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Saturday, June 30, 2012

वेश ,परिवेश ,विसंगति

मात्र बाह्य आकार , प्रकार ,वेश या परिवेश 
किसी व्यक्ति या स्थान की वास्तविक पहचान नही करवा सकते है
वास्तविक पहचान किसी भी व्यक्ति या स्थान की
संस्कार,कर्म,एवम स्थान से जुडे
 गुण धर्म से होती है
जैसे भवन की मंदिर जैसी आकृति 
किसी भवन को मंदिर नही बनाती
जब तक कि उसमे स्थापित देव प्रतिमा न हो
और उस देव प्रतिमा के प्रति लोगो की आस्था न हो
विद्यालय मे जब तक विद्या अध्ययन न हो 
विद्यालय का भवन कितना ही विशाल हो 
सही रुप मे विद्यालय नही हो सकता
जिस प्रकार ज्ञानी का ज्ञान 
आचरण के बिना निरर्थक होता है
ज्ञानी ज्ञान को आचरण मे उतारता है
 तभी वह आचार्य कहलाता है
भगवा वस्त्र धारण करने से कोई व्यक्ति 
संन्यासी नही हो जाता
संन्यासी वह व्यक्ति भी हो सकता है 
जो भगवे वस्र नही पहनता हो
पर वह विरक्ति के भाव मे स्थिर हो गया है
गुरु वह जो स्वयम मे गुरुता का आवरण न ओढ़े अपितु
शिष्य मे स्थित लघुता को गुरूता प्रदान करे
वह गुरु जो शिष्य मे छुपी हुई क्षमता को बाहर निकाल न सके
उसके भीतर निहित सकारात्मक उर्जा को
 दिशा न दे सके
वह गुरु चाहे कितने भी शिष्य बना ले 
वह गुरू स्वयम की पूजा भले ही करवा ले
परन्तु किसी शिष्य को किसी भी प्रकार की पूर्णता प्रदान नही कर सकता
कर्म चारी कर्म न करे तो मात्र कार्यालय मे उपस्थित हो जाने से वह कर्मचारी नही हो जाता
जिस कार्यालय मे कार्य न हो
वह चाहे भौतिक रुप से कितना ही विशाल हो कार्यालय नही हो सकता
हा!वह अकर्मण्य लोगो का संग्रहालय हो सकता है
पुस्तको के संग्रह होना ही 
किसी पुस्तकालय के लिये पर्याप्त नही है
संग्रहित पुस्तके सार्थक विषयो पर होनी चाहिये
ऐसे पुस्तकालय के प्रति पाठको का सहज आकर्षण भी होना चाहिये
आश्रम  मे भौतिक सुविधा के सारे साधन उपलब्ध हो
तथा श्रम पर आधारित आश्रम वासीयो का जीवन न हो तो ऐसे  होटल नुमा आश्रम 
भले नामो के आधार पर आश्रम कहे जाते हो
पर वे अपनी सार्थकता खो चुके है
इस प्रकार प्रत्येक क्षैत्र मे स्थान या व्यक्ति की सार्थकता उसके कर्म तथा आचरण से होती है
केवल उसका बाह्य स्वरुप अच्छा दिखना 
पर्याप्त नही है
व्यक्ति का बाहरी स्वरूप या स्थान का बाहरी आवरण वातावरण को अनुकूल करने
तथा श्रेष्ठ कार्य शैली विकसित करने के लिये होता है
गणवेश जिस प्रकार से विद्यार्थियो 
एवम सुरक्षा बलो मे अनुशासन निर्मित करने के उद्देश्य से निर्धारित किये जाते है
जबकी वास्तविक अनुशासन की भावना तो 
भीतर से विकसित करनी होती है
नदि वह है जिसमे निरंतर निर्मल जल बहता हो
जिस नदि मे मात्र बारिश मे पानी बहता हो वह नाला तो हो सकती है नदि नही हो सकती
वर्तमान मे हम जिस परिवेश मे रह रहे है जिस जीवन शैली मे जी रहे है
वह नदि को नाला बनाने वाला है
हमे अपनी जीवन शैली को सुधारना होगा
अपना अस्तित्व खो चुकी नदिया जो नालो का रुप धारण कर चुकी है
मे पुनः निर्मल जल प्रवाहित हो ऐसी वातावरण निर्मित करना होगा
 
 

Monday, June 25, 2012

कर्म की आराधना

भगवान् विष्णु के जितने भी अवतार हुए है 
सभी कर्म के अवतार है
भौतिक जगत में कर्म तीन प्रकार की क्षमता से किये जाते है 

प्रथम ज्ञान द्वितीय धन तृतीय बल  
तीनो क्षमताये कर्म के बिना जड़ अवस्था में रहती है ज्ञान का प्रसार न किया जाय तो 
ज्ञान मात्र पुस्तकों एवं ग्रंथो में ही सजा हुआ रहता है ज्ञान का सक्रिय स्वरूप गुरु, शिक्षक,विद्यालय ,महाविद्यालय ,विश्वविद्यालय ,प्रयोगशालाए ,चिकित्सालय ,अनुसंधान केंद्र होते है 
इसलिए ज्ञान के देव ब्रह्मा जी अपने ज्ञान को चारो दिशाओं में चार मुखो के द्वारा विस्तारित करते है
द्वितीय क्षमता 
धन, धन की क्षमता चाहे कितना भी अधिक हो यदि वह सक्रिय अवस्था में न हो 
तो एक स्थान पर पड़ा रहता है 
ऐसा धन गड़ा हुआ धन या अवैध स्त्रोतों से अर्जित कर गुप्त रूप से रखा गया  धन होता है 
ऐसा धन काले धन की श्रेणी का  भी हो सकता है ऐसा धन जड़ अवस्था वाला धन होता है 
धन का कर्म  एवं सक्रिय स्वरूप  उद्योग ,कृषि ,व्यापार ,इत्यादि होता है 
जिसमे धन निरंतर प्रवाहमान होता है 
 इसलिए धन की देवी लक्ष्मी की अष्ट रूपों  रूपो में पूजा की जाती है 
जिस किसी रूप में पूजा की जाती है 
उसी रूप में फल देती है 
तृतीय क्षमता बल होती है
 बलवान पहलवान व्यक्ति यदि वीर ,साहसी ,दिन दुर्बल की मदद न करे तो 
उसका बल जड़ अवस्था वाला होता है 
 सक्रिय बल कर्म रूप होकर सदा अन्याय का प्रतिकार हेतु तत्पर रहता है 
तीनो प्रकार की क्षमताओं के सक्रिय रूप में ईश्वरीय तत्व समाहित होता है
 तीनो क्षमताओं के सक्रिय एवं कर्म रूप की चैतन्यता प्राप्ति हेतु 
हम ईश की साधना एवं देव दर्शन करते है 
जिससे हमारी क्षमताओं में चेतना उत्पन्न होती है और हम अपनी क्षमताओं का पूरा उपयोग कर पाते है यदि हम अपनी क्षमताओं में पूर्ण कार्य कुशलता चाहे तो हमें ओजस्विता के देव भगवान् सूर्य की भी आराधना करनी चाहिए
 क्योकि ओजस्विता से किये कर्म से ही उत्कृष्ट परिणाम प्राप्त हो सकते है
पवन पुत्र हनुमान भगवान् शिव का  कर्म रूप है
 पवन पुत्र उसी प्रकार से सक्रिय रहते थे
  जिस प्रकार से पवन निरंतर गतिमान रहती है उन्होंने अपने कर्म में पूर्ण कार्य कुशलता विकसित करने हेतु भगवान् सूर्य से ओज प्राप्त किया था

Saturday, June 23, 2012

कर्म क्षेत्र अर्जुन श्रीकृष्ण एवम गायत्री मन्त्र

 कुरुक्षेत्र में भगवान् कृष्ण अर्जुन के सारथी थे 
अर्जुन के रथ की ध्वजा को हनुमान जी थामे हुए थे ऐसा चित्र हम देखते आये है
 वर्तमान में हम भगवान् कृष्ण को खोजते है 
की वे कहा पर है
 इस विषय के सम्बन्ध में यह उल्लेख किया जाना आवश्यक है
 पहले जो कुरुक्षेत्र था 
वह आज कर्म क्षेत्र बन चुका है 
यदि  हमने हमारे मन  को हमने  ईश साधना के माध्यम से परमात्मा से जोड़ लिया तो हमारी आत्मा एवम मन अर्जुन की भाँती परिष्कृत  सुसंस्कृत हो जाएगा 
ऐसी स्थिति में जीवन का कार्य क्षेत्र 
जो कुरुक्षेत्र की तरह है 
उसमे आने वाली कौरव रूपी  दुष्प्रवत्तियो से हम सदबुद्धी रूपी श्रीकृष्ण रूपी सारथी की सहायता  से परास्त कर सकते है 
 क्योकि  जिस प्रकार श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को समय समय पर गलत निर्णय लेने से बार बार रोका था और जीवन को सही दिशा प्रदान की थी  
उसी प्रकार हमारी देह में स्थित सदबुध्दी जीवन में आने वाली कठिन परिस्थितियों में मन में आ रही किंकर्तव्य -विमूढ़ता को समाप्त कर 
सही दिशा एवम सही गति प्रदान करती है 
इस प्रकार हम जीवन के कर्म क्षेत्र में विजय प्राप्त कर सकते है अब प्रश्न यह उठता है की हम अपनी देह में स्थित सदबुद्धी रूपी भगवान् कृष्ण को 
कैसे चैतन्य रखे 
इसका मार्ग महर्षि विश्वामित्र द्वारा रचित महामंत्र गायत्री मन्त्र में निहित है
यह मन्त्र दुसरे मंत्रो की भाँती 
सांसारिक समस्याओं को समाप्त करने के स्थान पर आत्मा एवम मन का उत्थान करता है
 इस मन्त्र के माध्यम से हमने ईश्वर जो प्राण दाता दुःख हरता सुख देने वाला है 
जो शुध्द स्वरूप है 
सर्व जगत का उत्पत्ति कर्ता है से अपनी बुध्दी को अच्छे गुण कर्म स्वभाव प्रेरित किये जाने की प्रार्थना की है  

Monday, June 11, 2012

वट का वृक्ष


वट का वृक्ष भारतीय संस्कृति में पूज्य है 
क्योकि वट वृक्ष दीर्घायु होता है 
वट के वृक्ष की विशेषता होती है
कि अधिक विस्तार पाने पर 
उसकी डालिया भी जड़ का रूप धारण कर लेती है इस कारण यह वृक्ष कितना ही विराट हो जाए
अपने आकार और भार के कारण नीचे नहीं गिरता है और निरंतर विस्तार पाता जाता है 
इसकी विशालता को देखते हुए कई वन्य प्राणी और पशु पक्षी इसका आश्रय पाते है
 सृष्टि में अत्यधिक पुराने वट वृक्ष भी 
देखे जा सकते है
वट वृक्ष के सामान ही हमारे परिवारों में बुजुर्ग होते है जिनका आश्रय मात्र जीवन की समस्याओं से जूझने का साहस देता है 
परिवार के मुखिया की स्थिति भी 
वट वृक्ष जैसी होती है 
वट वृक्ष जैसी ह्रदय की विशालता होने पर परिवार का मुखिया पूज्य हो जाता है 
अन्यथा परिवार के मुखिया की संकीर्ण मनोवृत्ति उसे आदर के स्थान पर 
अनादर का पात्र बना देती है 
परिवार के बुजुर्गो में यदि वट वृक्ष की उदारता 
और ह्रदय की विशालता हो तो 
परिवार ही नहीं सम्पूर्ण समाज के लोग 
उसके निकट आकर जीवन की आश्वस्ति स्नेह एवं आशीर्वाद प्राप्त करते है 
परिवार के सभी सदस्य यदि वट वृक्ष के सामान बुजुर्गो का आदर सम्मान करे तो 
सम्पूर्ण परिवार को ईश्वरीय आशीर्वाद 
प्राप्त होगा 
ऐसी स्थिति में परिवार के बुजुर्ग 
अपने अनुभव एवं प्रभाव का लाभपरिवार के दूरस्थ सदस्यों उसी प्रकार देगे 
जिस प्रकार से वट वृक्ष अपनी दूरस्थ शाखाओं को दूरस्थ जड़ो के माध्यम से देता है

Saturday, June 9, 2012

शनि देव एवं उनका न्याय विधान

शनि देव का वर्ण काला होता है जबकि वे प्रकाश के अधिपति सूर्य के पुत्र है
शनि देव की साढे साती या ढैया क्यो लगती है
उपरोक्त बिन्दुओ पर विचार किया जाना आवश्यक है
सामान्य तौर पर हम देखते है कि
अपराध अधिकांशत अंधेरे मे घटित होते है
अपराधिक प्रव्रत्तिया अंधेरे का लाभ उठाती है
वैज्ञानिक तथ्यो से यह प्रमाणित हो चुका है कि
ब्रह्मांड मे भीतर मौजुद द्रव्य मे ९०प्रतिशत डार्क मेटर विध्यमान है
इसलिये प्रकाश के अधिपति सूर्य देव ने उनके पुत्र शनि देव को
न्याय की स्थापना हेतु नियुक्त किया है
सूर्य देव से शनि देव चाहे कितने ही दूर हो
वे अन्याय के अंधकार मे न्याय का दीप जलाये बैठे है
साढे साती और ढैया आखिर क्या है
साढे साती और ढैया शनि देव के द्वारा निर्धारित किये गये दंड के अनुपात है
क्योकि अनुपातहीन दंड देना भी अन्याय के समान होता है
किसी भी अपराध की गंभीरता अपराधी के आशय से आंकी जा सकती है
समान अपराध होने के बावजुद उनकी गंभिरता और व्याप्ति भिन्न -भिन्न हो सकती है
अपराध मे आशय निहीत हो तो दंड अधिक होता है
अपराध मे उपेक्षा या प्रकोपन का भाव हो तो दंड की मात्रा कम होती है
अपराधी मानव रचित न्याय प्रक्रिया से भले ही बच जाये
किन्तु ईश्वरीय विधान अधीन नियुक्त शनि देव की वक्र द्रष्टि से
कोई भी व्यक्ति नही बच सकता
ऐसे व्यक्ति को परिस्थितियो का दंश झेलना पडता है

Wednesday, June 6, 2012

शनि देव के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण


शनि ग्रह को न्याय का प्रतीक माना जाता है
शनि देव जो सुर्य देव के पुत्र कहे जाते है
शनि देव की माता छाया कही जाता है
वर्ण से काला रंग तथा स्निग्ध द्रव्य तेल उनको प्रिय है
​​​​ऐसी मान्यता है
ऐसा भी कहा जाता है की उनकी द्रष्टि किसी व्यक्ति पर गिर जाये तो
उस व्यक्ति के प्रतिकूल दिन प्रारम्भ हो जाते है
उपरोक्त मान्यताओं से भयभीत होने के स्थान पर हमे स्वस्थ द्रष्टि से
सोचना आवश्यक है
सूर्य देव जीवन मे ओज ,प्रकाश,पुरुषार्थ के प्रतीक है
विश्व मे कोई भी ओजस्वी ,यशस्वी,पुरुषार्थी व्यक्ति हो
उसकी प्रष्ठभूमी को हम गहराई एवम ध्यान पूर्वक देखे तो पायेगे कि
वह असुविधाओ केअंधेरे मे प्रकाशित हुआ है
प्रकाश रूपी प्रतिफल जो ऐसे व्यक्ति के जीवन मे दिखाई देता है
उसके उत्थान के पीछे घने अंधेरे से लिपटी हुई व्यथा कथा होती है
इसलिये सूर्य देव की जीवन संगीनी छाया कहलाती है
ऐसी छाया की कौख से ही न्याय का देव शनि देव उत्पन्न होते है
यहा यह समझना आवश्यक है कि
किसी भी व्यक्ति के जीवन मे दो पक्ष होते है ​​​​​​नकारात्मक एवम सकारात्मक
व्यक्तित्व का सकारात्मक पक्ष व्यक्ति स्वयं दिखाना चाहता है
तथा विश्व मे सहज रुप से दिखाई भी देता है
किन्तु व्यक्तित्व का नकारात्मक पक्ष जो तम के रूप मे होता है
उसे देखने और दिखाने के लिये शनि देव जैसी न्याय द्रष्टि चाहिये
और उसके दुष्परिणाम भुगतने की मानसिकता भी होनी चाहिये
हम अनुभव करते है कि व्यक्ति मे किसी भी अपराध करने के पश्चात
अपना अपराध स्वीकार करने का साहस नही होता
कुछ व्यक्तियो मे नकारात्मक प्रव्रत्तिया इतनी अधिक मात्रा मे होती है कि
उनमे अपराध बोध भी नही होता
ऐसे  व्यक्ति अपनी गलतियो को स्वीकार करने के बजाय.उन्हे न्यायोचित ठहराने लग जाते है
शनि देव से द्रष्टि न मिलाने का तात्पर्य यह है कि
व्यक्ति त्रुटिया करने के बाद प्रायश्चित्त करे
अन्यथा शनि देव की वक्र दृष्टि को झेलने के लिये तैयार रहे
क्योकि इसी जिन लोगो मे अपराध करने के बाद अपराध बोध
एवम प्रायश्चित की भावना नही होती
वे अपराध की पुनराव्रत्ती करते जाते है
पश्चातवर्ती परिस्थितियो मे वे कठोर दंड के भागी होते है
ऐसे लोग यह कहते हुये देखे जा सकते है
कि शनि की साढे साती या अढैया चल रहा है
शनि देव की दृष्टि वहा तक जाती है
जो व्यक्तित्व का कलुष पक्ष होता है
इसलिये उनका वर्ण काला होता है
शनिदेव को प्रसन्न करने के लिये सारा विश्व उन पर स्निग्ध द्रव्य चढाता है
जबकि स्निग्ध द्रव्य चढाने का आशय यह है
जीवन मे स्नेह,सौहार्द,सदभावना, संस्कार,सत्य रूपी द्रव्य संजोया जाये
जिससे सत्कर्म रूपी उष्मा पैदा होगी
वह हमारे मन का ही नही समस्त संसार का तम दूर करने मे समर्थ होगी
सर्वत्र न्यायपूर्ण समाज की स्थापना होने से शनिदेव स्वत: ही.प्रसन्न होगे
 

Saturday, June 2, 2012

अक्षर ,शब्द ,मन्त्र एवं सिध्दी

अक्षर अर्थात जिसका क्षरण नहीं हो 
एक से अधिक अक्षर मिलकर शब्द बनता है 
शब्दों का सुसंगठित समूह वाक्य होता है 
सार्थक शब्दों का समूह काव्य कहलाता है
काव्य  यदि आत्मा  को परमात्मा से जोड़े तो वह मन्त्र कहलाता है 
हम अनुभव करते है की एक मन्त्र जब सिध्द होता है  तो आस -पास के परिवेश में सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है 
भिन्न -भिन्न प्रभाव हेतु भिन्न भिन्न मन्त्र
उपयोगी होते है 
मन्त्र सिध्द कब होता है ? 
प्रारंभ में जब कोई साधक मन्त्र का जाप करता है 
तो मन्त्र परिवेश में अधिक प्रभाव उत्पन्न नहीं करता है
 यहाँ तक की मन्त्र का प्रभाव शून्य भी होना दृष्टिगत होता है साधक निराश होने लगता है 
ऐसा नहीं होना चाहिए 
मन्त्र का सीधा सम्बन्ध स्वर ,तथा ध्वनि विज्ञान से होता है  
विज्ञान ने प्रमाणित किया है 
कि जिस प्रकार से प्रकाश की गति होती है 
उसी प्रकार से ध्वनि की भी गति होती है 
प्रकाश की गति की अपेक्षा ध्वनि की गति कम होती है 
साधक जब मन्त्र साधना करता है 
तो एक निश्चित स्वर एवं ध्वनि में संतुलन निर्धारित कर मन्त्र को उच्चारित किया जाता है 
मन्त्र में निहित आशय एवं साधक में मन में चलने वाले विचार तथा पलने वाले संकल्प 
मन्त्र  की ध्वनि के साथ अनंत ब्रहमांड की यात्रा करते है 
यह देखने में आता है की कोई मन्त्र दीर्घ कालावधि अर्थात कई वर्षो के पश्चात सिध्द होता है
 मन्त्र अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ कर देता है इसका तात्पर्य यह है कि
मन्त्र में निहित शब्द एवं शब्दों में निहित अक्षर की यात्रा पूर्ण हो चुकी है
व्यवहारिक जीवन में यह अनुभव आता है
कि
हम जिस प्रकार के शब्दों का प्रयोग दूसरो के प्रति करते है 
 सामने से हमें उन्ही शब्दों में उत्तर मिलता है 
यहा पर भी शब्द में निहित अक्षर की अविनाशी प्रकृति सामने आती है
 इसलिए हमें यह ध्यान रखना होगा की 
हमें दूसरो के प्रति उन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए
 जिनकी हम अपने लिए दूसरो से अपेक्षा नहीं करते है 
हमारे नियमित व्यवहार में अच्छी शब्दावली हमारे व्यक्तित्व को सुन्दर बनाती है 
जो जीवन में हमारी सफलता का पैमाना होती है  इसलिए अक्षर की महिमा का हमें सदा स्मरण रखना चाहिए 
शब्द को ब्रहम की संज्ञा इसलिए भी दी गई है