही जानते है
असफल व्यक्ति असफलता के कई कारण मानते है
यदि जीवन मे सफल होना चाहते हो
तो निरन्तर सकारात्मक उर्जा के स्त्रोत प्रतीको के समीप रहो
सकारात्मक उर्जा के प्रकाश का अनुभव कर भीतर तक प्रद्दीप्त रहो
सफलता के कारण बाहरी और भीतरी चेतना मे व्याप्त है
चेतना का हमारा बाहरी और भीतरी स्तर जितना अधिक होगा
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता की मात्रा और गुणवत्ता उतनी ही अधिक होगा
उतने ही अधिक ऊँचे लक्ष्य प्राप्त होने की और हम अग्रसर होगे

Friday, February 15, 2013

निर्भीक: * बसंत के मायने * इस बसंत के मौसम ...

निर्भीक:


* बसंत के मायने *
आसमान के तारो में अपने मन की टूटन मत देखो
गहरी अँधेरी रातो में अपनी सुन्दर आँखे मत सेंको
जिंदगी टूटन नहीं ख्वाहिशो का सिलसिला है
जमाने क्या मिला है क्या नही मिला है मत बहको










इस बसंत के मौसम ...
: * बसंत के मायने * इस बसंत के मौसम में चारो और गोदावरी गुलमोहर सरसों के कई तरह के फुल खिलते महकते हैं चारो और अपनी सुन्द...

वसंत पंचमी


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वसंत पंचमी के दिन माता सरस्वती की पूजा की जाती है
वर्तमान मे धन का महत्व होने के कारण
बुद्धि और ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा करने के स्थान पर
माता महालक्ष्मी की पूजा को प्रधानता देते है
परन्तु यह तथ्य भूल जाते है कि
त्रि-देवीयो मे महालक्ष्मी का स्थान मध्य मे रहता है
महालक्ष्मी जी के एक और माता सरस्वती
दूसरी और महाकाली विराजमान रहती है
अर्थात माता महालक्ष्मी को
एक और बुद्धि का दूसरी और बल का संरक्षण प्राप्त होना चाहिये
बल का संरक्षण प्राप्त होने पर धन की सुरक्षा तो हो सकती है
परन्तु स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति और उसमे वृद्धि नहीं हो सकती है
कहते है व्यक्ति को श्री हीन होने का प्रथम लक्षण 
उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाना होती है
व्यक्ति तरह-तरह के व्यसनो मे लिप्त हो जावे तो
विरासत मे प्राप्त सम्पदा का भी शनैः शनैः क्षरण होने लगता है
इसलिये धन को स्थिरता प्रदान करने हेतु
माँ  सरस्वती का आशीर्वाद भी व्यक्ति के शीश पर होना चाहिये
वसंत पंचमी का महत्व इसलिये भी है कि
ऋतुओ का राजा वसंत को कहा गया है
वसंत ऋतुस्वास्थ्य की द्रष्टि से उत्तम मानी गई है
जिसका स्वास्थ्य अच्छा हो उसके तन मन मे
किसी प्रकार के विकार नही होने चाहिये
व्यक्ति शारीरिक विकारो से मुक्त हो सकता है
मानसिक विकारो से मुक्त होना प्रत्येक व्यक्ति के लिये संभव नही है
मानसिक विकारो से मुक्त होने के दो ही उपाय है
या तो वांछित अभिलिषीत वस्तुओ की प्राप्ति
या इन्द्रियो पर विजय प्राप्त करके विकारो का शमन करना
वसंत ऋतु मेनियंत्रित नियमित जीवन जीते हुये
अच्छे स्वास्थ्य का लाभ उठाकर
मानसिक विकारो का शमन करने का पर्व भी है





Tuesday, February 12, 2013

आत्मकेंद्रित व्यक्ति

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व्यक्ति आत्म केद्रित हो तो वह निर्णय सही नहीं ले सकता
आत्म केन्द्रित व्यक्ति की दृष्टि अत्यंत संकीर्ण होती है
ऐसे व्यक्ति को समग्र हित की चिंता नहीं होती
व्यक्ति में दो प्रकार की भावनाए होती है
स्वार्थ और परमार्थ घोर स्वार्थी व्यक्ति मात्र स्वयं के हित की चिंता करता है
जैसे जैसे स्वार्थ का विस्तार स्वयम से परिवार
परिवार से समाज ,समाज से राष्ट्र की और होता जाता है
स्वार्थ परमार्थ में परिवर्तित होता है
समाज में हम देखते है की कुछ लोग जीवन भर
स्वयं के सुख की चिंता में लीन रहते है
उन्हें दूसरो के सुख दुःख से कोई अंतर नहीं पड़ता
ऐसे व्यक्ति के सारे निर्णय आत्मकेंद्रित होते है
ऐसे व्यक्तियों को स्वयं के दुःख पहाड़ जैसे दिखाई देते है
अपने दुखो के सामने अपने परिजन के दुःख उन्हें बौने प्रतीत होते है
यह सच है की यह भावना प्रत्येक व्यक्ति में अलग -अलग अनुपात में होती है
एक उम्र तक प्रत्येक व्यक्ति में यह भावना होना सामान्य बात है
परन्तु कुछ लोग जीवन भर इसी भावना से ग्रस्त रहते है
उन्हें अहसास भी नहीं होता कि उनकी इस भावना के कारण
उनके परिजन कितनी मानसिक पीड़ा से गुजरते होगे
परन्तु उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता
ऐसे आत्म केद्रित व्यक्तियों से भिन्न समाज में आशा कि किरण के रूप में
ऐसे व्यक्ति भी दिखाई देते है जिनकी उम्र पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों
उठाते गुजर गई एक के बाद एक जिम्मेदारिया इस तरह से उठाते गए कि
उन्हें स्वयं के दुःख अनुभूति नहीं हुई और
सुख भोग लेने कि इच्छा भी जाग्रत नहीं हुई
इस विषय में हम ऐसी लड़कियों कि भूमिका को भी समाज में देखते है
जो अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय अपने परिवार को दे चुकी है
शनै शनै उनकी विवाह कि आयु कब निकल चुकी होती उन्हें पता ही चलता
परन्तु परिवार के प्रति परमार्थ कि भावना
उन्हें स्वयम के बारे में सोचने का अवसर ही नहीं देती



Monday, February 11, 2013

शिष्टाचार और आत्मीयता


शिष्टाचार और आत्मीयता दोनों में बहुत भिन्नता है
आत्मीयता में दिखावा नहीं अपनापन होता है
जबकि शिष्टाचार कृत्रिम आवरण को ओढे मानवीय आचरण होता है
शिष्टाचार में औपचारिकताये अधिक होती है
संबोधन भले ही सम्मान जनक हो
पर दिलो में दूरिया दर्शाते है
वर्तमान में रिश्तो में आत्मीयता का स्थान
औपचारिकताओं ने ले लिया है
व्यवहार कुशलता का छद्म आवरण व्यक्ति की कुटिलता को छुपा लेता है
पर स्वभाव में स्वाभाविक सहजता सरलता
आत्मीयता को छुपा नहीं सकती
वह तो कभी गोकुल की गोपियों की तरह
तो कन्हैया की मैया यशोदा की तरह
भावनाओं का मीठी मिश्री और मख्खन की अनुभूति करा ही देती है
जब नदियों पर बढे -बढे घाट बने
 नदियों से हमारे आत्मीय सम्बन्ध समाप्त हो चुके है
घाट पर कर्म काण्ड अनुष्ठान हो सकते है
परन्तु नदी के कल कल बहते जल का ममत्व तो
निर्मल तटों से ही प्राप्त हो सकता है
हमें शिष्टाचार के घाटो से पुन आत्मीयता के तटों की और लौटना होगा
तभी हम रिश्तो के भीतर नदी के कल कल प्रवाह की तरह चलते और पलते
दुःख और सुख की अनुभूति कर पायेगे

Friday, February 8, 2013

गुणो की परिक्षा


व्यक्ति के गुणो की परिक्षा अनुकूलताओ मे नही प्रतिकूलताओ मे होती है
मित्रो और रिश्तो की परिक्षा विपदाओ मे होती है
ज्ञानी के ज्ञान की परिक्षा ज्ञान के प्रयोग और प्रचार से होती है
कर्मकार के शिल्प की परिक्षा शिल्प की जीवन्त हो जाने से होती है
वीरो के बल की परिक्षा धैर्य और साहस से होती है
स्त्री के चरित्र की परिक्षा रुपवान होने पर होती है
स्त्री के रुप की सार्थकता आंतरिक सौन्दर्य से होती है
व्यवहार की कुशलता की परिक्षा
अपरिचित व्यक्तियो के बीच सफलता पूर्वक
सामंजस्य स्थापित करने से होती है
व्रत और उपवास की सार्थकता व्रत्तियो पर नियंत्रण करने पर होती है
म्रदु भाषा की सार्थकता किसी के हित पर निर्भर होती है
सत्य वचन जब तक तथ्य पर आधारित न हो खरा और सत्य नही होता
कटुता वैमनस्यता का कारण जरूर हो सकती है
पर कटू वचन सदा अहित कर नही होते
दुर्बल वे व्यक्ति है जो सदा असुविधाओ और साधन हीनता का रोना रोते
दरिद्र वे व्यक्ति है जो मन से दरिद्र है
धनवान धन से नही होते धन के सद उपयोग होते है

Tuesday, February 5, 2013

प्रभु कृपा


शान्ति और अहिंसा एक दूसरे के पर्याय है
शान्ति के लिए अहिंसक होना अनिवार्य है
शान्ति भीतर से बाहर की और आती है
बाहर आकर चहु और छा जाती है
जो शान्ति को बाहर की और खोजता है
वह बुध्द की और नहीं अशांति की और लौटता है
जो व्यक्ति भीतर से जितना शांत है
वह उतना अहिंसक है
अशांत व्यक्ति वाचाल है आक्रामक है हिंसक है
मानसिक हिंसा भी होती अति क्रूर है
घृणा, क्रोध, प्रतिशोध से होती वह भरपूर है
मानसिक हिंसा में रहते दुर्विचार है
निष्ठुरता ,हैवानियत करती वह अंगीकार है
मानसिक रूप से हिंसक व्यक्ति
संकल्प और विकल्प में कितनी बार खुद मरता है मारता है
जीत के भ्रम में जीवन की कई लडाईया रोज-रोज हारता है
समग्र विजय के लिए व्यक्ति के भीतर शान्ति होना जरुरी है
शांत व्यक्ति की शान्ति ही उसकी शक्ति है सफलता की धुरी है
शांत व्यक्ति पर रहती प्रभु कृपा है
अशांति में आदमी उग्र होकर जीवन में मरा खपा है
इसलिए शांत रह कर गहन शांति में प्रभु कृपा पाओ
शान्ति बाहर से नहीं भीतर से बाहर लाओ

Sunday, February 3, 2013

महंगाई का उपाय



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महंगाई के इस दौर में बाजार में जाकर खरीददारी करना
बहुत चुनौती पूर्ण है
विशेष कर उन व्यक्तियों के लिए और भी अधिक तकलीफ देह है
जिनके लिए खरीददारी करना
आवश्यकता ही नहीं अपितु शौक और जूनून है
हमारे समाज और परिवार में परिवेश ऐसे लोगो की कमी नहीं है
जो खरीददारी को एक कला का दर्जा दे चुके है
वे खरीद दारी को पूजा के सामान पवित्र कर्म मानते है
भले ही उनकी क्रय शक्ति कितनी भी कम हो जाए
पर वे यह पुनीत कर्म करने से नहीं चुकते
अल्प क्रय शक्ति वाले व्यक्तियों के लिए सब्जी मंडियों से लगा कर
हाट बाजार प्राण वायु का कार्य करते है
छोटी -छोटी आवश्यकताओं की वस्तुए
उन्हें उनकी प्रतिभा परिष्कृत किये जाने में सहायक होती है
खरीद दारी किये जानेके उपरान्त किस व्यक्ति को कितनी मात्र में
संतुष्टि हुई यह उनके चहरे पर पढ़ी जा सकती है
सब्जियों की खरीद दारी के आनंद तो उन्हें ऐसे आता है
जैसे उन्हें कोई गढ़ा हुआ खजाना मिल गया हो
जब कभी किसी सब्जी क्रेता से वे 
किसी सब्जी का भाव -ताव करते है 
तो मानो ऐसा लगता है वे सामने वाले पर 
मनोवैज्ञानिक विजय प्राप्त करने को उतावले हो रहे हो
भाव कितने भी कम हो या ज्यादा हो
वे अंशत अपनी आशा के अनुरूप कीमत में 
कटौती करवा पाने में विजय समझते है
इसलिए ऐसे व्यक्तियों को दूर से आता देख कर
क्रेता गण वस्तुओ के मुल्य कृत्रिम तौर पर बढ़ा लेते है
तथापि ऐसे व्यक्ति अपनी खरीददारी को सम्पूर्णता प्रदान करने का
कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते
और क्रेता से भाव ताव करने के दौरान मुफ्त का 
मनोरंजन प्राप्त कर ही लेते है
ऐसे व्यक्तियो के जज्बे से महंगाई भी मारे -मारे फिरती है

Saturday, February 2, 2013

सीता जी का सत्याग्रह


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प्राचीन काल में हिन्दू धर्म में महान नारियो की
लम्बी श्रृंखला रही है
जब कभी विद्वता की बात आती है
तो गार्गी और मैत्रेय ऋषि पत्नियों के नाम सामने आते है
चारित्रिक गुणों के आधार पर भी नारियो ने
अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किये है
चारित्रिक गुणों के आधार पर महान स्त्रियों को
सतियो के रूप में संबोधित किया है
महान सतियो में दैत्य कुल की स्त्रिया भी थी
जिनमे दशानन की पत्नी मंदोदरी
मेघनाथ की पत्नी सुलोचना ने जो आदर्श स्थापित किये
इससे इस तथ्य को बल मिलता है
की चरित्र किसी समाज या कुल की संपदा न
होकर सार्वदेशिक गुण है
जब सतित्त्व की बात आती है तो
सती सावित्री का उदाहरण दिया जाता है
जिसने अपने पति सत्यवान के प्राणों के लिए
मृत्यु के देव यमराज से संघर्ष कर लिया था
परन्तु महानता की पराकाष्ठा को पहुचने वाली नारियो में
महान सती श्रीराम भार्या सीता एवं
 ऋषि पत्नी अनुसूया रही है
सीता जी सतीत्व अन्य नारियो की अपेक्षा श्रेष्ठ क्यों है
ऐसा इसलिए है की कोई भी नारी 
अपहरण होने की अवस्था में
स्वयं को असहाय अनुभव करती है
किन्तु सीता ने तत्कालीन दैत्य शक्ति और वैभव के द्योतक
रावण के बंदी रहते मात्र सत्य के बल पर लंबा संघर्ष किया
जिसकी तुलना वर्तमान में अहिंसक आन्दोलन
या सत्याग्रह से हम कर सकते है
सीता जी का सत्याग्रह विश्व में सत्य का सर्वप्रथम प्रयोग था
सीता जी का सत्याग्रह मात्र लंका में ही नहीं
बल्कि श्रीराम की रावण पर विजय के बाद भी जारी रहा
अयोध्या आगमन के पश्चात श्रीराम द्वारा परित्याग
किये जाने के उपरान्त
सीता जी चाहती तो अपने पिता राजा जनक 
के पास चली जाती
या प्रतिकूल परिस्थितियों में
किसी अन्य व्यक्ति का आश्रय प्राप्त कर लेती
परन्तु सीता जी ने ऐसा न कर घनघोर वन में भी
सात्विक प्रकृति के संत वाल्मीकि जी के आश्रम
को अपना आश्रय स्थल बनाया
और अपने अबोध शिशुओ का लालन पालन किया
सीता जी के जीवन का यह पक्ष उन स्त्रियों के लिए दिशा -निर्देश है जिनको पतियों द्वारा परित्यक्त किया जा चुका है