सम्मान श्रध्दा और आस्था वे शब्द है
जो व्यक्ति और व्यक्ति के विचारो को
गरिमा प्रदान करता है
आस्था प्रतीकों को प्राण प्रतिष्ठित कर
शक्तिया प्रदान करती है
कहा जाता है कि जो व्यक्ति स्वयं के लिए
जो सम्मान चाहता है
उसे चाहिए की वह भी दूसरे व्यक्तियों के लिए
उसी प्रकार का सम्मान जनक व्यवहार करे
यदि हम किसी व्यक्ति को सम्मानित न कर पाये
तो कम से कम अपमानित तो न करे
श्रध्दा सम्मान की ऊपरी अवस्था है
सम्मान शिष्टाचार का सूचक है
वही श्रद्धा व्यक्ति के व्यक्तित्व प्रति
आदर आत्मीयता और प्रेम की प्रतीक है
कुछ लोग सम्मानीय हो सकते है
परन्तु श्रध्देय नहीं
सम्मान को श्रध्दा में परिवर्तित होने में
व्यक्ति का चिंतन काफी मानसिक अवस्थाओ से गुजरता है
यह मानसिक अवस्थाये व्यक्ति के कर्मो
और वैचारिक अनुभूतियों पर निर्भर करती है
सम्मानीय व्यक्ति के व्यवहार और आचरण से
व्यक्ति को कड़वे अनुभव प्राप्त होते है
तब सम्मानीय व्यक्ति के प्रति लोगो के ह्रदय में
श्रध्दा के स्थान पर अश्रद्धा और घृणा उत्पन्न होने लगती है
इसलिए किसी व्यक्ति को इतना सम्मान भी मत दो
जिसके वह योग्य नहीं हो
किसी को इतना अधिक श्रध्देय मत बनाओ की
जब श्रध्दा के आधार खंडित हो जावे तो
व्यक्तियो की मानसिकता भी खंडित हो जावे
और प्रतीकों के प्रति आस्था भी विचलित हो जाए