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Saturday, December 1, 2012

त्रिशंकु


त्रिशंकु शब्द अस्थिरता के अनिश्चय के लिये
उपयोग मे लाया जाता है
प्रश्न यह है कि त्रिशंकु कौन थे
वे अस्थिरता अनिश्चय के पर्याय क्यो बन गये
त्रिशंकु नामक प्राचीन काल मे महान तथा प्रतापी राजा थे
जो भगवान श्रीराम के पूर्वज थे
दो महान महर्षियो की प्रतिस्पर्धा
तथा स्वयम के सशरीर स्वर्ग जाने के हठ के कारण
उनकी यह स्थिति हुई
महाराजा त्रिशंकु यह चाहते थे कि वे सशरीर स्वर्गारोहण करे
उनकी इस इच्छा की पूर्ति के लिये वे तत्कालिन महर्षी वशिष्ठ के पास पहुॅचे
जो ब्रह्म विद्याअो के ग्याता थे
महर्षी वशिष्ठ द्वारा उन्हे नियति के विधान से बॅधे होने का कारण बता कर
उनकी इच्छा पूरी करने से इन्कार कर दिया
उस समय अपने पुरूषार्थ के बल राजा से
ब्रहम रिषियो मे शामिल हुये महर्षि विश्वामित्र
का तप अौर कीर्ति चरम पर थी
महर्षि विश्वामित्र के द्वारा महाराजा त्रिशंकु को
उनकी इच्छा पुर्ति का अश्वासन दिया गया
तथा इस हेतु उनके द्वारा अनुष्ठान प्रारम्भ किया गया
नियति के विधान के विपरीत किसी
व्यक्ति को स्वर्ग पहुॅचाने का यह पहला प्रयास था
इसलिये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मे खल-बली मच गई
स्वर्ग के अधिपति देवराज इन्द्र अत्यन्त विचलित हो गये
उन्होने महर्षि विश्वामित्र के अनुष्ठान का विरोध किया
महर्षि विश्वामित्र अत्यन्त संकल्पवान तपस्वी थे
उन्होने देवराज इन्द्र को चेतावनी दी कि
यदि उन्होने महाराजा त्रिशंकु को अपने स्वर्ग लोक मे
सशरीर अाने की अनुमति नही दी तो
वे नये स्वर्ग की रचना कर महाराजा त्रिशंकु की इच्छा पूर्ण करेंगे
सफलता पूर्वक अनुष्ठान पूर्ण होने पर
जब सशरीर महाराजा त्रिशंकु को महर्षि विश्वामित्र ने
उर्ध्व दिशा मे भेजना प्रारम्भ किया तो
देवराज इन्द्र ने उन्हे स्वर्ग मे सशरीर प्रवेश करने से रोक दिया
ऐसी स्थिति मे त्रिशंकु भूलोक अौर स्वर्ग लोक के मध्य अधर मे
अन्तरिक्ष मे ही स्थिर हो गये
न तो वे स्वर्ग का सुख भौतिक शरीर के साथ उठा पाये
अौर नही भू-लोक मे अपनी सम्पूर्ण अायु पूर्ण कर
दिग दिगन्त मे अपनी कीर्ति को फैला पाये
कहने का अाशय यह है कि
जो व्यक्ति नियति का विधान तोडता है
विधी-विधान के विपरित कार्य करता है
लक्ष्य प्राप्ति के लिये संक्षिप्त मार्ग अपनाता
है उसकी दशा महाराज त्रिशंकु की तरह हो जाती है