माँ
दुर्गा जिसे नवरात्रि में
प्रसन्न करने के लिए
जप
तप व्रत अनुष्ठान किये जाते
है
कुछ
लोग स्वयम को ईश्वरीय मात्र
सत्ता के
समीपता
का अनुभव करते हुए मिथ्याभिमान
पाल लेते है
दुर्गा
सप्त शती में उल्लेख है रक्त
बीज नामक राक्षस
जिसकी
प्रत्येक रक्त बूँद से नवीन
राक्षस उत्पन्न हो जाता था
क्या
कभी हमने सोचा है की प्रत्येक
व्यक्ति के भीतर
एक
रक्त बीज विद्यमान है
जिसे
हमारे ह्रदय में विराजमान
ईश्वरीय सत्ता संहार करना
चाहती है
पर
हम अपने भीतर के रक्त बीज को
पोषण देते रहते है
परन्तु
ह्रदय में विराजमान ईश्वरीय
शक्ति को जाग्रत नहीं करते
रक्त
बीज हमारे मन में विद्यमान
कुविचार है
कुविचार
हमें करते कुकर्म की और प्रवृत्त
करते है
विचार
की श्रृंखला एक बार प्रारम्भ
होने पर आसानी से टूट नहीं
पाती है
एक
कुविचार को कई कुविचारो और
कुकर्मो को जनक होता है
नवरात्री
में साधना के दौरान हमारे भीतर
की
दैवीय
सत्ता जैसे ही एक कुविचारो
का दमन करती है
वैसे
दूसरा कुविचार तीव्र गति से
उठ जता है
दूसरा
कुविचार को पुन दैवीय शक्ति
समाप्त करती है
तो
तीसरा कुविचार शिर उठाने लगता
है
यह
संघर्ष जब अंतहीन होने लगता
है
तो
हमें अपने भीतर स्थित माँ नव
दुर्गा का आश्रय लेना होता
है
अर्थात
क्रिया की त्रि-शक्ति
को अवलंबन लेना होता है
तब
हमारे भीतर स्थित देवीय शक्ति
मन में उठने वाले
दुष्ट
विचारों का शमन न कर वध करती
है
वध
भी इस प्रकार से करती है की
दूसरा तीसरा या कोई भी
कुविचार
पुन उत्पन्न हो ही नहीं
इस
प्रकार से हमारी नव दुर्गा
साधना सफल होकर
हमें
सच्चे अर्थो में दैवीय आशीर्वाद
प्रात होता है