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Thursday, November 29, 2012

स्वाभिमान


स्वालम्बन का सीधा सम्बन्ध स्वाभिमान से होता है
स्वाभिमानी व्यक्ति को अात्म सम्मान से बहुत अधिक प्यार होता है
वह किसी भी कीमत पर अपने अात्म सम्मान के ठेस लगने पर
समझौता नही करता
अात्मसम्मान को ठेस लगते ही
वह कितने ही बडे प्रलोभन को एक क्षण मे ठुकरा देता है
स्वालम्बन जीवन मे उत्थान का प्रथम लक्षण है
स्वाभिमान व्यक्ति को उर्जा प्रदान करता है
व्यक्ति उसमे निहित क्षमता से स्वयम को प्रमाणित करने हेतु
अतिरिक्त क्षमता से कार्य करता है
स्वाभिमानी व्यक्ति विश्वसनियता की प्रतिमूर्ति होता है
ऐसा व्यक्ति पहली बार देखने मे अभिमानी स्वभाव का प्रतीत होता है
परन्तु शनै :शनै :परिचय होने पर उसका
वास्तविक स्वरुप समझ अा जाता है
मिथ्याभिमान अयोग्यता का प्रतीक होता है
ऐेसा व्यक्ति निरन्तर एक प्रकार की भ्रान्ति मे विचरण करता है
मानो वह बहुत अधिक योग्यता धारण करने वाला व्यक्ति है
ऐसे व्यक्ति अपने मिथ्याभिमान से स्वयम का नुकसान तो करते ही है
साथ ही वह स्वर्णिम अवसरो का लाभ भी नही उठा पाते है
मिथ्याभिमानी व्यक्ति का अभिमान जितनी जल्दी दूर हो जाये वह श्रेयस्कर है

महत्वकांक्षा

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अाकांक्षा प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय मे
किसी वस्तु ,विषय,भोग ,उद्देश्य को पाने की इच्छा है
व्यक्ति इच्छाअो का कोई अन्त नही है, 
वर्तमान मे पद ,यश,शक्ति,
अधिक अार्थिक सामर्थ्य को पाने की अाकांक्षा
जिसे महत्वकांक्षा के रूप से संबोधित किया जाता है
चिंतन का विषय है
महत्वकांक्षा यदि व्यक्ति की सामर्थ्य एवम योग्यता के अनुपात मे हो तो
व्यक्ति ऐसी अाकांक्षा को प्राप्त करने के लिये
 अवैध साधनो का प्रयोग नही करता
किसी का शोषण नही करता ,क्रुरता कारित नही करता,
अनावश्यक वैभव का अतिरेक प्रदर्शन नही करता
वास्तविक सामर्थ्य अौर पात्रता के अभाव मे
व्यक्ति अपनी महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिये उपरोक्त उपाय अपनाता है
अाचरण से भ्रष्ट होता है
अाचरण से भ्रष्ट होकर व्यक्ति भले ही
अपनी राजनैतिक ,पदिय ,अार्थिक,महत्वकांक्षा की पूर्ति कर ले
परन्तु पद या अाकांक्षा की प्राप्ति के पश्चात न प्राप्ति का मूल्य रहता है
न व्यक्ति का मूल्यवान रह पाता
ऐसे महत्वकाक्षी को इतिहास सदा हेय द्रष्टि से ही देख पाता है
इतिहास साक्षी है ऐतिहासिक व्यक्ति वे ही कहलाये
जिन्होने व्यक्तिगत महत्वकांक्षा को परे रख
समाज राष्ट्र को सर्वोपरि मान कर
अपने पावन उद्देश्य बनाये
समाज मे हम ऐसे व्यक्तियो को भी देखते है
जिन्होने सभी प्रकार के संसारिक भोगो को त्याग दिया परन्तु
लोकेषणा से जुडी अाकांक्षा से मुक्ति प्राप्त नही कर सके
ऐसे व्यक्ति अपने कर्म तथा संस्कारो से समाज मे
पूज्य होकर भी होकर लोकेषणा मे लिप्त दिखाई देते है
भविष्य मे उनके पतन की संभावना इसी प्रव्रत्ति के
कारण बनी रहती है
हम ऐसे महापुरुषौ को भी देखते है
जिन्होने महान अौर समाज उपयोगी कार्य
किसी प्रकार के प्रचार -प्रसार से दूर रह कर
मौन साधक के रूप मे किये
किसी भी पद पर न होने के बावजूद
वास्तव मे महानता के सर्वोच्च शिखर पर पदासीन है
जन-जन के ह्रदय कमल पर अासीन है



Wednesday, November 28, 2012

नदी



 
नदी गतिशील हो ​,सागर को नापती है
नदी की हिम्मत से,सीमाये काॅपती है
नदी नदी नही,बहती  हुई सदी है
नदी की गति से ऊॅचाई  पर्वत की  हाॅफती है

Tuesday, November 27, 2012

स्नेह


स्नेह जब ममत्व का रूप धारण करता है
तो ममता कहलाता है
स्नेह जब करूणा का रूप धारण करता है
तो मानवता कहलाता है
स्नेह जब पीठ थपथपाकर अाशीष देता है
तो पित्रत्व का भ्रात्रत्व का  भाव कहलाता है
स्नेह जब मधुर भावना से अाहार खिलाता है
अाहार मे सौहार्द सदभाव मिलाता है
तो भीतर से उर्जा को बाहर ले अाता है
स्नेह के कई रूप होते है
कभी शीतल सी भावना तो कभी तेज
अौर अोज की धूप होते है
स्नेह कभी भगवान क्रष्ण बनते है
राधा के रूप मे सम्वेदना के तार बुनते है
स्नेह बनता है शबरी तो ,झुठे बैर श्रीराम खाते है
जात -पात अस्पर्श्यता की दूरियो को वे मिटाते है
योगेश्वर श्रीक्रष्ण का समस्त जीवन स्नेह से भरा है
स्नेह शुन्य व्यक्तित्व तो ​​मरा है अधमरा है

Monday, November 26, 2012

व्यक्तित्व निर्माण मे अनुकूलन क्षमता

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व्यक्तित्व निर्माण के क्षैत्र मे एक महत्वपूर्ण सूत्र है
स्वयम मे अनुकूलन क्षमता का विकसित करना
अनुकूलन क्षमता का सीधा सम्बन्ध विपरीत परिस्थितियो
स्वयम की क्षमता का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होता है
अथवा नितान्त जीवन के लिये अनुपयुक्त परिस्थितियो मे
जीवन निर्वाह कर लेना अनुकूलन क्षमता होती है
अनुकूलन क्षमता के प्रमाण प्रक्रति मे चारो तरफ बिखरे पडे है
हाइड्रिला नामक जलीय पौधा का निरन्तर 
जल मे मग्न रहते जीवित रहना
,नागफनी का पौधे का मरूथल मे जीवन को बचाये रखना
वनस्पतिक अनुकूलन क्षमता है
हम बहुत से ऐसे लोगो को जानते है
जो निरन्तर परिस्थितियो का रोना रोते रहते है
मौसम को कोसते है
अपनी असफलताअो के लिये दूसरो को दोषी मानते है
वे व्यक्ति जीवन मे कभी सफल नही हो सकते है
सफल वह व्यक्ति होता है जो घोर विषम परिस्थितियो मे भी
धैर्य नही खोता ,परिस्थितियो से सन्तुलन स्थापित कर
अपने लक्ष्य की अोर निरंतर अग्रसर होता जाता है
प्रत्येक परिस्थिति मे संतुष्ट रहता है
अपनी वास्तविक क्षमता अौर कमजोरियो को अच्छी तरह जानता है
निरन्तर अात्म मुल्यांकन करता रहता है
अपनी मौलिक क्षमता के अनुरुप लक्ष्य निर्धारित करता है
असफल होने पर निराश नही होता है
असफलता मे सफलता के बीज तलाश करता है
ऐसा व्यक्तित्व विपरित परिस्थितियो रोना नही रोता
अपितु प्रतिकूलताअो को अपने लिये वरदान बना लेता है
इतिहास साक्षी है सम्राट चन्द्रगुप्त , योगेश्वर श्रीक्रष्ण
शैशव काल से ही घनघोर प्रतिकूलताअो मे रहे
पर वे कभी दुखी नही हुये स्वयम दुखो से घिरे होने के बावजुद
 दूसरो के दुख कम किये
संसार प्राणीयो की अाॅखो से अाॅसू पौछे
अनुकूलन क्षमता का अाशय यह नही है कि
विचारो से समझौता कर पतन की राह पर चले जाना
अनुकूलन क्षमता सकारात्मक सोच को 
अागे बढाने वाली होनी चाहिये
जिस प्रकार हमारे महापुरुष महाराणा प्रताप ने
वनवासियो की तथा भगवान राम ने वानरो की क्षमताअो
का उनके बीच रह कर समाज कल्याण 
तथा राष्ट्र रक्षा के लिये उपयोग किया
नकारात्मक विचारो प्रभावित हुये बिना
अपने सर्वोच्च अादर्शो पर टिके विचारो से 
जन -मन को प्रभावित किया था

Friday, November 23, 2012

अवसर,उपलब्धि एवम सफलता

तीन प्रकार व्यक्ति थे
प्रथम प्रकार के व्यक्ति को राह पर पडा
काॅच का टुकडा पडा मिला
उसने काॅच के टुकडे को हीरा समझ कर
अपने पास रख लिया
दूसरे व्यक्ति को राह पर हीरा मिला
जिसे उसने काॅच टुकडा समझ कर फेंक दिया
तीसरा व्यक्ति जिसे काॅच के टुकडे
अौर हीरे मे अन्तर ज्ञात था
फेंके गये हीरे को अपने पास रख लिया
आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन मे
कर्मरत रहते कुछ उपलब्धिया हासिल होती
व्यक्ति उन उपलब्धियो अौर अवसरो की पहचान करे तो
उपब्धिया अनमोल रुप धारण कर
व्यक्ति के लिये जीवन पर्यन्त उपयोगी रहती है
कुछ व्यक्ति अपने जीवन मे काॅच के टुकडे के
समान बहुत सी अनुपयोगी वस्तुअो
अौर गुणहीन
                              व्यक्तियो के समूह को एकत्र कर
उन्हे अनमोल समझने की गलती कर बैठते है
हम बहुत से ऐसे व्यक्तियो को देखते है
जो जीवन मे हीरे या स्वर्ण के समान हाथ मे
अाये अवसरो को पहचान नही कर
पाने की वजह से उन्हें खो बैठते है
जबकि सभी जानते है कि जीवन मे सुनहरे
तथा हीरे से मूल्यवान अवसर बार-बार नही मिलते है
कितना भी दुर्भाग्यशाली व्यक्ति हो
उसके जीवन मे स्वर्ण अवसर उपलब्ध हो जाता है
परन्तु वह उसे पहचान नही पाता है
जीवन मे सुनहरे अवसरो की पहचान ही उपलब्धि बन जाती है
ऐसे कई उपलब्धियों का समूह व्यक्ति को
समग्र रुप से सफलता प्रदान करती है

Wednesday, November 21, 2012

राधा क्रष्ण

राधा अौर क्रष्ण प्रेम शब्द के प्रतीक है
प्रेम शब्द जब अध्यात्मिक स्तर तक पहुॅच जाता है
तब परमात्मा श्रीक्रष्ण तथा अात्मा राधा का 
  रुप धारण कर लेती है
राधा अौर श्रीक्रष्ण भगवान के प्रेम की गहराई त
था उसकी अलौकिक ऊॅचाई
संत, महंत ,सूर ,मीरा ने अपने अपने तरीके से अभिव्यक्त की है
पर उनके प्रेम की व्याख्या अाज भी अधूरी है
राधा अौर क्रष्ण के सम्बन्ध मे किसी प्रकार का अनुबंध नही है
अनुबंध तो सम्बन्ध को संकीर्ण बना देता है
अनुबंध से जुडे सम्बन्ध देहिक होते है
राधा अौर क्रष्ण का सम्बन्ध किसी प्रकार की परम्पराअो
रिति रिवाजो के मोहताज नही रहे है
वैवाहिक समारोह की किसी सामाजिक मान्यता से परे
राधा अौर क्रष्ण का प्रेम तो अात्मा की 
  परमात्मा से अासक्ति है
अौर सामाजिक बन्धनो से मुक्ति है विरक्ति है
यदि हम स्वयम को किसी कर्म काण्ड विधी-विधान से
परमात्मा तत्व से जोडते है
तो परमात्मा की सीमित क्रपा ही प्राप्त होती है
अात्मा को हम राधा के समान
किसी लौकिक मर्यादा अनुष्ठानो से परे
परमात्मा से जोडते है तो
परमात्म रूप क्रष्ण तत्व स्वयम
हमारी अात्मा की अोर खींचा चला अाता है
तब परमात्मा रूपी श्री क्रष्ण की
अानन्द की बाॅसुरी की ध्वनि हमारे अतिरिक्त
अौर किसी को सुनाई नही देती है

Tuesday, November 20, 2012

संकल्प शक्ति आभाव व् द्रढ़ता -












संकल्प शक्ति आभाव व्  द्रढ़ता -

संकल्प कोई छोटा मोटा शब्द भर नही हैं ये एक एसा शब्द हैं जो अपने आप मैं एक पूरा इतिहास लिए हुए हैं ये बहुत महान शब्द हैं और केवल पुरषार्थ करने वाले लोग ही इस शब्द का महत्व जानते हैं .

संकल्प का  अर्थ क्या होता हैं  -  
इस विषय मैं इतना ही कहा  जाना उचित हैं की किसी कार्य को करने के लिए अथवा न करने योग्य कार्य को करने से स्वयम को रोकने के लिए मन को कठोर करना स्वयम को प्रेरित करना मन को अनुशासित करना उसके पश्चात स्वयम को अनुशासित करना और फिर धर्म अनुरूप उसे करना न करना यही संकल्प की मोटी मोटी परिभाषा हैं

कार्यो का लक्ष्य स्वरूप ( करने व त्याज कार्यो का स्वरूप ) -

अब कल्पना कीजिये की आप ने संकल्प लिया की मैं सुबह चार बजे उठ कर दौड़ लगाने जाऊंगा, अब यदि आप किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर कठोर संकल्प लेते हैं तो अवश्य आप उठेगे, परन्तु यदि आप मैं संकल्पशक्ति का आभाव हुआ तो सुबह की गहरी नींद ,रजाई की गर्माहट ,और आलस्य का आनन्द आप के संकल्प पर भारी पड़ जायेगा और आप कभी अपने लक्ष्य को नही पा सकेंगे .
आप जीवन मैं कोई भी लक्ष्य निर्धारित करे तो उसे पूरा करने के लिए कठोर परिश्रम और  त्याग करना अनिवार्य हैं और ये त्याग - परिश्रम आपके ही संकल्प की उत्पति हैं .
यदि किसी को कोई बुरा व्यसन हैं तो उसे छोड़ने के लिए कठोर संकल्प लेना जरूरी हैं शराब की लत सिगरेट की लत आदि मादक पदार्थो से स्वयम को मुक्त  करने के लिए दृढ इच्छाशक्ति का होना आवश्यक हैं और ये  इच्छा शक्ति कठोर संकल्प से ही प्राप्त हो सकती हैं .

आज हमारे इतिहास और वर्तमान मैं जितने भी महान और आदर्श हमे देखने  व सुनने  मैं आते हैं  वे अपने द्वारा किये  गये महान कार्यो को अपने संकल्प से मूर्त रूप देकर ही इतने महान बने है।
उन्होंने वो काम किया जो साधारण लोगो को असम्भव प्रतीत होते हैं   अगर इनके संकल्प मैं कमी होती तो इतिहास के पन्नो मैं इनका नाम नही आता कमजोर संकल्प वाला व्यक्ति कभी इतिहास के पन्नो पर अपना  नाम नही लिख पाया हैं वो उसी तरह मिट गया जेसे पानी पर खिची कोई लकीर मिट जाती हैं .

किसी पहाड़ की छोटी पर एक विशाल पाषण शिला रखी थी  शिला पर लिखा था  -
"उत्थान कठिन हैं पतन सरल हैं" 

व्यक्ति को अपने उत्थान के लिए जितने भी कार्य करने पड़ते हैं वो सब कठिन हैं उन कामो को करने के लिए बहुत कष्ट सहना पड़ता हैं कई बाधाये पार करनी पडती हैं कई प्रकार के लालच जीवन मैं आते हैं और इन सब को जीत कर ही मनुष्य महान बनता हैं उत्थान के शिखर पर पहुचता हैं लाखो करोड़ो मैं कोई एक विवेकानंन्द होता हैं।

किसी सुंदरी के रूप और योवन  के आकर्षण मैं आकर काम के वेग मैं बहना अति सरल और आनंद देने वाला होता हैं पर करोड़ो मैं कोई एक एसा भी होता हैं जो अपने  लक्ष्य के आगे इस प्रस्ताव को ठोकर मार दे .
और  वही भीष्म कहलाता हैं।

आज के वर्तमान युग मैं चारो और भोतिक्तावादी संस्क्रति का बोल बाला हैं 
नित्य नए आकर्षण हमे अपने लक्ष्य से भटकाने के लिए तैयार खड़े हैं पर यदि हम अपने आदर्शो और इतिहास से प्रेरणा ले और अपनी संकल्पशक्ति के बल पर इन सभी बाधाओ पर विजय पा ले तो अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
हमारे इतिहास धर्म ग्रंथो मैं जितने भी महापुरुष व् अवतार हुए उन्होंने अपने कर्मो द्वारा हमे यही ज्ञान दिया हैं।

Monday, November 19, 2012

त्रिदेव और लोकतंत्र तीन स्तम्भ


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लोकतंत्र के मुख्य रूप से तीन स्तम्भ
विधायिका ,कार्यपालिका,न्यायपालिका है
कभी हमने सोचा है कि त्रिदेव ब्रह्मा,विष्णु ,महेश,के
व्यक्तित्व से भी तीनो स्तम्भो की भूमिका को हम भली भाॅती समझ सकते है,
यदि विधायिका का कार्य एवम अाचरण अौर भूमिकाब्रह्म देव के समान हो
तथा कार्यपालिका अर्थात प्रशासनिक अधिकारियो का कार्य एवम
अाचरण अौर भूमिका भगवान विष्णु के समान हो
व न्यायपालिका की भूमिका महेश अर्थात शिव के समान हो
तो तीनो स्तम्भ एक दूसरे के पर्याय रहेगे
एेसा लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये शुभ रहेगा
जिस प्रकार प्रत्येक कल्प के ब्रह्मा अलग-अलग होते है
उसी प्रकार से प्रत्येक पाच वर्षो के अन्तराल के पश्चात
जनता निर्वाचन प्रक्रिया के माध्यम से नई विधायिका का गठन करती है
विधायिका अर्थात लोकसभा ,राज्य सभा ,विधान सभा
जिस प्रकार से समय समय पर अावश्यकता के अनुरूप विधेयको को पारित कर
अधिनियमो का निर्माण करते है
उसी प्रकार से ब्रहम देव स्रष्टि मे अावश्यकता के अनुरुप
जीवो,वनस्पतियो,ग्रहो ,उपग्रहो,ब्रह्माण्ड की रचना कर उनकी अायु अाकार प्रकार
अौर भूमिका निर्धारित करते है
विधायिका देश के सभी समुदायो का प्रतिनिधीत्व कर
उनके हितो के प्रति जबाब देह होती है
उसी प्रकार से ब्रह्म देव उनके नर ,दानव ,देवता,गन्धर्व इत्यादि को
उनके प्रारब्ध अौर पुरुषार्थ के अनुसार वरदान अौर उचित योनि मे जन्म प्रदान करते है
परिणाम चाहे जो हो वे अपने विधान को बदलते नही है
विधायिका के सदस्यो अर्थात जन प्रतिनिधियो को
उसी प्रकार से अपने चिन्तन ,ग्यान अौर दर्शन की
चहू दिशाये तथा सम्वाद के सभी मार्ग खुले रखने चाहिये
जिस प्रकार से बह्म देव चारो दिशाअो मे चार मुखो से अौर अाठ अाॅखो से
स्थितियो का समुचित अध्ययन करते रहते है तथा सम्वादरत रहते है
ब्रह्मदेव का कमल अासन पर विराजित होना हाथो मे किसी प्रकार का
अस्त्र नही होकर वेद ग्रन्थ होना इस तथ्य का प्रतीक है कि
विधायिका मे बाहुबली या अपराधी तत्वो को निर्वाचित नही होना चाहिये
सज्जन अौर ऐसे सतोगुणी का निर्वाचित होने चाहिये
जिन्हे विधी या सामाजिक सन्दर्भो से जुडे विषयो का पर्याप्त ग्यान या
अनुभव हो या जो इनमे रूचि रखते हो
विधायका को कार्यपालिका अौर न्याय पालिका के प्रति उसी प्रकार से
सम्मान का भाव रखना चाहिये जिस प्रकार से ब्रह्मदेव
भगवान विष्णु अौर शिव के प्रति रखते है
हम यह देखते है कि भगवान विष्णु प्रत्येक प्रकार का कार्य करने हेतु
तत्पर रहते है तथा उन्होने जितने अवतार धारण किये है
उतने किसी भी अन्य देवता ने अवतार धारण नही किये है
अवतारो के माध्यम से भगवान विष्णु ने निरन्तर समाज को समधान प्रदान किये है
उसी प्रकार से कार्यपालिका को विविध अायामो मे प्रवेश कर समाज अौर देश की
समस्याअो को सुलझाने हेतु तत्पर रहना चाहिये
भगवान शिव जो लोकतंत्र के तीसरे स्तम्भ अर्थात न्याय पालिका
के प्रतीक के रूप मे है का व्यक्तित्व यह बताता है
न्याय पालिका के कनिष्ठतम से वरिष्ठतम न्यायाधीश का व्यक्तित्व कैसा होना चाहिये
भगवान शिव जैसा वैरागी स्वभाव , सर्वहारा वर्ग के लिये संवेदना की भावना
,समाज के अभिजात्य वर्ग से लगाकर उपेक्षित वर्ग तक समानता का भाव
,गरिमापूर्ण अाचरण शिव जी को सभी देवो मे विशिष्ट बना कर महादेव बनाता है
उसी प्रकार से न्यायपालिका का सच्चा प्रतिनिधि शिव के व्यक्तित्व का न्यायाधिश
समाज के प्रत्येक व्यक्ति मे न्याय के प्रति श्रद्धा की भावना उत्पन्न करता है

Saturday, November 17, 2012

प्राथमिकताये लक्ष्य और सफलता


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व्यक्ति ,परिवार ,संस्थान हो या देश ,प्रदेश हो सफलता अर्जित करने का
महत्वपूर्ण सूत्र है प्राथमिकताअो का निर्धारण करना
प्राथमिकताये निर्धारित किये जाने से
व्यक्तिगत तथा सामुहिक उर्जा को सही दिशा दी जा सकती है
एक ही दिशा मे सामुहिक अौर समग्र उर्जा लग जाने से
कठिन लक्ष्य भी प्राप्त किया जा सकता है
भिन्न-भिन्न समूह के व्यक्तियो तथा संस्थानो के लिये
प्राथमिकताअो का निर्धारण एक जैसा नही हो सकता है
अावश्यकताअो के अनुरुप प्राथमिकताये भिन्न -भिन्न प्रकार की होती है
उचित पोषण ,स्वास्थ्य ,शिक्षा ,अावास व्यवस्था
व्यक्ति के जीवन के लिये मूल भूत अावश्यकता है
प्राथमिकताअो का निर्धारण उपरोक्त तथ्यो को देखकर किया जाता है
तो व्यक्ति हो या परिवार हो उनकी सफलता मे कोई संशय नही रहता
वर्तमान मे उपभोक्तावादी वातावरण मे व्यक्ति अपनी मूलभुत अावश्यकता के स्थान पर
विलासिता की वस्तुअो को महत्व देने लगा है
निर्वाचित सरकारे जनता की बुनियादी अावश्यताअो के 
स्थान पर बजट विलासिता की के मद मे अधिक वित्त की 
व्यवस्थाये करने मे लगी हुई है
जिसका परिणाम व्यक्ति अौर सामाजिक जीवन मे असंतोष 
अौर अाक्रोश उत्पन्न हो रहा है
जैसे छात्र के लिये शिक्षा ग्रहण करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये
व्यवसायी की प्राथमिकता एवम प्रतिबद्धता उसके व्यवसाय के लिये होनी चाहिये
किसी भी वस्तु का उत्पादन करने वाली संस्था द्वारा यदि वस्तुअो के उत्पादन तथा
उनकी गुणवत्ता की अोर ध्यान न देकर जन कल्याणकारी योजनाअो की
अोर ध्यान दिया गया तो प्राथमिकताये अनुचित प्रकार से निर्धारित होने से
उसकी व्यवसायिकता सफलता संदिग्ध रहेगी
स्थानीय या स्वायत्तशासी निकाय संस्थाअो की प्राथमिकताअो का क्रम
स्वच्छता ,जन स्वास्थ्य ,अधोसंरचना का विकास ,उध्यानो का निर्माण
तथा चौराहो का सौन्दर्यीकरण होना चाहिये
वास्तव मे वर्तमान मे कार्यशील उपरोक्त संस्थाये क्या प्राथमिकताये
इसी प्रकार से निर्धारित कर कार्य कर रही है ऐसा देखने मे नही अाता है
व्यक्ति, संस्था ,देश ,प्रदेश के द्वारा प्राथमिकताअो का जो क्रम निर्धारित
किया जाता है उसकी दिशा अौर दशा को दर्शाता है
राष्ट्र निर्माण की प्राथमिकताये क्या होनी चाहिये
यह हमारे संविधान निर्माताअो द्वारा प्रस्तावना
मौलिक अधिकारो तथा नीती निर्धारक तत्वो मे उल्लेखित किया है
वर्तमान मे व्यक्ति ,परिवार, समाज,संस्थानो, राष्ट्र मे जो दुष्परिणाम देखने मे अा रहे है
वे प्राथमिकताये निर्धारित न किये जाने से
या अनुचित प्रकार से प्राथमिकताअो के निर्धारण के कारण है




Monday, November 12, 2012

बन्धु,बन्दुक और बंधुवर

http://www.cs.northwestern.edu/~holger/WWWMasters/Project/graphics/cartoon.GIF 
एक बहुत प्रचलित कहावत है
दूसरे के कंधे पर बन्दुक रखकर
चलाना
अर्थात दूसरे व्यक्ति को अपने हित के लिए
 इस्तेमाल  करते हुए
उस व्यक्ति से
किसी तीसरे व्यक्ति को क्षति कारित करना

यह एक अत्यंत प्राचीन कला है
जिसे कूटनीति के रूप में

राजा महाराजाओं द्वारा समय समय पर
इसका प्राचीनकाल में  इस्तेमाल किया जाता रहा है

वर्तमान में इस कला का इतना व्यापक प्रचार प्रसार हो गया है कि
बड़े बड़े राज नेताओं से लगाकर छुटभैये नेता तक
इसका उपयोग करने में लगे हुए है

यहाँ तक कि हर व्यक्ति बन्दुक चलाने के लिए
दूसरे के कंधे का ढूँढने में लगा हुआ है  
 इस कला का उपयोग अक्सर उन लोगो द्वारा किया जाता है
जो स्वयं किसी प्रकार कि बुराई नहीं लेना चाहते 
परन्तु अपने स्वार्थ के लिए दूसरो को बुरा बनाना चाहते है
समाज में ऐसे लोगो को स्वयं को बन्धु कहलाने का 
ज्यादा शौक होता है 
विश्व बंधुत्व का सन्देश देते हुए 
ऐसे लोग बंधुत्व कि भावना का प्रचार का आभास भी देते रहते है
बन्दुक तो प्रतीक है
बन्दुक का आशय किसी प्रकार का आग्नेय अस्त्र नहीं है

बन्दुक कि गोली से अधिक मारक क्षमता तो
जिव्ह्वा कि बोली में होती है

इसलिए जब कोई कहे कि उस व्यक्ति द्वारा
दुसरे के कंधे पर बन्दुक रख दी गई है

तब यह समझना उचित होगा है
अपने हित या दूसरे के हित को क्षति कारित करने

का वक्तव्य उसने स्वयं न देकर
किसी अन्य व्यक्ति से दिलवाया है

इस कला का लाभ यह है कि
 सम्बंधित व्यक्ति को सन्देश भी पहुँच जाय

सन्देश कि तीक्ष्णता भले ही
पीड़ित व्यक्ति को कितना भी घायल कर दे

उसे अहसास भी नहीं हो पाता है
कि वास्तव में सन्देश या दुराशय किसका है
इस कला का यह पक्ष यह भी है कि
पीड़ित
पक्ष में वह व्यक्ति भी शामिल होता
जिसके कंधे पर बन्दुक रखकर चलाई गई है 



रूप चौदस या नरक चौदस

दीपावली पर महालक्ष्मी पूजन अर्थात अमावस्या के एक दिन पूर्व
चौदस की तिथि को रूप चौदस या नरक चौदस के रूप में 
संबोधित किया जाता है
मान्यता है की रूप चौदस को श्रृंगार पक्ष पर
 विशेष ध्यान दिया जाता है
जब हम रूप या श्रृंगार के विषय पर विचार करते है तो
अच्छे स्वास्थ्य के बिना रूप की कल्पना तक नहीं की जा सकती है 
स्वास्थ्य की अनदेखी कर कोई भी व्यक्ति रूपवान नहीं हो सकता है
स्वास्थ्य के बिना किया गया श्रृंगार कृत्रिमता लिए हुए होगा
 रूप  चौदस के एक दिन पूर्व को  धन तेरस को
धन्वन्तरी जयंती के रूप में भी मनाया जाता है

धन्वन्तरी आयुर्वेदाचार्य थे तथा सम्राट विक्रमादित्य के समकालीन थे
उज्जैन जिले के महिदपुर नगर के निकट 
धन्वन्तरी महादेव का मंदिर विद्यमान है
जहां भगवान् शिव माता पार्वती के साथ 
प्रतिमा रूप में दृष्टिगत होते है
मान्यता है की मंदिर के समीप कुए के जल कई रोग दूर होते है
माना जाता है की इस स्थान पर 
धन्वन्तरी की प्रयोगशाला स्थित थी
इसलिए कुए में ओषधिय रसायन की 
संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है
रूप चौदस के एक दिन पूर्व स्वास्थ्य को ठीक रखने हेतु
आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरी से आशीष लेकर 
अच्छे स्वास्थ्य की कामना करने से
जो रूप मिलेगा उसमे कृत्रिमता नहीं होगी नैसर्गिकता रहेगी
नैसर्गिकता भरे रूप में ही शिव शंकर पार्वती विराजमान रहते है
 इसलिए आयुर्वेदाचार्य  धन्वन्तरी  की महिदपुर स्थित
अनुसंधानशाला
पर महादेव पार्वती का मंदिर विद्यमान है
रूप केवल व्यक्ति के बाहरी आकार
प्रकार से निर्धारित नहीं होता है
आतंरिक गुणों का अत्यधिक महत्त्व होता है

इसलिए रूप चौदस को नरक चौदस के रूप में भी 
सम्बोधित किया जाता है
ऐसा इसलिए भी कहा जाता है कि
भगवान् कृष्ण ने भौमासुर नामक ऐसे राक्षस का वध 
 इस दिन किया था
जिसने भिन्न -भिन्न राज्यों की रूपवान राजकुमारियो का 
हरण कर बंदी बनाया था
राक्षस ने रूपवान राजकुमारियो के रूप का
उनकी इच्छा के विरुध्द उपभोग किया था

भगवान् कृष्ण द्वारा इस दिन भौमासुर राक्षस के वध का 
आशय यह है कि रूप हो या अच्छा स्वास्थ्य हो 
वह भोग कि नहीं योग कि विषय वस्तु है
जो व्यक्ति अच्छे स्वास्थ्य का आश्रय ले सुन्दर रूप का 
 उपभोक्ता प्रवृत्ति से उपभोग करेगा
उसका शीघ्र विनाश सुनिश्चित है योग में भगवान कृष्ण है
भोग में भौमासुर है भोग से अंत है जैसा कि भौमासुर का हुआ था
योग में योगेश्वर है योगेश्वर शिव है कृष्ण है

Sunday, November 11, 2012

धन तेरस एवं कुबेर देव

http://www.rudraksha-ratna.com/images/lord-kuber.jpg 

दीपावली के त्यौहार पर धन तेरस की तिथि पर
लोग स्थावर अथवा चल संपत्ति का क्रय -विक्रय करते है
मान्यता है की धन तेरस को कुबेर देवता की
पूजा किये जाने से स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है
प्रश्न यह है कि कुबेर देवता की पूजा से
स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति क्यों होती है ?
कुबेर देवता देवताओं के कोषाध्यक्ष है
देवताओं का कोष अक्षय रहता है
संपत्ति अक्षय रहे इसके लिए संपदा का
दैविक होना अनिवार्य है
आसुरी संपदा सरलता से प्राप्त हो सकती है
क्षणिक सुख सुविधाए प्रदान कर सकती है
परन्तु उसकी अक्षयता और स्थिरता
उसकी प्राप्ति किये जाने के साधनों पर निर्भर रहती है
कुबेर देव रावण के भ्राता थे तथा स्वर्णिम लंका के अधिपति थे
 लंका की रचना भगवान् विश्वकर्मा द्वारा
 पवित्र साधनों से अर्जित धन संपदा से की गई थी
लंका में सम्पूर्ण रूप से वैभव सुख सुविधाओं से
सुसज्जित होकर चहु और सिन्धु जल से सुरक्षित थी
परन्तु रावण द्वारा अपनी आसुरी शक्ति के बल पर
अपने भ्राता कुबेर से छीन लिया गया
कुबेर देव राज्य विहीन हो गये
किन्तु उन पर माता महालक्ष्मी की असीम आशीष था
इसलिए वे देवताओं के कोषाध्यक्ष बने
उन्हें देवताओं का अक्षय कोष प्राप्त हुआ
कालांतर में कुबेर देव से छीन ली गई
स्वर्णिम लंका और अवैध रूप एकत्र किये गये धन को
मारुतिनंदन हनुमान द्वारा भस्म कर दिया गया
अर्थात रावण आसुरी संपदा का स्वामी था
जो क्षयशील अवस्था में रही
कुबेर देव दैविक संपदा के स्वामी थे
इसलिए उनसे छल-बल पूर्वक संपदा
रावण द्वारा हर लिए जाने के बावजूद
उन्हें देवताओं का अक्षय राज कोष प्राप्त हुआ
तात्पर्य यह है की स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए
यह आवश्यक है की
उसकी प्राप्ति श्रेष्ठ साधनों द्वारा की जाय
तथा कुबेर देव जैसी सात्विक मानसिकता रखी जाय
लुटी हुई किसी से छीनी गई ,चुराई गई संपदा
कभी भी स्थिर और अक्षय नहीं रहती है