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Wednesday, June 12, 2013

यज्ञोपवित

भारतीय संस्कृति में यज्ञोपवित का अत्यधिक महत्व है 
यज्ञोपवित प्रतीक है प्रतिबद्धता के और कर्तव्य का 
यज्ञोपवित और उससे जुडी मान्यताओं को 
समझाने की आवश्यकता है 
यज्ञोपवित का संधि -विच्छेद किये जाने पर यज्ञ+उपवीत होता है 
अर्थात वह वे सूत्र जिनके बिना व्यक्ति 
यज्ञ में बैठने का अधिकारी नहीं होता है 
यज्ञ  में विराजमान अग्नि देव यज्ञोपवित को धारण किये बिना
 किसी भी व्यक्ति की आहुति को ग्रहण नहीं करते है 
यज्ञोपवित में तीन धागे के सूत्र होते है 
तीनो सूत्र अलग -अलग दायित्वों कर्तव्यो की पूर्ति का 
स्मरण कराते रहते है 
प्रथम सूत्र पितृ ऋण  का प्रतीक होता है 
द्वितीय सूत्र गुरु ऋण  का और तीसरा सूत्र देव ऋण का प्रतीक होता है 
पितृ ऋण क्या है इसे समझना आवश्यक है 
पितृ ऋण में अपने माता पिता  और पूर्वजो के प्रति
 दायित्व और कर्तव्य होते है 
हमारा दायित्व है की 
हम माता पिता  की सेवा करे उनका आदर करे 
माता पिता  को सीमित अर्थ में न मानकर 
उसे वास्तविक अर्थो में जानना आवश्यक है 
माता पिता  में प्राकृतिक माता के साथ -साथ 
हमें उन  व्यक्तियों के प्रति भी कृतज्ञता का 
भाव में रखना चाहिए 
जिन्होंने माता और पिता  के सामान 
हमारे हितो का सरंक्षण और संवर्धन किया 
पूर्वजो के प्रति हमारी सर्वश्रेष्ठ कृतज्ञता और श्रद्धा तब मानी जावेगी जब पूर्वजो के संस्कारों विचारों के सामान आचरण करेगे 
और पूर्वजो द्वारा स्थापित भौतिक ,अध्यात्मिक 
और सामाजिक संपदाओ को सहेज कर रखे 
द्वितीय सूत्र देव ऋण का प्रतीक होता है 
देव अथात सतोगुण से युक्त सज्जन शक्ति का सरक्षण 
अपने ईष्ट के प्रति अगाध आस्था उसका सतत स्मरण 
संसार में व्याप्त समस्त व्यक्तियों में ईश के अंश की अनुभूति करना 
श्रेष्ठ संकल्पों को साकार करना आदि 
देव ऋण से मुक्त होने के मार्ग है 
तीसरा सूत्र होता है गुरु ऋण का प्रतीक गुरु क्या है 
यह आवश्यक नहीं है गुरु देहिक रूप में विद्यमान हो 
सामान्य रूप से गुरु शिक्षक को भी कहा जाता है
 परन्तु यह गुरु अर्थ की सीमित व्याख्या है 
गुरु हर वह व्यक्ति है जो हमारा मार्ग दर्शन करता है 
चाहे वह ज्ञान का क्षेत्र हो या अध्यात्म का 
अथवा जीवन की जटिलताओ से मुक्ति का मार्ग बताने वाला 
हामारी जिज्ञासाओं को शांत करने वाला 
यदि हम ढूँढने  का प्रयास करेगे तो 
गुरु तत्व हमारे चारो और बिखरा हुआ है
 बस उसे पहचाने की आवश्यकता है 
गुरु ऋण से मुक्ति यही उपाय है की
 हम सभी प्रकार के गुरुओ  के प्रति 
अपने समुचित दायित्वों का निर्वाह करे 
गुरु दक्षिणा  भिन्न भिन्न गुरुओ के लिए 
भिन्न भिन्न हो सकती है 
गुरु दक्षिणा किसी प्रकार के द्रव्य पदार्थ 
और धन के रूप परिभाषित करना गुरु दक्षिणा 
की सीमित व्याख्या होगी 
कभी -कभी गुरु इस तथ्य से संतुष्ट हो जाता है
 शिष्य ने उसके दिए गए 
प्रशिक्षण में पूर्ण कार्य कुशलता प्राप्त कर ली है 
जो व्यक्ति तीनो प्रकार के ऋणों  
अर्थात दायित्वों का पालन करता है 
यज्ञ रुपी  ईश्वर उसी व्यक्ति की आहुती  अर्थात प्रार्थना  ग्रहण करते है