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Monday, December 5, 2011

वरदान या श्राप


प्राचीनकाल मे वरदान या श्राप का बहुत महत्व होता था, वर्तमान मे भी कोई परिस्थितिया ऐसी बन जाती है
जो व्यक्ति विशेष के लिये वरदान होती है या किसी व्यक्ति के लिये श्राप बन जाती है
कोई परिस्थिती जो अनुकूल हो उसे उस व्यक्ति के लिये वरदान कहा जाता है
किन्तु उस व्यक्ति के अकर्म या दुष्कर्म उसे श्राप मे परिवर्तित कर देते है
कभी -कभी किसी व्यक्ति कि प्रतिकूल परिस्थितीया उस व्यक्ति की कर्मठता
एवम समय के अनुसार अनुकूलन क्षमता उस व्यक्ति के लिये श्राप के स्थान पर वरदान का कार्य करती है
जैसे कि अधिक मात्रा मे किया गया स्वादिष्ट भोजन व्यक्ति को पुष्ट करने के बजाय बीमार बना देता है
और किसी दरिद्र व्यक्ति की दरिद्रता उस व्यक्ति के पाचन तंत्र को स्वस्थ रखती है
प्राचीनकाल मे यही स्थिति रावण ,हिरण्यकश्यप ,इत्यादी राक्षसों के साथ हुई, उन्हें अमरत्व के वरदान प्राप्त थे
किन्तु उनकी स्वेच्छाचारिता एवम उद्दंड प्रव्रत्ती ने उन्हें असमय काल ने ग्रसित कर लिया
दूसरी और महर्षि मार्केण्डेय की अल्प आयु का श्राप उनकी सतत कर्म व्रत्ती ने उन्हें अमरता प्रदान की
रुद्र अवतार पवन पुत्र को दिया गया स्म्रति लोप का श्राप उनकी शक्ती अपव्यय करने से रोकने का कारण रहा
जिसका उन्होनें उपयोग समुद्र लांघने ,लंका दहन तथा विजय मे किया
इसी प्रकार नल- नील वानरों को महर्षियों द्वारा दिया गया श्राप श्रीराम सेतु बनाने के काम आया
आशय  यह है की वरदान या श्राप उस व्यक्ति की क्षमता एवम रचनात्मकता प्रव्रत्ती पर पर निर्भर करता है
कि वह उसे किस रुप मे लेता है