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Tuesday, March 5, 2013

संतुष्टि और संतोषी माता


संतुष्टि और तृप्ति एक दूसरे की पर्यायवाची है
संतोषी व्यक्ति स्वयं तो संतुष्ट रहता ही है
सम्पूर्ण परिवार में वह अपनी संतुष्टि भावना को प्रसारित कर
परिवेश में आनंद की अनुभूति का प्रसाद बांटता रहता है
प्रत्येक व्यक्ति के संतुष्टि के स्तर अलग -अलग होते है
जो व्यक्ति जितना संतुष्ट है वह उतना ही परिपुष्ट है
संतोषी व्यक्ति अल्प मात्रा में पदार्थ की प्राप्ति को भी 
ईश्वरीय आशीष समझता है
असंतुष्ट व्यक्ति विश्व के समस्त पदार्थ मिलने के बावजूद 
स्वयम को कोरा समझता है
महिलाओं में असंतोष का भाव अक्सर गृह कलह का कारण बन जाता है
गृह कलह से परिवार में में विखंडन होने की स्थिति बन जाती है
परिवार संस्थाओं को बचाने के लिए संतुष्टि की भावना
सभी व्यक्तियों में रहे यह आवश्यक है
संतोषी माता के व्रत किये जाने के पीछे भी यही आशय है 
की परिवार की महिलाए अपने ह्रदय में संतुष्टि की भावना को बनाए रखे
संतोषी माता के प्रसाद के रूप में चने और गुड़ का उपयोग यह प्रगट करता है
व्यक्ति सहज रूप से उपलब्ध पदार्थ को ग्रहण करे अप्राप्य वस्तु या पदार्थो
के प्रति तृष्णा की भावना न रखे तो परिवार में सहज ही
 सम्पन्नता आने लगती है
अन्यथा अपनी क्षमता से अधिक व्यय कर साधनों को अपेक्षा रखने वाले व्यक्ति सेश्री और सम्पन्नता दूर होती जाती है