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Sunday, March 25, 2012

वर्णाश्रम व्यवस्था एवम देश की अर्थ व्यवस्था

शास्त्रों में हमारे शरीर को चार वर्णों में विभक्त किया गया है
 हमारे मस्तक को ब्राह्मण 
, वक्ष तथा हाथो को क्षत्रिय
 एवम उदर को वैश्य 
कटी भाग के नीचे अर्थात पैरो को शुद्र के रूप में संज्ञा दी गई है
 जिस प्रकार सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए 
सभी वर्णों को अपनी योग्यता के अनुसार 
कार्य करने की आवश्यकता है 
इस तथ्य को हमारे शरीर के माध्यम से इस प्रकार समझ सकते है 
की हमारे वक्ष तथा हाथ हमारे शरीर की रक्षा करते है 
उसी प्रकार से देश की सेना तथा आंतरिक सुरक्षा बल देश एवम समाज की सुरक्षा करते है 
वे क्षत्रिय धर्म का पालन करते है 
देश के वैज्ञानिक ,अर्थशास्त्री ,शिक्षाशास्त्री चिन्तक ,विधिवेत्ता हमारे मस्तक अर्थात ब्राह्मण वर्ण का कार्य करते है  
उदर वैश्य का इसलिए कार्य करता है 
क्योकि वह ग्रहण किया गया अन्न को अवशोषित कर सम्पूर्ण शरीर को पोषण प्रदान करता है  
कटी भाग के अधोभाग में पैर शरीर को गतिशील रखते है 
जिस प्रकार से प्रशासनिक अधिकारी एवम कर्मचारी ,कृषक ,मजदूर सारे देश के उत्पादन क्षमता को गति प्रदान करते है 
यदि वैश्य वर्ग में संग्रह प्रवृत्ति बढ़ती  
उसी प्रकार से व्यक्ति के आलस्य के कारण 
मानव का पेट बाहर निकल जाता है 
ऐसा इसलिए होता है 
की प्रशासनिक व्यवस्था के निकम्मेपन एवम निष्क्रियता के कारण व्यापारी वर्ग  बड़े बड़े गोदाम अनाज भरे जाते है
 इसी कारण अर्थ व्यवस्था में महंगाई में वृध्दि होती 
अर्थात व्यक्ति का पेट बड़ने से  शरीर भिन्न -भिन्न प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाता है 
इसका तात्पर्य यह है 
हमारे शरीर की भाँती हमारे देश एवम समाज की व्यवस्था चलती है  जिस प्रकार से हमने अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं दिया 
तो शरीर रुग्ण हो जाता है उसी प्रकार देश के वर्णाश्रम व्यवस्था में संलग्न अंगो द्वारा  अपने कर्तव्यो का भली भाँती कर्तव्य का निष्पादन नहीं किया तो देश की सम्पूर्ण व्यवस्था बिगड़ जाती है 

धर्म













धर्म 
बात पुराने समय की हैं जब लोग तीर्थ यात्रा के लिए पैदल ही जाते थे परिवहन का कोई साधन  उस समय उपलब्ध नही था 
रेल, बस, मोटर गाड़ी को कोई नही जानता था इन सब का अस्तित्व ही नहीं था तब लोग पैदल ही मिलो की धुरी अपने पेरो से तय करते थे हाँ कभी कभी वे अपने साथ अपने पालतु पशुओ जेसे गधे खच्चर आदि को समान और सवारी के निम्मित ले जाते.
उस समय यात्रा अवधि बहुत लबी हो जाती  और रास्ते मैं भोजन पानी की भी कोई सुविधा नहीं होती तो लोग अपने साथ सतू  और चना आधी खाने को ले जाते.


ऐसे ही समय की ये  घटना हैं - सदियों से ये परम्परा हैं की भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग रामेश्वरम जो की दक्षिण भारत मैं स्थित हैं उनका अभिशेख उत्तरभारत  मैं बहने वाली भारत की आत्मा माँ गंगा के जल से ही किया जाता रहा हैं.
वहा के पुजारी और स्थानीय श्रद्धालु लोग अभिषेख  के लिए गंगा जल लाने के लिए भारत के एक छोर से दुसरे छोर तक की कठिन यात्रा करते और माँ गंगा का जल लाकर भगवान् शिव का अभिषेक करते.


पुजारियों  का एक दल उत्तर भारत से माँ गंगा का जल अपने साथ लेकर दक्षिण भारत मैं अपने आराध्य  श्री रामेस्वरम का  जलाअभिसेख  करने के लिए कठिन रास्तो को  को पार कर अपने गंतव्य की और बड  रहा था  मार्ग मैं कई स्थान  अतिभयानक थे लम्बी यात्रा मैं कई बार ऐसे स्थान पड़ते जहा पीने को जल और फल आदि भी नहीं मिलते ऐसे ही एक स्थान से ये दल गुजर रहा था सूरज की तेज किरणों से जमीन  जल रही थी धुर धुर तक  पानी का नामो निशाँ नहीं था सभी बेहाल थे पर अपने स्वामी का  जलाअभिशेख करने की कामना उन्हें शक्ति देती सभी भगवान रामेश्वरम का जयघोष करते हुए बड रहें थे तभी उन्हें रास्ते मैं किसी जीव की दर्दनाक वाणी सुनाई दी देखा तो एक गधा गर्मी से व्याकुल प्यास  से तडप  रहा था उसकी स्थति अत्याधिक गम्भीर थी उसे देख कर लग रहा था की उसकी कुछ ही साँसे शेष हैं .
दल के लोग रुक गये एक ने कहा अरे ये बेचारा तो बहुत संकट  मैं हैं  प्यास से तडप रहा हैं, दूसरा बोला लगता हैं किसी यात्री का होगा पानी की कमी होगी तो इसे यहाँ मरने के लिए छोड़ गया होगा.
चलो अब तो भगवान ही इसका मालिक हैं बिना पानी के इसका  मरना तय हैं आगे भोलेनाथ की इच्छा.
सभी उसे मरता छोड़ कर जाने लगे पर एक आदमी वही रुक गया उससे गधे का दर्द देखा नही जा रहा था वो मन ही मन कुछ सोच रहा था उसने भगवान शिव का स्मरण किया और रामेश्वरम अभिशेख के लिए लाया अपना गंगाजल उस गधे को पिलाने लगा .
उसे देख दुसरे लोग चकित रह गए .
अरे ये क्या कर रहें हो भाई  ये गंगा जल भगवान  शिव के अभिशेख के लिए था तुमने इतना कष्ट उठा  कर महीनो लम्बी कष्टों से भरी यात्रा कर ये गंगा जल भारत के एक कोने से दुसरे कोने को पार कर अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए लाये थे और तुमने अपना  गंगा जल इस गधे  को पिला दिया शिव -शिव बड़ा पाप किया तुमने अब तुम्हारा मनोरथ पूरा नही होगा तभी वो आदमी बोला अरे भइया मेरा गंगा जल इसकी प्यास भुझाने के लिए पूरा नही हैं क्रपा कर के आप लोग भी इसे थोडा सा जल पिला दो बेचारा बहुत तडप रहा हैं बहुत दिनों  से प्यासा हैं हो सकता हैं पानी पीकर ये पुनह स्वस्थ हो जाये इसमें  तोड़ी शक्ति आ जाये. 


शिव शिव क्या बक  रहें हो हमे भी पाप का भागी  बनाओगे ये जल हमारे रामेश्वरम के लिए हैं ये हम उन्ही को अर्पित करेंगे , किसी ने अपना जल नहीं दिया. गधे ने जब उस आदमी का गंगा जल पिया तो उसे बहुत राहत मिली पर पानी उसके लिए काफी नहीं था और गधा प्यासा ही मर गया.
आदमी की आखों से आसू बहने लगे उसे दुःख था की वो गधे की प्यास नही बूझा पाया. 
लो मर गया ना और  तुम्हारा  सारा  जल भी  समाप्त हो गया. 


अब आप ही विचार कीजिये की धर्म क्या हैं क्या रामेश्वरम को जल अर्पित करके वो आदमी धर्म को प्राप्त करलेता  या  उस आदमी ने उस  मरते  हुए प्यास से व्याकुल जीव को पानी पिला कर पाप किया,   
या फिर उसने अपने  धर्म को परिभाषित किया.


क्या वो लोग धर्म को पा  लेगे क्या वो लोग भगवान् को अधिक प्रिय होंगे क्या सच मे भगवान  उन पर कृपा करेगें जिन्होंने भगवान के ही अंश उस जीव को पानी की कुछ बुँदे  देना भी पाप समझा.
  
भगवान ने हमे ये जीवन क्यों दिया इस पर विचार करे धर्म को समझना अति कठिन हैं और उसका पालन करना और भी कठिन आज जहाँ सारी दुनिया धर्म के नाम पर निर्दोष प्राणियों की बली दे रही हैं कर्म काण्ड से अपने को धर्मात्मा सिद्ध कर रहें  हैं वही कुछ  लोग अपने जीवन को परहित मैं लगा कर धर्म की स्थापना कर रहें  हैं.
  
"परहित सरस धर्म हैं नाही परपीड़ा सम दुःख कछु नाही" 


गधा तो मर गया पर मरते मरते उसे संतोष था क्योकि जल की कुछ बुँदे उस के लिए किसी अमृत से कम नही थी आदमी के दिल मैं भी शांति थी की उसने एक मरते हुए को थोडा सुख पहुचाया
और यही सच्चा धर्म हैं 
                                                                         जय भोलेनाथ