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Friday, May 30, 2014

सम्मान श्रध्दा और आस्था

सम्मान श्रध्दा और आस्था वे शब्द है
 जो  व्यक्ति और व्यक्ति के विचारो को 
गरिमा प्रदान करता है
आस्था प्रतीकों को प्राण प्रतिष्ठित कर 
शक्तिया प्रदान करती है
कहा जाता है कि जो व्यक्ति स्वयं के लिए 
जो सम्मान चाहता है
उसे चाहिए की वह भी दूसरे व्यक्तियों के लिए
 उसी प्रकार का सम्मान जनक व्यवहार करे
यदि हम किसी व्यक्ति को सम्मानित न कर पाये 
तो कम से कम अपमानित तो न करे
श्रध्दा सम्मान की ऊपरी अवस्था है 
सम्मान शिष्टाचार का सूचक है
वही श्रद्धा व्यक्ति के व्यक्तित्व प्रति 
आदर आत्मीयता और प्रेम की प्रतीक है
कुछ लोग सम्मानीय हो सकते है 
परन्तु श्रध्देय नहीं 
सम्मान को श्रध्दा में परिवर्तित होने में 
व्यक्ति का चिंतन काफी मानसिक अवस्थाओ से गुजरता है 
यह मानसिक अवस्थाये व्यक्ति के कर्मो 
और वैचारिक अनुभूतियों पर निर्भर करती है 
सम्मानीय व्यक्ति के व्यवहार और आचरण से 
व्यक्ति को कड़वे अनुभव प्राप्त होते है 
तब सम्मानीय व्यक्ति के प्रति लोगो के ह्रदय में
 श्रध्दा के स्थान पर अश्रद्धा और घृणा उत्पन्न होने लगती है 
इसलिए किसी व्यक्ति को इतना सम्मान भी मत दो
 जिसके वह योग्य नहीं हो 
किसी को इतना  अधिक श्रध्देय मत बनाओ की 
जब श्रध्दा के आधार खंडित हो जावे तो 
व्यक्तियो की मानसिकता भी खंडित हो जावे
और प्रतीकों के प्रति आस्था भी विचलित हो जाए

Friday, May 16, 2014

शुभ कर्म

व्यक्ति कितना गुणवान हो 
उसकी एक त्रुटि सारे जीवन को कलंकित कर देती है 
व्यक्ति कितना ही पतित हो उसका एक शुभ कर्म 
उसके जीवन की दिशा बदल देता है 
रावण कितना गुणवान था विद्वान  और एक अच्छा शासक था 
उसका राज्य लंका अभेद्य और प्राकृतिक रूप सुरक्षित था
सम्पूर्ण राज्य  मे धन धान्य पर्याप्त मात्रा  मे था 
अर्थात कोई व्यक्ति निर्धन और दुर्बल नहीं था 
उसके राज्य में पराक्रमी और बलवान योध्द्दा थे 
फिर भी एक गलती ने उसे पतन के मार्ग की और धकेल दिया 
इसके विपरीत डाकू रत्नाकर 
कितना निर्दयी  क्रूर और पतित व्यक्ति था 
एक शुभ कर्म ने उसके जीवन की दिशा बदल दी और वह 
महर्षि वाल्मीकि के रूप विख्यात हुआ
पर प्रश्न यह है की शुभ कर्म भी 
इस स्तर का होना चाहिए की 
वह शेष पतित कर्मो के भार को कम कर दे 
 और कोई भी दोष की तीव्रता 
इतनी अधिक नहीं होनी चाहिए की 
 वह व्यक्ति के सदगुणो की आभा को मंद कर दे
 

Friday, May 9, 2014

कर्म और पूजा

लोग कहते है कर्म ही पूजा है 
परन्तु प्रश्न यह उठता है कि
 वह कर्म जिसे पूजां कहा जाये वह कर्म क्या है 
किसान के लिये कृषि और पशुपालन पूजा है 
व्यापारी के लिये ईमानदारी से व्यापार करना ही पूजा है 
विद्यार्थी के लिए विद्या अध्ययन करना ही पूजा है 
एक राजनेता के लिये धवल राजनीति करना ही पूजा है 
सन्यासी के लिये पदार्थो से प्रति आसक्ति नही रखना
 राग द्वेष की भावना से मुक्त रहना ही पूजा है 
कर्मचारियों के लिए अपने को सौपे गये कार्य को
 पूरी दक्षता और ईमान्दारी से करना ही पूजा है 
अधिकारियों के लिए अधिकारों और कर्तव्यों का 
समुचित निर्वहन करना पूजा की श्रेणी मे है 
घरेलु महिला के लिये घरेलु कार्य का निर्वहन करते हुये 
परिवार मे समन्वय और शान्ति बनाये रखना पूजा है 
पर क्या ऐसा होता यह है कि 
किसान, व्यापारी ,विद्यार्थी ,राजनेता ,संन्यासी 
  ,कर्मचारी ,अधिकारी ,ग्रहणी अपने -अपने कर्म को
 पूजा की तरह करे 
वास्तव में देखा यह जाता है कि  
किसान, व्यापारी ,विद्यार्थी ,राजनेता ,संन्यासी
  ,कर्मचारी ,अधिकारी ,ग्रहणी अपने अपने कर्म को 
छोडकर दुसरे कार्यो मे लिप्त हो जाते है 
आजकल राजनेता राजनीति के स्थान पर
 कूटनीति षड्यंत्र मे लिप्त है 
किसान और व्यापारी राजनैतिक आंदोलनों मे लिप्त है 
विद्यार्थी विद्या   अध्ययन  के बजाय 
अन्य प्रकार कि गतिविधियों में लिप्त है 
संन्यासी पदार्थो के प्रति आसक्ति छोड़ नही पा रहे है 
और महँगे वाहन ,इलैक्ट्रॉनिक वस्तुओ से घिरे हुये है 
कर्मचारी अपने दायित्व के अतिरिक्त समस्त
 अन्य प्रकार कि व्यवसायिक गतिविधियों में लिप्त है 
न तो सही प्रकार से सौपे गये दायित्व का निर्वहन पा रहे है 
और न ही सही प्रकार से व्यवसाय करने कि स्थिति मे है
 यही अवस्था गृहणियों कि है
 किसी भी परिवार मे समन्यव और शान्ति का 
आधार रहने वाली गृहणियां ही अशांति का पर्याय हो चुकी है 
फ़िर हम कैसे कहे कि कर्म ही पूजा है 
कर्म को पूजा कहने के पहले हमे अपने -अपने 
कर्म को समझना होगा
कर्म को पूजा कहना बहुत आसान है 
परन्तु पूजित कर्म कर पाना अत्यंत कठिन है 
 

Monday, May 5, 2014

आतंक या अनुशासन

 प्रशासन  करने के दो तरीके हो सकते है 
पहला अनुशासन , दूसरा  आतंक 
आतंक से व्यक्ति भयभीत रहता है
अनुशासित नही 
आतंक अपराधियो के लिये होता है 
जबकि अनुशासन क्षमताओ को सही दिशा और मार्गदर्शन के लिये 
अनुशासन से क्षमताये निखरती है प्रतिभाये उभरती है 
जबकि आतंक से राजकता  समाप्त होती  है 
परिवार समाज  और देश में अनुशासन बना रहे 
सर्वप्रथम प्रयास इस दिशा में होना चाहिये 
अनुशासन के प्रयास विफल हो जाने पर ही  
दंड भय का इस्तेमाल होना चाहिये 
आतंक जब अनुशासित व्यक्ति को भी 
आतंकित और भयभीत करने लग जाये तो 
उसे आतंकवाद कहा जाता है 
चाहे वह प्रशासनिक आतंक वाद ही क्यो न हो ?
अनुशासन का प्रभाव सदा बना रहता  है 
चाहे प्रशासक रहे या न रहे 
अनुशासन एका-एक विकसित नही होता 
अनुशासन विकसित करने हेतु 
एक प्रकार कि कार्य संस्कृति विकसित करना होती है 
जो प्रशासनिक निष्पक्षता से प्रारम्भ होकर
 श्रेष्ठता को सम्मानित करने की अग्रसर होती है 
आतंक पूर्ण प्रशासन मे आत्म सम्मान का कोई स्थान नही होता 
प्रत्येक व्यक्ति खुशामद करने मे लगा रहता है 
खुशामद और चापलूसों से घिरा व्यक्ति  आत्ममुग्ध  होकर अव्यवहारिक निर्णय लेता है
 ऐसा आत्ममुग्ध व्यक्ति तरह तरह कि भ्रांतियों मे
 जीता है और मरता है