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Monday, September 23, 2013

सत्य क्या है

सत्य क्या है और असत्य क्या है 
स्थान परिवेश और समय के साथ साथ 
सत्य और असत्य के स्वरूप बदल जाते है 
कभी असत्य सत्य के आवरण में हमें दिखाई देता है 
तो कभी सत्य का सूरज बादलो की ओट  में
 निस्तेज और प्रभावहीन दिखाई देता है 
परन्तु जिस वक्तव्य से लोक कल्याण हो 
आत्मा की उन्नति हो वह किसी  भी रूप में हो 
वह वास्तविक सत्य होता है 
सत्य बोलने में तात्कालिक लाभ नहीं मिलता
 दूरगामी परिणाम अच्छे होते है 
जबकि असत्य भाषण से तात्कालिक लाभ 
भले ही कोई हासिल कर ले 
दूरगामी परिणाम आत्मघाती होते है 
असत्य भाषण करने वाले व्यक्ति द्वारा कही गई
 हर बात संदिग्ध दिखाई देती है 
ऐसे व्यक्ति को अपनी बात को सत्य प्रमाणित करने के लिए 
तथ्य रखने पड़ते है 
इसलिए कहा जाता है कि 

न च सभा यत्र न सन्ति वृध्दा
        वृध्दा न ते येन न वदन्ति धर्म
धर्म सानो यत्र न सत्य मस्ती
     सत्य न तत  यत  छल नानुम वृध्दिम 


सत्य के स्वरूप को जानने समझने के लिए 
एक दृष्टि की आवश्यकता होती है 
जिसे अनुभव ज्ञान एवं प्रज्ञा की दृष्टि कही जा सकती है 
ऐसी दृष्टि को  शिव के तीसरे नेत्र की उपमा दी जा सकती है 
जिस व्यक्ति को शिव  की तीसरे नेत्र की प्राप्त हो चुकी हो
उसे सत्य पर आधारित पहचाने में तनिक भी देर नहीं लगती 

Friday, September 20, 2013

उपयोगिता और व्यक्ति का मुल्य

व्यक्ति हो वस्तु  हो या हो कोई प्राणी 
उसका महत्त्व उसकी उपयोगिता से होता है
उपयोगिता एक बार किसी व्यक्ति द्वारा प्रमाणित कर दी जाए 
तब उसकी अनुपस्थिति एक प्रकार की रिक्तता 
और अभाव की अनुभूति देती है 
जो व्यक्ति परिवार समाज परिवेश में 
अपनी उपयोगिता प्रमाणित नहीं कर पाया हो 
वह महत्वहीन हो जाता उसके रहने या रहने से 
किसी को कोई अंतर नहीं पड़ता
व्यक्ति की उपयोगिता ही उसका मुल्य निर्धारित करती  है
 इसलिए हमें अपना सही मूल्यांकन करना हो तो 
यह विश्लेषण करना होगा की हमारी उपयोगिता क्या है 
जिस व्यक्ति ने स्वयम का मूल्यांकन और विश्लेषण नहीं किया 
उस व्यक्ति में सुधरने  की कोई संभावना नहीं होती 
ऐसा व्यक्ति न तो किसी के काम आ पाता  है 
और नहीं स्वयं के काम का रह पाता  है 
इसलिए जीवन व्यक्ति के उत्थान का सबसे सरलतम मार्ग यह है
हम परिवार समाज और परिवेश के लिए उपयोगी  बने 
एक बार हमारी उपयोगिता प्रमाणित हो जावेगी 
तब लोगो को हमारी उपस्थिति अनुपस्थिति का अहसास होगा
 तब हमारा व्यक्तित्व अमुल्य हो जावेगा

Thursday, September 19, 2013

सेवा निव्रत्ती और संकट

लक्ष्मीनारायण जी के अत्यंत दुर्बल स्वास्थ्य के बावजूद उन्हें एक तारीख को अपनी पेंशन  लेने जाना पडा ,कड़कती हुई सर्दी में सुबह सुबह जाने के कारण उन्हें शरीर  में लकवा मार गया लक्ष्मीनारायण  जी ने जीवन भर शासकीय शिक्षक की नौकरी की सेवा निवृत्ति के पश्चात वे अपने बेरोजगार और बालबच्चेदार पुत्र नरेश के साथ निवास कर रहे थे |नरेश जो विद्यार्थी जीवन में पढ़ाई में रूचि न रख अनावश्यक बातो में ध्यान देता था| रिश्तेदारों की सलाह मानकर लक्ष्मीनारायण जी ने नरेश का विवाह कर दिया तब से नरेश का एक मात्र उद्देश्य जनसंख्या वृद्दि में योगदान रह गया था| पढ़ाई अच्छी नहीं होने की वजह से नरेश की नौकरी भी नहीं लगी थी |कार्य के प्रति समर्पण के अभाव में लक्ष्मीनारायण जी के अथक प्रयास के बाद कोई व्यवसाय भी नहीं कर पाया था |ऐसे में पेंशन की आवश्यकता लक्ष्मी नारायण जी से अधिक नरेश और उसके परिवार को अधिक थी प्रत्येक माह की एक तारीख का इंतज़ार उसे सदा रहता था| संकट यह नहीं था की लक्ष्मीनारायण की स्वास्थ्य कैसे ठीक होगा परेशानी नरेश के सामने यह थी की लक्ष्मी नारायण जी के ठीक न होने पर और असमय दिवंगत होने पर नरेश और उसके परिवार का भरण पोषण कैसे होगा |

Wednesday, September 18, 2013

सर्वांगीण विकास के द्वार

बहु तेरे इंसान भाग्य और भगवान् को दोष देते है 
हर असफलता के लिए स्वयं का मूल्यांकन न कर 
परिस्थितियों को उत्तरदायी ठहराते है 
सफलता मिलने  अहंकार से युक्त हो जाते है 
तथा सफलता का श्रेय स्वयम के पुरुषार्थ को देते है 
इसी प्रकार की प्रवृत्ति वर्तमान में युवा पीढ़ी में भी पाई जाती है 
की वे अपनी  स्थितियों के लिए अपने माता पिता  को कोसते है 
ऐसी परिस्थितियों में ऐसे व्यक्तियों के शीश  से 
भगवान्  और भौतिक माता -पिता  आशीष हट जाता है
 और वे जहा   जाते है दुर्भाग्य उनका पीछा नहीं छोड़ता है
 इसलिए सफलता प्राप्त करने  का सर्वश्रेष्ठ मार्ग यह है
 की भगवान् भाग्य और माता पिता  को दोष देना छोड़ कर 
उनका आशीष साधना और सेवा  कर प्राप्त कर 
इसमें कर्म के प्रति अहंकार का भाव समाप्त  होगा 
आशीर्वाद से ऊर्जा प्राप्त होगी ऊर्जा से पुरुषार्थ और पुरुषार्थ से 
जीवन में सर्वांगीण  विकास  के द्वार  खुलते जायेगे

Tuesday, September 10, 2013

मिटटी की महिमा

मिट्टी  से प्रतिमा है बनती मिटटी से बनता है घर
मिटटी में ही  मिल जाएगा अहंकार अब तू न कर

मिट्टी  में है तेरा बचपन मिटटी पर है तू निर्भर
मिटटी में भगवान् रहे है मिटटी में रहते शंकर

मिट्टी   से माता की  मूर्ति मिट्टी  से लम्बोदर
मिटटी खाए कृष्ण कन्हैया मिटटी को हांके हलधर

कही छाँव है कही है धुप माटी  का है उजला रूप
माटी  के भीतर  है ऊर्जा माटी से तू अब न डर

Sunday, September 8, 2013

श्रीकृष्ण बलराम संवाद


http://www.mavericksonlineden.com/forwards/pictures/HappyJanmashtami/HappyJanmashtamiBalram.jpg 

यमुना तट पर बैठे भगवान् श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम श्रीकृष्ण से बोले की कृष्ण त्रेता युग में मै  तुम्हारा अनुज लक्ष्मन था | तब मै  तुम्हारी आज्ञा का पालन करता था तुम्हारी रक्षा में संलग्न रहता था |वर्तमान युग द्वापर में मै  तुम्हारा ज्येष्ठ हूँ फिर भी मुझसे ज्यादा निर्णायक भूमिका तुम्हारी है |
तुम अधिक पूज्य हो आखिर बड़े भाई होने का मुझे क्या लाभ ? 
भगवान् श्रीकृष्ण बोले !दाऊ  त्रेता युग में जब मेरे अनुज लक्ष्मन थे | 
तब तुम बार क्रोधित हो जाते थे, छोटी छोटी बाते तुम्हे विचलित कर देती थी, तब मै  तुम्हे शांत कर देता था, भैया भारत को और परशुराम को देखकर तुम कितने उत्तेजित हो गए थे |उत्तेजना वश मेघनाथ से युध्द करने के कारण तुम अचेत हो गए थे |वर्तमान में भी दाऊ आप कभी    सुभद्रा हरण के प्रसंग पर क्रोधित हो जाते हो तो कभी महाभारत युध्द में भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा तोड़े जाने पर  क्रोधित हो जाते हो | निर्णायक क्षणों में तीर्थाटन पर निकल जाते हो और मै  रामावतार में भी विचलित नहीं होता था |और इस अवतार में भी क्रोधित नहीं निर्णायक क्षणों में मै  मूक दर्शक नहीं रहता | समस्याओं से पलायन नहीं करता,उनके बीच में रह कर उन्हें सुलझाने के सारे उपाय करता हूँ |सज्जनों का सरंक्षण कर उनका मार्ग प्रशस्त करता हूँ, उन्हें नेत्रत्व प्रदान कर समाज को सही दिशा प्रदान करता हूँ |जहा भी मेरी आवश्यकता पड़ती मै तुरंत पहुँच जाता हूँ |इसलिए भैया छोटे या बड़े होने का कोई अर्थ नहीं जो समाज परिवार और राष्ट्र में अपनी भूमिका को समझ पाता है वही अधिक  पूज्य होता है

Saturday, September 7, 2013

पूजा या अनुसरण

पूजा का मार्ग श्रेष्ठ है या महापुरुषों के अनुसरण का
 मार्ग मंदिर हो या गुरुद्वारा हो 
या गिरजा घर या हो कोई स्तूप स्तम्भ 
महापुरुषों की चोराहो पर विराजित  प्रतिमा
 हम देवी देवता दिगंबर पैगम्बर तिर्थंकरो की पूजा करते है 
परन्तु हम उनकी पूजा क्यों करते है 
कोई कहता है आत्मा की शान्ति के लिए
 तो कोई कहता है लोक कल्याण और विश्व शान्ति के लिए
 कोई तर्क देता ईष्ट से हमें आशीष प्राप्त होता है 
मनोकामनाये पूर्ण होती है
 पर सच्छाई यह है की पूजा का मार्ग सरल है 
अनुसरण का मार्ग कठिन है 
कुछ लोग धर्म स्थलों  पर इसलिए जाते है 
 ताकि दूसरे लोग उन्हें धार्मिक समझे 
धर्म के आवरण में उनके व्यक्तित्व के नकारात्मक पहलू 
उजागर न हो छुपे रहे
जो व्यक्ति पूजा के मार्ग को अधिक महत्त्व देते है
 वे व्यक्ति विशेष ,सम्प्रदाय विशेष को  महत्व  देते है 
वास्तव में वे साम्प्रदायिक होते है 
अपने भीतर के  आत्मविश्वास के अभाव में 
सदा तरह तरह के गुरुओ की तलाश में लगे रहते  है
कर्म की आराधक
तो देवताओं प्रतीकों से प्रेरणा पाते है 
महापुरुषों द्वारा स्थापित आदशो का अनुसरण करते ऊर्जा पाते है

Thursday, September 5, 2013

विश्वामित्र का सूत्र

पुरातन काल में राक्षस ऋषि मुनियों को परेशान करते थे
उनके अग्निहोत्र यज्ञादि अनुष्ठानो में विघ्न उत्पन्न करते थे
त्रेता युग में इस समस्या से मुक्ति पाने के लिए 
महर्षि विश्वामित्र ने अयोध्या के राजा दशरथ से
 उनके पुत्र राम और लक्ष्मन को माँगा था
इस प्रसंग को हम भले सामान्य वृत्तांत मान ले 
परन्तु इस वृत्तांत में
वर्तमान में विद्यमान समस्याओं के समाधान है
वर्तमान में भी श्रेष्ठ कर्म में रत रहने वालो को
 दैत्य और राक्षस प्रवृत्ति वाले लोग 
तरह  तरह से परेशान करते है
 महर्षि विश्वामित्र अर्थात ऐसा स्वभाव 
जो विश्व को मित्रवत बना सके
हमें ऐसा स्वभाव स्वयं का विकसित करना चाहिए
जिससे हमारे मित्रो की संख्या में वृध्दि हो सके
ऐसे स्वभाव को प्राप्त करने के पश्चात हमें
 हमारी तन मन की अयोध्या के दशरथ से
श्रीराम रुपी धनुर्धर को मांगना होगा 
तब ऐसा श्रीराम रूपी धनुर्धर अपने भ्राता 
लक्ष्मन अर्थात लक्ष्य जिसेश्रेष्ठ  उद्देश्य भी कहते है के माध्यम से  सद  प्रव्रत्ति रूपी ऋषि मुनियों को सरंक्षण करते है

Tuesday, September 3, 2013

सत्य की मंजिल को पाना होगा

परिवेश में सकारात्मकता और नकारात्मकता 
दोनों बिखरी हुई है
 प्रश्न यह है कि हमें क्या पाना है
सकारात्मकता रहती सज्जनों के पास है
 नकारात्मकता में रहते दुर्गुण है 
दुर्जनों में उसका निवास है 
सकारात्मकता में सत्य की सत्ता है 
ओज है ऊर्जा है 
नकारात्मकता में नहीं अपनापन है
 परायापन अविश्वास है 
हर रिश्ता लगता दूजा है
 जीवन में यदि सकारात्मकता चाहते हो 
जीवन से नकारात्मक भाव हटाना चाहते हो तो 
सज्जनता की और प्रयाण करो 
दुर्जनता दुर्गुणों से रहो विमुख 
दुष्टों का कभी मत गुणगान करो 
जीवन को चारो और नकारात्मक वातावरण ने घेरा है
 नकारात्मकता  के अँधेरे  में यह सारा जग ठहरा है
सकारात्मक सोच में ही सृजन का  ध्वज फहरा है
बुरे  हालात में क्यों न कुछ  अच्छा से अच्छा किया जाए
बुराईयों के बीच रह कर जीवन सच्चा जिया जाए
बस यही सही सोच अपनाना होगा 
सकारात्मकता को अपनाकर ही 
 सत्य की मंजिल को पाना होगा