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Monday, March 18, 2013

श्रेय सहयोग और प्रसाद

श्रेय का सहयोग से अनुपम सम्बन्ध है
यदि हम किसी कार्य का श्रेय स्वयं ही लेते है तो
सहयोगी हमसे दूर चले जाते है वांछित सहयोग के अभाव में
हमारी योजनाये दम तोड़ने लगती है
यथार्थ  के धरातल पर उतर ही नहीं पाती है
 प्रबंधन के  महत्वपूर्ण सुर्त्रो में से एक है श्रेय बांटना 
हम जिस प्रकार से मंदिर पर जाकर ईश्वर को प्रसाद चढाते है
 बाद में प्रसाद को अधिक से अधिक लोगो को बाँटते है
प्रसाद को बांटने से हमें ईष्ट का आशीर्वाद 
और प्रसाद को ग्रहण करने वालो की 
शुभ कामनाये प्राप्त होती है उसी प्रकार से 
जब संगठित रूप या व्यक्तिगत रूप से
 किसी उपलब्धि को प्राप्त करने की दिशा
में प्रयत्न करते हुए उस उपलब्धि को हासिल करते है
 तो हमें कर्म योगी तरह प्राप्त हुई उपलब्धि के लिए
अहंकार के वशीभूत न हो उसे ईष्ट का आशीर्वाद मान कर
 तथा  प्रसाद के रूप में अंगीकार  कर अपने परिवार या संस्था में
 विद्यमान व्यक्तियों को भी श्रेय देना चाहिए
श्रेय देने से प्राप्ति का मुल्य बढ जाता है
संस्था के सदस्यों या परिजनों में सहयोग  की भावना में वृध्दि होती है
परिणाम स्वरूप भविष्य की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए
 हमें बिना मांगे ही सहयोग प्राप्त जाता है