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Saturday, September 29, 2012

स्वभाव मे स्थिरता

जीवन प्रबन्धन का महत्वपूर्ण सूत्र स्वभाव मे स्थिरता है
हम यह देखते है कि कुछ लोग अकस्मात क्रोधित हो जाते है
अचानक प्रसन्न चित्त हो जाते है
अचानक आतुर हो जाते है
व्यवहार मे अचानक माधुर्य बरसने लगता है
अचानक दानी,अचानक लोभी,
अचानक विरक्त,अचानक आसक्त 
कई प्रकार की परस्पर विरोधी भावनाये
ऐसे  व्यक्तियो मे प्रकट होती है
ऐसे व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अविश्वसनीय होते है
विश्वसनीयता के अभाव मे ऐसे व्यक्तियो को जीवन मे
वांछित सफलता प्राप्त नही होती है
अपवाद स्वरूप अस्थिर स्वभाव वाला व्यक्ति
प्रतिष्ठित पद पर पहुँच  भी गया हो तो वह अपने स्वभाव के
दुष्परिणाम अवश्य भोगता है
व्यवहारिक जगत मे यह भी देखने मे आता  है
कि जो व्यक्ति जितना शीघ्र प्रसन्न होता है
वह उतना ही शीघ्र नाराज भी हो जाता है
जबकी स्थिर स्वभाव वाले व्यक्ति को शीघ्र प्रसन्न करना 
संभव नही है
वह शीघ्र नाराज भी नही होता
ऐसा इसलिये होता है
क्योकि स्थिर स्वभाव वाला व्यक्ति सतोगुण से जुडा होता है
वह क्षण भंगुर तुच्छ पदार्थो से झुठी प्रशंसा  मे विश्वास नही रखता
अस्थिर स्वभाव का व्यक्ति तमो गुण से युक्त होता है
ऐसे व्यक्ति को तुच्छ पदार्थो की लोलुपता ,
झुठी प्रशंसा अत्यधिक प्रिय होती है
इस दुष्प्रव्रत्ति के दुष्प्रभाव के कारण
उन्हें जीवन मे कई बार परोक्ष अपरोक्ष रुप से 
हानिया उठानी पडती है
परन्तु वे स्वयम के स्वभाव के बारे मे चिंतन करने के बजाय
परिस्थितियो को तथा दूसरो को दोष देते है
जब हम विभिन्न क्षैत्रो मे कार्यरत सफल एवम महान व्यक्तियो के जीवन पर
द्रष्टिपात करते है तो वे स्थिर स्वभाव ,सन्तुलित व्यवहार के धनी थे
परिणाम स्वरूप उन्होने जीवन के प्रत्येक क्षैत्र मे सफलता पाई
स्थिर स्वभाव,सन्तुलित व्यवहार की प्राप्ति कैसे हो
यह चिन्तन का विषय है
कभी भी क्रत्रिमता के आवरण  से युक्त व्यक्ति 
स्थिर स्वभाव प्राप्त नही कर सकता
जीवन मे सात्विकता सच्चे अर्थो मे अध्यात्म धारण करने वाले व्यक्ति को स्वभाव मे स्थिरता प्राप्त हो सकती है
स्वभाव मे स्थिरता के कारण जीवन के बहुआयामी 
क्षैत्रो मे प्रगति होती रहती है
इसलिये यह आवश्यक  है कि हम अपने स्वभाव मे स्थिरता
और  व्यवहार मे सन्तुलन रखे
भगवान क्रष्ण द्वारा गीता मे बताये गये मार्ग पर चलते 
हुये स्थित प्रज्ञ बने
सहज रूप से भगवद प्राप्ती करे

Wednesday, September 26, 2012

क्रांति के प्रवर्तक भगवान् परशुराम




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 सत्य का सत्ता से संघर्ष सनातन काल से चला आ रहा है
    श्री परशुराम जो भगवान विष्णु के अवतार थे 
शोषणकारी सत्ता के विरुद्ध खडे सत्य के प्रतिनिधी थे
एक और  तत्कालीन शासक सहस्त्रबाहु की
शक्तिशाली प्रभुता सम्पन्न सत्ता
दूसरी और एक अकेला सन्यासी
जिसके पास परशु रूपी सतसंकल्प था
जो शोषण की प्रतीक अहंकारी सत्ता को 
उखाडने के लिये प्रतिज्ञा बद्ध थे
शासक जो जब शोषक का रूप धारण कर लेता है
तो हजारो हाथो से हजारो पध्दतियों 
प्रक्रियाओं  से जनता का शोषण करता है
ऐसा शासक स्वतन्त्र जागरूक और विचारवान नागरिक 
के जीवन यापन के मूल एवम बुनियादी अधिकारो ,
संसाधनो का भी हरण कर लेता है
तत्कालिन समय मे सहस्र बाहु ने भी यही व्यवहार 
भगवान परशुरामएवम उनके पिता जमदग्नि के साथ किया था
तब आवश्यक हो जाता है कि उन हजारो हाथो को 
काट दिया जाय जो आम  नागरिको के शोषण के
 साधन बन गये हो
सत्य का आकलन  जन समूह की विशालता से नही 
आंका जा सकता
सत्य के संघर्ष मे कठिनाईया बहुत होती है
हर कोई सत्य का अनुगामी हो भी नही सकता
इसलिये सत्य से जुडे किसी नये विचार को
एका-एक समर्थन प्राप्त भी नही होत है
कहा जाता है की ऐसे किसी व्यक्ति या विचार को
विरोध ,आलोचना और  समर्थन के दौर से 
गुजरना होता है
भगवान परशुराम के पास न तो जन मत था
न साधन थे, किसी प्रकार की सामरिक शक्ति भी नही थी
मात्र व्रहद उद्देश्य ,द्रढ इच्छा शक्ति,
 सत्य का संबल और तप का बल
हाथो मे परशु लिये पूरा संघर्ष करते रहे
सही मायनो मे भगवान परशुराम विश्व के
 प्रथम क्रांति प्रवर्तक थे
क्या कोई व्यक्ति कल्पना कर सकता है
कि विशाल सैन्य बल एवम अपरिमित पराक्रमी
जिसे भगवान शिव का वरदान प्राप्त हो
सहस्त्रबाहू को एक चरण पादुक धारी संन्यासी
परशु के बल पर परास्त कर सकता है
भगवान परशुराम ने असंभव को संभव कर दिखाया
इसलिये भगवान परशुराम काल जयी क्रान्ति के नायक है
उन्हे किसी वर्ग विशेष से न जोड़  कर
उनके व्यक्तित्व मे सत्य की शक्ति ,क्रान्ति की प्रव्रत्ति
और वर्तमान स्थितियो मे उनकी प्रासंगिकता को देखना होगा


Monday, September 24, 2012

नेह के बन्धन





देह के बन्धन मे देहाभिमान है
नेह के बंधन मे परमात्मा विराजमान है
नेह के बन्धन मे ईष्ट की अभिलाषा
आत्मीयता  की आस
परम तत्व  की प्यास है
देह के बंधन का देह से जुड़ाव होता है
नेह के बन्धन मे आत्मा  का पड़ाव  होता है
वैचारिक समानता से ही आत्मीयता  उदभूत होती है
जहा आत्मीयता  होती है
वहा वैचारिकता को खुली छूट मिली होती है
देह से जुडी मोह माया है
दैहिक सम्बन्धो मे काम ,वासना है ,
भौतिक काया है
देह मे नेह कहा होता है
स्नेह में अपनापन है शुभ विचार लगाते गोता है
सुख सम्रद्धि का झरोखा है
देह के सम्बन्ध मे अनगिनत बन्धन है
काया से जुड़े कई क्रंदन है
नेह में रहती मधुरता नेह में स्नेहिल वंदन है
देहाभिमान कहा काम आता  है
स्नेह भरा व्यक्तित्व सुख शांती और  सम्मान पाता है
आत्मीयता की उर्जा से ही तो व्यक्ति ऊँची  उड़ान  भर पाता है
नभ पर छाता है
जीवन संगीत गाता है
विकराल समस्याओ  के वक्ष पर रख चरण
सर्वोच्च शिखर पर जाता है
इसलिये देह से नेह मत लगाओ
नेह को आत्मा में भरो नेह का रसपान करो,
स्नेह के सागर मे में डूब कर वैचारिक गोते लगाओ

Saturday, September 22, 2012

उत्क्रष्ट आचरण


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इन्सान दूसरो से वह क्यो चाहता है ?
जो दूसरो को दे नही सकता
मृदु व्यवहार जो उसने दूसरो के साथ नही किया
स्वयम के लिये क्यो चाहता है ?
दूसरो को समस्याओं को देकर
दूसरो की समस्याओं मे
अपने लिये समाधान क्यो तलाशता  है ?
दूसरो के जीवन पथ पर कांटे बिछाकर
क्यो अपेक्षा करता है ? कि उसका जीवन
फूलो से भरा रहे
क्यो सारा जग मरूथल की तरह हो
और  उसका जीवन हरा भरा रहे
जबकि वह यह अच्छी तरह से जानता है
कि क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चय होती है
नकारात्मक मानसिकता विध्वंस के बीज बोती
उसमे स्रजन शीलता कभी भी अंकुरित नही हो सकती है
स्वस्थ एवम सकारात्मक मानसिकता के सहारे ही
इन्सान को सब कुछ मिल पाया है
किसी भी व्यक्ति ने अच्छा बोया है
तो अच्छा फल ही पाया है
क्योकि अच्छाई के प्रतिरुप का ही उत्थान हुआ  है
सर्वोच्च शिखर पाया है
उत्क्रष्ट आचरण  ही आनंद  का आधार  है
निक्रष्ट एवम उच्छ्रंखल व्यक्ति ने निरंतर पाया अपमान और  तिरस्कार है
कहा मिल पायी प्रतिष्ठा और  अधिकार है
इसलिये जो अपने लिये चाहते हो वह पथ दूसरो के लिये भी चुनो
जो घोसला अपने लिए चाहते हो वैसा ही दूसरो के लिए भी बुनो
जटिलता तोड़ो कुटिलता छोड़ो  कम बोलो ज्यादा सुनो
इसी व्यवहार में ही ब्रह्मा विष्णु महेश है
इसी मुद्रा में स्थित रहे सदा गणेश है



Thursday, September 20, 2012

गणेशोत्सव


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गणेशोत्सव के अवसर पर गली मोहल्लो मे
 उनकी प्रतिमा स्थापित की जाती है
सांस्क्रतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते है
 तो समस्त वातावरण मे उल्लास छा जाता है
प्रतिमा को जब विसर्जीत किया जाता है 
तो ऐसा  प्रतीत होता है मानो जन समूह वृहद् परिवार के लाडले सदस्य को विदा करने 
सरोवर के नीर ,नदिया के तीर ,
और  सागर अधीर के निकट आ पहुचा
विसर्जन के पश्चात वेदना एवम विरह के स्थान पर
 नवीन सर्जना का भाव जन मे समा जाता है
गणेश जी देवता न होकर जनोत्सव के प्रतीक बन चुके है
व्यवसायिक भाग-दौड भरी व्यस्तता मे 
सुख चैन का आश्रय गणेश जी के प्रतिमा का 
सामीप्य पाकर मिलता है
गणेश जी के दर्शन पाकर मन की दीनता हीनता 
समाप्त हो जाती है
तन मन को परम सन्तुष्टि मिलती है
जीवन मे सुरक्षा एवम आश्वस्ति  की भावना लौट आती  है
गणेश जी का रुप ही ऐसा है 
जिसे देख कर सहज ही
मन मे प्रेम,ममत्व ,करूणा,की भावनाये 
प्रस्फुटित हो जाती है
समस्त तनाव दूर हो जाते है
आशाये  नव पखेरू लेकर उड़ान भरने लगती  है
ऐसा लगता है गणेश जी किसी धर्म के देव न होकर
जीवन के प्रति आस्था  के अंकुर है
आस्था  के अंकुर भी ऐसे है
जिनमे सर्जनात्मकता भरपूर है
यदि हम गणेश उत्सव पर तन -मन जीवन से
नकारात्मक प्रव्रत्तियो का विसर्जन कर पाये
जीवन मे उल्लास और  आनंद भर पाये
सर्जनात्मकता जाग्रत कर पाये
तो गणेश उत्सव सार्थक है

Tuesday, September 18, 2012

संस्कृत संस्कृति एवं संस्कार

संस्कृत भाषा सबसे प्राचीन और सबसे वैज्ञानिक भाषा है 
सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ वेद इस भाषा में रचे गए है
 संस्कृत को देव वाणी भी कहा जाता है
इस कारण जितने भी देवताओं के मन्त्र रचित है 
वे इसी भाषा है 
अर्थात देव गण संस्कृत भाषा में रचित मंत्रो से शीघ्र प्रसन्न होते है
और साधक को साधना में त्वरित सफलता प्राप्त होती है 
संस्कृत भाषा सबसे अधिक व्याकरण सम्मत भाषा है 
पाणिनि मुनि रचित अष्ट अध्यायी तथा पातंजलि
का महाभाष्य व्याकरण के प्रमुख स्त्रोत है 
कुछ लोग संस्कृत बिना व्याकरण का अध्ययन किये
 संस्कृत ग्रंथो का मन मानी व्याख्या कर लेते है
जो उचित नहीं है 
जिस व्यक्ति को संस्कृत तथा संस्कृति से मोह नहीं है 
वह विकृति की और चला जाता है 
विकृति से विकार उत्पन्न होते है
संस्कार समाप्त होते है 
इसलिए संस्कृत तथा संस्कृति से 
व्यक्ति को कभी विमुख नहीं होना चाहिए
संस्कृत से संस्कृति तथा संस्कार  बनते है
 संस्कार से सदाचार लोकाचार स्थापित होता है 
इसलिए जन्म से लेकर मरण तक समस्त कर्मकांड 
संस्कृत के मंत्रो से से अनुष्ठापित किये जाते है 
वर्तमान में संस्कृत एवं संस्कृति को 
नष्ट करने के षड्यंत्र रचे जा रहे है 
निज संस्कृति के बिना कोई भी समाज सुरक्षित नहीं रह सकता है
संस्कृत तथा संस्कृति हमारी संस्कारों की माता है
 माता का सरंक्षण करना हमारा नैतिक दायित्व है 
हम यदि हमारी माता का सरंक्षण कर पाए तो वह हमें
प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे कई वरदान देगी 
जो हमें ही नहीं हमारे सम्पूर्ण समाज को 
वर्तमान चुनौतियों से सामना करने समर्थ बनाएगी

Sunday, September 16, 2012

सक्रियता

नदिया जल का प्रवाह है
प्रवाह में ही जीवन है प्राण बसते है
प्राण बिन जीवन नहीं
होता है
 परिवेश श्मशान होता है
पल पल डसते है
जड़ता व्यक्ति को अकर्मण्य और पंगु बना देती है
निष्क्रियता क्षमताये मिटा देती है
सक्रियता बूंद को समुन्दर आस्थाये कंकर को शंकर का रूप देती है
बहती हुई नदिया गहराई लेती है
गहराई में सब कुछ समा लेती है
इसलिए गहरा और सामर्थ्यवान होने के लिए जीवन में प्रवाह  होना अनिवार्य है
जीवन में निरंतर सक्रिय रहने से ही सुधारे सभी कार्य है
सक्रियता में ही रहता कर्म और धर्म है
जीवन में रहो सक्रिय यही जीवन का मर्म है

Monday, September 10, 2012

तीर्थो के आयाम


तीर्थ क्या है
तीर्थ के क्या प्रयोजन है
इसे समझे बिना तीर्थ करना निरर्थक है
तीर्थ करने से हमारी मुक्ति नही होती
अपितु तीर्थ हमे मुक्ति का मार्ग बताते
तीर्थो को ही ईश्वर मान लेना त्रुटि होगी
ईश्वर तो हमारे चित्त मे चिन्तन मे
आत्मा  रुपी दर्पन मे होता है
तीर्थो मे जब हम पहुंचाते है पुण्य हेतु नदियो मे स्नान करते है
तो हमे जन समूह की विशालता के एवम ईश्वरीय प्रतीको के समक्ष
अपनी लघुता की अनुभूति होती है
जिससे अहं भावना का नाश होता है
तीर्थो मे कई प्रकार होते है
प्रथम चार धाम यात्रा अर्थात देश की चारो और सीमावर्ती स्थानों की यात्रा
दूसरा द्वादश ज्योर्तिलिंग और बावन शक्तिपीठ
अर्थात देश में बिखरे प्राचीन साधना केंद्र शक्ति सम्पन्न क्षेत्रों की यात्रा
इस उपरोक्त सभी प्रकार के तीर्थ स्थलों की यात्रा करने से न केवल मात्र
अध्यात्मिक अनुभूतियाँ होती है हमें अपने देश की भौगोलिक स्थितियों का भी ज्ञान होता है
सांस्कृतिक विविधता से भी परिचित होते है
आधुनिक काल में पर्यटन रोजगार का प्रमुख क्षेत्र है
प्राचीन काल जब हमारे देश मे आवागमन  के साधन विद्यमान  नही थे
तब देश की विशाल जन संख्या निरंतर तीर्थ यात्राओं के कारण भ्रमणरत रहती थी
इसका तात्पर्य यह है की हमारे पूर्वज ,ऋषि ,महर्षि ,अध्यात्मिक गुरुओ का सोच
समय से बहुत आगे था
हमारे पूर्वजो ने हमारे देश की चारो दिशाओं के निवासीयो एक सूत्र मे पिरोने
हेतु देश के चारो दिशाओं मे चार-धाम स्थापित किये थे
द्वादश ज्योर्तिलिंग ,बावन शक्तिपीठ की संरचना भी इसी उद्देश्य को ध्यान मे रख कर की गई थी
यदि हम गंभीरता से सोचे तो हमें यह ज्ञात होगा की  सभी प्रकार की तीर्थ यात्राओं को करने के बाद
शायद ही देश ऐसा कोई कोना शेष रहेगा जिससे हम परिचित न हो सके
क्या हम जानते है की महान व्यक्ति से हम किसी प्रकार से मिल सके उनका सानिध्य
पा सके तो वह भी तीर्थ के सामान ही होता है
ऐसे महान संतो को जैन धर्म में तीर्थंकर के रूप में संबोधित किया जाता है

Wednesday, September 5, 2012

बुजुर्ग हमारे माता पिता है अधिष्ठाता है

बुजुर्ग हमारे परिवार के प्राण है प्रतिष्ठाता है
बुजुर्ग हमारे माता पिता है अधिष्ठाता है
बुजुर्ग संस्कारो की विरासत है नैतिकता की पहचान है
बुजुर्गो के बिना परिवार को कहा मिल पाया सम्मान है
बुजुर्ग अनुभव की खुली हुई किताब है
बौद्धिकता के धरातल पर स्मृतिया बेहिसाब है
बुजुर्ग हमारे सरंक्षक है अभिभावक है
स्नेह पाते है बच्चे खेलते कूदते शावक है
बुजुर्ग परिवार के गौरव ,कुल के अभिमान है
उनकी उपस्थिति मात्र ही देती है गरिमा बढ़ा देती मान है
बुजुर्ग वक्त की ईबारत है
दीर्घायु मे बसता बुढा भारत है
उनके बालो की सफेदी सूक्ष्म अनुभूतियो का द्योतक  है
झुरिर्यो भरे चेहेरे से ताकता समय का समालोचक है
बुजुर्ग परिवार के ताज है
बीता हुआ  कल है वर्तमान है आज है
बुजुर्गो  की वेदना को समझना अनिवार्य है
बुजुर्ग वह सीढी है जिन पर चढ़े बड़े और बने हम आर्य  है
कहते है शास्त्र मत करो घर के बडो बुढो की उपेक्षा
हर आदमी को मिलती है जीवन मे एक बार बुढापे की कक्षा
इसलिये बुजुर्गो की भूमिका समाज और देश के हित मे है
बुजुर्ग सदा हमारे साथ रहे उनके साथ से हम जीत मे है
बुढापा जीवन का वेद है उपनिषद है,धर्म है पुराण है
तरूणाई की ताकत और जीवन के अनुभव से होता कल्याण है
  बुजर्ग इन्सान अपनी भूमिका स्वयम जानता है
समस्या के जनक और  समाधान को वह खूब अच्छी तरह जानता है
बुजुर्ग व्यक्ति समाज और परिवार के लिये वरदान है
बुजुर्गो को दे उचित आदर  इसका हमे रहे ज्ञान है
इसलिए बुजुर्ग माता पिता को कभी मत सताओ
उनकी आँखों में तैरते है कई सपने उन्हें सजाओ






Sunday, September 2, 2012

कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था

प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था जन्म प्रधान न होकर कर्म प्रधान थी
इस तथ्य की पुष्टि के लिए हमें  महर्षि विश्वामित्र ,महर्षि वाल्मीकि 
,भगवान् परशुराम के जीवन पर दृष्टिपात करना होगा
महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय वंश में जन्म लेने के बावजूद 

प्रबल पुरुषार्थ के कारण ब्रह्मऋषि कहलाये
तत्कालीन ब्रह्म ऋषियों ने शामिल करने से इनकार कर दिया तो 
प्रखर तपस्या के बल पर उन्होंने यह पद
सृष्टि के रचयिता ब्रह्म देव की आराधना कर प्राप्त किया
महर्षि वाल्मीकि जो शूद्र कुल में उत्पन्न हुए थे
जीवन का बहुत समय पतित कर्मो में बीतने के बाद 

महर्षि नारद से मार्गदर्शन प्राप्त कर
वे भगवान् विष्णु के अवतार श्रीराम की भक्ति में लीन हो गए
बरसो तपस्या करने के बाद उन्हें आत्म ज्ञान प्राप्त हुआ
और एक अशिक्षित शूद्र जाती में जन्म लेने वाला व्यक्ति 

संस्कृत का विद्वान बना
ब्रह्म तत्व  में विचरण करने के कारण उन्होंने रामायण का निर्माण ही नहीं किया
अपितु भगवान् श्रीराम के जीवन के उत्तरार्ध्द के साक्षी रहे 

और उन्होंने श्रीराम की जीवन संगिनी का प्रश्रय दिया
भगवान् परशुराम जो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए
तत्कालीन शासक सहस्त्रार्जुन के अत्याचार के विरुध्द 

परशु को शस्त्र के रूप में धारण किया
कहते है २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन किया
किन्तु यह कर्म कर स्वयं को ब्राह्मण से क्षत्रिय में 

रुपान्तारित होने से रोक नहीं पाए
 रावण जो पुलस्त्य ऋषि का संतान था
सत्ता ,शक्ति ,और ज्ञान के मद में जब पतित कर्मो की और 

अग्रसर होने लगा
तो जन्म से वह ब्राह्मण होने के बावजूद राक्षस वर्ण में चला गया
वर्तमान में कुछ लोग उच्च वर्ण में जन्म लेने के 

बावजूद अधम कर्मो में लिप्त होने से
कर्मो के आधार पर समाज में निम्न अवस्था को प्राप्त होते है 

तथा सारा दोष भाग्य पर डाल देते है
इसके विपरीत कुछ लोग निम्न वर्ण में जन्म लेने के बावजूद 

प्रखर परिश्रम एवं प्रबल पुरुषार्थ व नैतिक गुणों के आधार 
पर समाज में उच्च स्थान प्राप्त करते है
मात्र धन एवं पद के आधार पर कोई व्यक्ति सम्मान 

प्राप्त नहीं कर सकता
व्यक्ति को सच्चा सम्मान तभी मिलता 

जब वह लोगो के ह्रदय में स्थान बना सके
ऐसा व्यक्ति सच्चे अर्थो में
ब्रह्म
में विचरण कर ब्राहमण वर्ण 
को प्राप्त करता है
शेष व्यक्ति जो धन एवं पद के कारण स्वयं में 

बड़े होने का भ्रम पाले रखते है
वे सच पूछो तो शुद्र वर्ण की और अग्रसर होने की प्रक्रिया में है