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Friday, October 25, 2013

कल्पना

नदी कि धारा कि तरह हो जीवन 
जिसमे बहता हुआ हो आज 
निखारा हुआ हो कल
लहरो कि तरह हो उमंगें 
जो नीचे गिरने  पर भी 
 उठने  को हो आतुर 

पर्वत कि चोटियों कि उंचाइयो सी 
महती आकांक्षा
 जिसमे नभ छूने  के हो हौसले
सागर कि गहराईयो  सी हो प्रीत
 जिसमे डूब जाए कोई प्रियतम
पवन कि चंचलता सी हो स्फूर्ति
 तन मन में जो नस नस में भर दे चेतना 
और भर पुर ऊर्जा 

पखेरू सी उड़ती  हुई हो कल्पनाये
 जो सपनो को देखती ही नहीं हो 
उन्हें बाहो में भर लेती हो
हो चन्द्रमा सी मन में हो शीतलता 
जो बिखरा दे परिवेश में शान्ति और सद्भाव 

प्रकृति के अनेक रूपो और प्रतीकों सा रहे 
मेरा मन चिंतन
तभी तो प्रकृति रूपी माता का मै  सुत  कहलाऊ
प्रकृति माँ कि गोद में रह कर 
जीवन में सहज ही अध्यात्मिकता  पा जाऊ