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Friday, November 6, 2015

असहिष्णुता

लंबे समय तक राजसत्ता का 
सुख भोगने के आदि हो चुके लोग 
जब सत्ता से बेदखल हो जाते है 
तब वे लोग सत्ता पर 
अपना नैसर्गिक और वंशानुगत अधिकार 
समझने लगते है 
विपक्षियो को सत्ता के किसी पद पर बैठा देखना 
उन्हें बर्दाश्त नहीं होता है 
ऐसे व्यक्ति लोकतांत्रिक तरीके से
 निर्वाचित व्यक्तियो को भी सिंहासन पर
 बैठा नहीं देख सकते ।
तरह तरह से भ्रामक प्रचार और उपाय कर 
वे प्रशासन पर प्रश्न चिन्ह लगाते है 
यह सोच ही सामन्तवादी 
और असहिष्णु सोच कहलाता है 
असहिष्णु और सामन्तवादी सोच वाले 
व्यक्तियो द्वारा अतीत में पोषित 
उपकृत अलंकृत और पुरस्कृत 
व्यक्तियो द्वारा भी उनके विचारो का 
समर्थन कर ऐसे सोच को 
नैतिकता का आवरण पहनाया जाता है 
समाज और देश के हालात का 
असत्य प्रस्तुतिकरण कर 
कृत्रिम समस्याओ को 
अनुचित मंचो पर उठाया जाता है
 इसी भावना को असहिष्णुता कहते है 
लोकतांत्रिक व्यवस्था से पोषित 
इस देश में अभिव्यक्ति का अधिकार 
हर व्यक्ति को है 
पर अभिव्यक्ति सीमाये
 निर्धारित भी जानी आवश्यक है 
कोई अभिव्यक्ति किसी धर्म समाज
 या व्यक्तियो के समूह की भावनाओ को 
इस हद तक अपमानित कर दे
 कि समाज में आक्रोश उतपन्न हो जाए
 तो विचारो या विचारो को किसी कृति के माध्यम से व्यक्त करने वाले व्यक्ति को 
अपनी कृति की विषय वस्तु पर  
पुनर्विचार करना चाहिए ।
जान बूझकर किसी को उत्तेजित करने के आशय से व्यक्त विचारो के पक्ष में 
यह तर्क नहीं दिया जा सकता है 
कि हमे तो संविधान ने 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है 
और वर्तमान में वैचारिक असहिष्णुता का
 वातावरण निर्मित हो चुका है

श्रीराम का संघर्ष और उसकी शुचिता

श्रीराम के पास चार कलाये 
श्रीकृष्ण के पास सोलह कलाये 
और श्री हनुमान के पास चौसठ कलाये थी
श्रीराम मर्यादा को स्थापित करने आये थे 
मर्यादित होकर सादगी पूर्ण जीवन जीने के लिए 
व्यक्ति को अपनी विशिष्टता दर्शाना
 आवश्यक नहीं होता है 
सीमित संसाधनों के बल पर 
विषम परिस्थितियों में में क्या किया जा सकता है समाज में सामूहिक चेतना जगा कर 
उसे संगठित कर अत्याचार के विरुध्द 
किस प्रकार प्रतिकार किया जा सकता है 
यह मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने प्रमाणित किया था इसके लिए श्रीराम ने वन में रहने वाले 
वनवासियों का सहयोग लिए 
अतिशयोक्ति पूर्ण भाषा में उन्हें वानर कहा गया ।वर्तमान में जो लोग नक्सलवादी सोच रखते है 
उन्हें  श्रीराम से सीखना चाहिए 
तथा अपने अभियान उसके उद्देश्य और साधनो की पवित्रता के सम्बन्ध में विचार करना चाहिए 
यदि पवित्र उद्देश्य है 
तो स्थानीय निवासियो स्थानीय संसाधनों को संघर्ष का माध्यम बनाया जा सकता है 
अपने देश की धरती पर विदेशियो से प्राप्त और शस्त्र से किया गया संघर्ष देश द्रोही बनाता है