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Wednesday, December 26, 2012

UNIVERSE: तृष्णा ,तृप्ति और परम तत्व

UNIVERSE: तृष्णा ,तृप्ति और परम तत्व: तृष्णा और तृप्ति दोनों परस्पर विपरीत अर्थ वाले शब्द है जहा तृप्ति संतुष्टि प्रदान करता है वहा तृष्णा व्याकुलता अ...
तृप्त रही है आत्मा ,तृप्त रहा तन मन
तृष्णा तो अनंत रही ,सदा तृप्त सज्जन 

rachana: प्रवाह

rachana: प्रवाह

Tuesday, December 25, 2012

तृष्णा ,तृप्ति और परम तत्व


तृष्णा और तृप्ति 
दोनों परस्पर विपरीत अर्थ वाले शब्द है
जहा तृप्ति संतुष्टि प्रदान करता है 
वहा तृष्णा व्याकुलता असंतोष का परिचायक है
प्रत्येक व्यक्ति तृष्णा के विषय भिन्न -भिन्न हो सकते है 
पैमाने अलग -अलग हो सकते है
किस व्यक्ति की तृष्णा किस विषय वस्तु से जुडी है 
किस व्यक्ति को किस विषय वस्तु से तृप्ति प्राप्त हो सकती है 
यह उस व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिचायक होता है
तृष्णा का कोई अंत नहीं है जबकि तृप्ति का है
तृप्ति का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के संतुष्टि के स्तर पर निर्भर होता है
संतुष्टि की अनुभूति किसी व्यक्ति को मात्र कुछ अंश 
प्राप्त होने से हो सकती है
जबकि बहुत से व्यक्तियों को जीवन में बहुत कुछ मिलने के बाद भी वे सदैव असंतुष्ट अतृप्त रहते है
ऐसे व्यक्ति वास्तव में कहा जाय तो 
मानसिक रूप से दरिद्र होते है
इसलिए वास्तविक तृप्ति आंतरिक दरिद्रता 
दूर किये जाने से ही प्राप्त हो सकती है
जो व्यक्ति आंतरिक रूप से सम्पन्न होते है 
उन्हें जीवन में सफलता सीघ्र प्राप्त होती है
आंतरिक दरिद्रता अच्छी पुस्तको के अध्ययन सत्संग से संभव है
महाभारत में दुर्वासा एवं उनके हजारो शिष्यों के 
वनवासी पांडवो के घर आना
भोजन के लिए व्यवस्था किये जाने के लिए कहना 
 और भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा पांड्वो के बर्तनों में से अवशेष रहे खाद्य पदार्थ का तुलसी पत्र से सेवन करने पर 
दुर्वासा और उनके शिष्यों का अचानक स्नान किये जाने के 
दौरान तृप्ति का अनुभव करना यह दर्शाता है
परमपिता परमात्मा परम तृप्ति का पर्याय है
तात्पर्य यह है जो व्यक्ति परमात्मा के जितने समीप है 
वह उतना ही तृप्त है संतृप्त है
जो व्यक्ति अतृप्त है तृष्णाओ से घिरा हुआ है 
वह मानसिक रूप से दरिद्र होने के साथ- साथ
परम तत्व से दूर है

Sunday, December 23, 2012

अव्यक्त व्यथा


वर्तमान में समाज में
ऐसी महिलाओं की संख्या बढती जा रही है
जिन्हें किन्ही कारणों से उनके पति द्वारा परित्यक्त कर दिया गया है
ऐसी महिलाओं के साथ नन्हे बच्चे हो तो स्थिति विकट हो जाती है महिला और बच्चो के सम्मुख जीवन मरण का प्रश्न खडा हो जाता है परिस्थतियो से समझौता करना उनकी नियति बन जाती है
कालान्तर में जाकर ऐसी महिलाओं पर
जार कर्म के आरोप लगा दिए जाते है
वस्तुत: क्या ऐसे पतियों का महिला पर जार कर्म का आरोप लगाने का क्या अधिकार शेष रह जाता है ?
जिसने अपनी पत्नी और बच्चो का समुचित भरण पोषण न कर आजीविका के मूलभूत साधन तक छीन लिए हो
पति और पत्नी के मध्य संताने सेतु का कार्य करती है
संतानों के प्रति उपेक्षा यदि किसी जनक द्वारा की जाती है
तो संतानों के ह्रदय में अपने पिता के प्रति विद्रोह उत्पन्न होना स्वाभाविक है
ऐसे पिटा जो अपनी संतानों की उपेक्षा कर देते है
उनका समाज में कही भी सम्मान जनक स्थान नहीं रह जाता है
तथा ऐसी संतानों के माता पिता के मध्य सुलह की संभावना भी क्षीण रह जाती है
शनै शनै ऐसा दायित्वबोध से विहीन पति
और पिता परिवार और समाज में अपनी उपयोगिता खो देता है
उसका देहिक रूप से विद्यमानता अनौचित्य पूर्ण हो जाती है
हमारे में ऐसे पुरुषो की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है
जो अपने जीने के अर्थ खो चुके है
सामान्य रूप से व्यक्ति अपने लिए
अपने परिवार अपने समाज के लिए
अपने देश के लिए जीवन व्यतीत करता है
जो व्यक्ति न तो देश के लिए समाज के लिए
न परिवार के लिए अपना जीवन की सार्थकता प्रमाणित न कर पाया हो वह व्यक्ति स्वयं के उत्थान के लिए कुछ प्रयास कर रहा होगा
इसमें संशय है

भाग्य और पुरुषार्थ


भाग्य और पुरुषार्थ एक सिक्के के पहलु है
कुछ व्यक्ति भाग्य के भरोसे रहते है
अर्थात
वह अपने पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं करते
कुछ लोग पुरुषार्थ पर ही विश्वास करते
भाग्य के भरोसे नहीं रहते
भाग्य वादी दर्शन के कारण कितने भविष्य वक्ता अपना भाग्य बना रहे है भविष्य वक्ताओं से भ्रमित होकर
कई भाग्य वादी अपना वर्तमान और भविष्य खराब कर रहे है
कई लोग जीवन में प्राप्त हो रही असफलताओं
के पीछे अपना दुर्भाग्य होना बता रहे है
वास्तव में भाग्य और पुरुषार्थ के सिद्धांतो में से
कौनसा सिद्धांत सही है
किस मार्ग का अनुसरण हमारे लिए श्रेयस्कर होगा
इस विषय पर यह हमें यह विचार करना चाहिए की
आखिर भाग्य क्या है ?
भाग्य भगवान् शब्द से बना है
अर्थात जो व्यक्ति भाग्य पर भरोसा करता है
उसे भगवान् पर भरोसा करना चाहिए
यदि कोई व्यक्ति भगवान पर भरोसा करता है
तो यह बात समझनी चाहिए की
भगवान् कभी अकर्मण्य व्यक्तियों का सहयोगी नहीं हो सकता है
यद्यपि कुछ व्यक्तियों को जीवन में कुछ उपलब्धिया
भाग्य के कारण हासिल हुई दिखाई देती है
परन्तु सूक्ष्मता से देखने पर ज्ञात होगा की
वह उस व्यक्ति के पूर्व कर्मो का परिणाम है
भौतिक जगत में हमारी दृष्टि व्यक्ति के मात्र वर्तमान
जन्म से जुड़े कर्मो को ही देख पाती है
जबकि व्यक्ति तो आत्मा और देह का सम्मिश्रण है
आत्मा प्रत्येक जन्म में भिन्न भिन्न देह धारण करती है
देह की आयु पूर्ण होने पर व्यक्ति का भौतिक स्वरूप देह नष्ट हो जाती है आत्मा के साथ व्यक्ति के संस्कार और कर्म रह जाते है
जो व्यक्ति के भावी जन्मो में उसका भाग्य निर्धारित करते है
इसलिए पुरुषार्थ को भाग्य से भिन्न नहीं माना जा सकता है
क्षमतावान और पुरुषार्थी व्यक्ति सदा आस्तिक रहता है
अर्थात वह एक हाथ में भाग्य और दुसरे हाथ में पुरुषार्थ रख कर
कर्मरत रहता है
गीता में इस सिध्दांत को कर्मयोग के रूप में संबोधित किया है
ऐसा व्यक्ति अपना कर्म पूर्ण समर्पण परिश्रम से करता है
परन्तु अहंकार की भावना को परे रख कर
स्वयम की कार्य क्षमता को ईश्वरीय कृपा ही मानता है
परिणाम स्वरूप ऐसा व्यक्ति कभी भी दुर्भाग्य को दोष नहीं देता
ऐसे व्यक्ति को ही भगवान् अर्थात भाग्य की कृपा प्राप्त होने लगती है

Friday, December 21, 2012

कुशल प्रशासन और अन्वेषण दृष्टि


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प्रशासन तथा प्रबंधन के क्षेत्र में अक्सर यह देखा जाता है
जो कर्मचारी कार्य के प्रति समर्पित रहते है
उन्हें और अधिक दायित्व सौप दिए जाते है
जो कर्मचारी काम से जी चुराते है उन्हें
महत्वहीन मान कर प्रबंधन ऐसे स्थान पर नियुक्त कर दिया जाता है
जिससे परिणामो पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता हो
परन्तु प्रशासन का यह तरीका क्या सही है ?
बिलकुल नहीं
इस प्रक्रिया से तो निकम्मे कर्मचारी
और भी अधिक आलसी हो जाते है
और कर्मठ कर्मचारी निराश और हतोत्साहित
कुशल प्रशासक और प्रबंधक तो वह व्यक्ति है
जो अकर्मण्य लोगो से उनके अनुरूप बेहतर काम ले सके
और कर्मठ व्यक्तियों को प्रोत्साहन देते हुए
उन्हें निरंतर कीर्तिमान स्थापित करने हेतु प्रेरित कर सके
प्रशासक और प्रबंधक की कुशलता इसमें नहीं है
की वह कर्तव्य परायण लोगो से ही कार्य लेता रहे
और निकम्मों को स्वच्छंद छोड़ दे
बल्कि उसकी कुशलता इसमें निहित है की
वह न काम करने वालो से काम ले सके
इसे ही प्रशासनिक दक्षता कहा जा सकता है
क्षमतावान प्रशासक नितांत अनुपयोगी व्यक्ति में भी
उसमे छुपी निहित क्षमता की पहचान कर क्षमता के अनुरूप कार्य ले लेता है
अक्षम प्रशासक को प्रत्येक व्यक्ति में 
किसी न किसी प्रकार की कमी दिखाई देती है
परिणाम स्वरूप वह किसी भी कर्मचारी का उचित उपयोग नहीं कर पाता है
यह उल्लेखनीय है कि कोई भी व्यक्ति अनुपयोगी नहीं होता
प्रत्येक व्यक्ति में किसी न किसी प्रकार कि क्षमता विद्यमान होती है
यह अवश्य है कि व्यक्ति कि क्षमता को पहचानने हेतु
प्रशासकीय अन्वेषण दृष्टि होनी चाहिए

Monday, December 17, 2012

रक्त बीज


माँ दुर्गा जिसे नवरात्रि में प्रसन्न करने के लिए
जप तप व्रत अनुष्ठान किये जाते है
कुछ लोग स्वयम को ईश्वरीय मात्र सत्ता के
समीपता का अनुभव करते हुए मिथ्याभिमान पाल लेते है
दुर्गा सप्त शती में उल्लेख है रक्त बीज नामक राक्षस
जिसकी प्रत्येक रक्त बूँद से नवीन राक्षस उत्पन्न हो जाता था
क्या कभी हमने सोचा है की प्रत्येक व्यक्ति के भीतर
एक रक्त बीज विद्यमान है
जिसे हमारे ह्रदय में विराजमान ईश्वरीय सत्ता संहार करना चाहती है
पर हम अपने भीतर के रक्त बीज को पोषण देते रहते है
परन्तु ह्रदय में विराजमान ईश्वरीय शक्ति को जाग्रत नहीं करते
रक्त बीज हमारे मन में विद्यमान कुविचार है
कुविचार हमें करते कुकर्म की और प्रवृत्त करते है
विचार की श्रृंखला एक बार प्रारम्भ होने पर आसानी से टूट नहीं पाती है
एक कुविचार को कई कुविचारो और कुकर्मो को जनक होता है
नवरात्री में साधना के दौरान हमारे भीतर की
दैवीय सत्ता जैसे ही एक कुविचारो का दमन करती है
वैसे दूसरा कुविचार तीव्र गति से उठ जता है
दूसरा कुविचार को पुन दैवीय शक्ति समाप्त करती है
तो तीसरा कुविचार शिर उठाने लगता है
यह संघर्ष जब अंतहीन होने लगता है
तो हमें अपने भीतर स्थित माँ नव दुर्गा का आश्रय लेना होता है
अर्थात क्रिया की त्रि-शक्ति को अवलंबन लेना होता है
तब हमारे भीतर स्थित देवीय शक्ति मन में उठने वाले
दुष्ट विचारों का शमन न कर वध करती है
वध भी इस प्रकार से करती है की दूसरा तीसरा या कोई भी
कुविचार पुन उत्पन्न हो ही नहीं
इस प्रकार से हमारी नव दुर्गा साधना सफल होकर
हमें सच्चे अर्थो में दैवीय आशीर्वाद प्रात होता है

राज धर्म,और राम राज्य


राज धर्म, राम राज्य कितने आकर्षक और कर्णप्रिय शब्द है
परन्तु क्या राज धर्म का पालन इतना आसान है
सर्व प्रथम राज धर्म किसे कहते है
इस विषय को जानना हो तो
रामायण में श्रीराम के अनुज भरत
और उनकी प्रशासन प्रणाली की और दृष्टिपात करना होगा
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के वनवास गमन के पश्चात
उनके अनुज भरत द्वारा अयोध्या में राम राज्य की घोषणा की गई थी
स्वयं राज सिंहासन पर आसीन न होकर
श्रीराम को की चरण पादुका को सिंहासन पर स्थान दिया गया
स्वयं तपस्वी वेश में नगर के बाहर झोपड़ी बना कर रहने लगे
झोपड़ी से ही भरत प्रशासन चलाते थे
जिससे उनको आम आदमी की पीड़ा की अनुभूति होती थी
सिंहासन पर स्वयं आरूढ़ न होकर
श्रीराम की चरण पादुका रखे जाने से
उन्हें सत्ता का अहंकार नहीं रहता था
तथा सत्ता और राजसी वैभव से कोई लगाव नहीं था
वे तो स्वयम को सत्ता न समझ कर
परम सत्ता श्रीराम के प्रतिनिधि समझते थे
अर्थात वे अयोध्या राज्य को भगवान श्रीराम की अनुपस्थिति में
उनकी ही धरोहर समझ कर स्वयम को उस धरोहर का रखवाला
अर्थात न्यासी मानते थे सत्ता के प्रति यह न्यासी भाव ही
भरत को महात्मा भरत बनाता है
न्यासी भाव ही भरत की राज्याधिकारी रहते हुए महान सन्यासी बनाता
वर्तमान में क्या हमारे सत्ताधीश राज धर्म का पालन कर रहे है
महात्मा भरत की राम राज्य की भावना से देखे तो
बिलकुल नहीं
जबकि सभी लोग राज धर्म और राम राज्य की बाते करते है
परन्तु सत्ता के प्रति वह न्यासी भाव कहा है
इसके विपरीत सत्ता के प्रति भूख दिखाई देती है

Monday, December 10, 2012

उर्मिला


रामायण मे जितना ध्यान
भगवान श्रीराम की भूमिका पर दिया गया है
उतना उनके अनुज लक्ष्मण
तथा उनकी पत्नि उर्मिला
की भूमिका पर नही दिया गया है
जबकि लक्ष्मण जैसा भ्राता
जिसने अपने भ्रात्र प्रेम के कारण अपनी नव विवाहिता पत्नि को
चौदह वर्षो के लिये त्याग दिया हो
विश्व मे कही भी ऐसा उदाहरण नही है
जितना त्याग लक्ष्मण ने किया उतना ही त्याग उनकी पत्नि
उर्मिला ने भी किया
चारो युग मे उर्मिला जैसी स्त्री मिलना संभव नही है
जिसने अपने पति लक्ष्मण को त्याग करने का अवसर दिया हो
वर्तमान मे जहॅा महिलाये अपने तुच्छ एवम संकिर्ण स्वार्थो की पूर्ति के लिये
परिवार मे कलह का वातावरण निर्मित कर देती है
उन महिलाअो के लिये महासति उर्मिला अनुकरणीय उदाहरण है
क्या कोई स्त्री का व्यक्तित्व इतना महान हो सकता है
जो विवाह के तुरन्त पश्चात चौदह वर्ष की दीर्घ अवधि तक
पति के विरह का दुख भोग सके
वास्तव मे इस प्रकार से कोई महिला तभी
तत्पर हो सकती है
जिसने अपने ह्रदय के अन्तकरण से किसी
पुरुष को चाहा हो वर लिया हो
मात्र देहिक अाकर्षण के अाधार पर जीवन साथी नही बनाया हो
इसलिये ऐसी महिला हो उर्मिला के रुप मे संबोधित किया गया है
उर अर्थात ह्रदय उर्मिला का अाशय यह है कि
जिसने ह्रदय से ह्रदय को जोडा हो
उर्मिला ने मात्र स्वयम को ही अपने अाप को
अपने पति लक्ष्मण के ह्रदय से नही जोडा
अपितु लक्ष्मण के ह्रदय को श्रीराम 
के ह्रदय को जुडने भी
महति भूमिका निर्वाह की
वर्तमान मे भी उर्मिला की भूमिका प्रासंगिक है
उर्मिला जैसे अाचरण की स्त्रिया जिस परिवार मे हो
वहा लक्ष्य प्राप्ति को तत्पर लक्ष्मण बनना
किसी भी व्यक्ति के लिये संभव है
अौर लक्ष्मण जैसे व्यक्ति को
श्रेष्ठ उद्देश्य रूपी राम को पाने से कौन रोक सकता है

अास्तिकता मे निज अस्तित्व का बोध


विश्व कितने ही धर्म हो दर्शन हो सिध्दान्त हो
सम्पूर्ण विश्व मे दो प्रकार के व्यक्ति विद्यमान है
पहले वे जो ईश्वर के प्रति अास्था रखते है
ऐसे लोगो को अास्तिक के रुप मे सम्बोधित किया जाता है
दूसरे वे लोग होते है जो ईश्वरीय सत्ता को नकारते है
ऐसे लोग नास्तिक कहलाते है
प्रश्न यह है कि दोनो प्रकार के व्यक्तियो के व्यवहारिक जीवन मे 
 भेद कहा होता है
अास्तिक रहने क्या लाभ है ?
नास्तिक व्यक्ति को किस प्रकार की हानिया होती है या उन्हें लाभ भी होते है
नास्तिक व्यक्ति या तो इसलिये होता है
कि उसे अतीत मे ईश्वरीय अास्था की भारी कीमत चुकानी पडी होगी
या उसे स्वयम की क्षमता पर जरूरत से अधिक विश्वास होता है
या उसे यह ज्ञात होता है कि अास्तिक बने रहने मे 
अत्यधिक कठिनाईया है
रीति -नीती परम्पराअो संस्कारो का पालन करना उसकी विवशता रहेगी
ईश्वरीय भय से निरन्तर उसे ग्रस्त रहना होगा
ऐसे मे वह सुविधा भोगी जिन्दगी जी नही पायेगा
परन्तु ऐसे मे नास्तिक व्यक्ति यह भुल जाता है
कि प्रत्येक व्यक्ति की सीमीत क्षमता होती है
व्यक्ति कितना ही परिश्रम कर ले असफलता की सम्भावना बनी रहती है
असफल होने के कारण नास्तिक व्यक्ति निराशा के अन्धकार से घिर जाता है
परिणाम स्वरूप वह तरह -तरह के व्यसनो मे लिप्त हो जाता है
अन्तत ऐसा व्यक्ति अात्म हत्या की अोर अग्रसर हो जाता है
नास्तिक व्यक्ति को ईश्वरीय सत्ता का भय न होने से
तरह-तरह के अधम कर्मो मे लिप्त रहता है
अन्तत वह अपराध जगत मे प्रवेश कर क्रूर अपराधो की अोर प्रव्रत्त होता है
अास्तिक होने के कई लाभ है
प्रथम लाभ यह है कि व्यक्ति निरन्तर निश्चिंत रहता है
सतत उसे स्वयम पर ईश्वरीय अाशीष की अनुभूति प्रतीत होती रहती है
कठिन परिश्रम करने पर उसे सफलता मिल जाती है
तो वह उसे ईश्वर का अाशीर्वाद समझ कर
सफलता को प्रसाद के रूप ग्रहण कर परम सन्तुष्टि 
परमानन्द का अनुभव करता है
अास्तिक व्यक्ति को असफलता प्राप्त होने पर वह निराश नही होता
उसे ईश्वर की इच्छा मान कर नये सिरे से 
लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रयत्न रत हो जाता है
समय अाने पर ऐसा व्यक्ति वांछित लक्ष्य तो प्राप्त करता ही है
साथ ही उसे ईश्वरीय अाशीर्वाद के रूप मे 
पूरक परिणाम भी प्राप्त हो जाते है
जिनसे उसके लक्ष्य का मूल्य कई गुना हो जाता है
अास्तिक व्यक्ति निराश होने पर कभी भी अात्म हत्या नही करता है
अास्तिक व्यक्ति व्यसनो का अादि नही होता
एेसे व्यक्ति जो अास्तिक रहते हुये व्यसनो के अादि होते है
उनमे व्यसनो से मुक्त होने की पर्याप्त सम्भावना बनी रहती है
अास्तिक होने का दूसरा लाभ यह है
ऐसा व्यक्ति के साथ ईश्वरीय सत्ता की
निरन्तर उपस्थिति उसे अधम कर्म करने से रोकती है
पाप पुण्य स्वर्ग -नरक की अवधारणाये
उसे अपराध की अोर प्रव्रत्त नही होने देती
जिससे व्यक्ति महानता को प्राप्त करता है
इसलिये हे नास्तिक तुम अास्तिक बनो
अास्तिक बन कर अच्छे नागरिक बनो



Saturday, December 8, 2012

वयम पंचाधिक शतकम

 

निकट सम्बन्धो मे सौहार्दता विकास का प्रमुख अाधार है
व्यक्ति समाज या देश हो या चहुमुखी विकास तभी सम्भव है
जबकि हम अपने निकटवर्ती सम्बन्धो मे जटिलताये ,समस्याये ,उत्पन्न न होने दे
जब हम देश की बात करते है तो विकास की दौड मे वे देश अत्यन्त पिछडे हुये है
जिनके निकटस्थ देशो से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध नही है
परिवारो की बात करे तो परिवार विखण्डित हो रहे है
देश भिन्न धर्मो ,क्षैत्रो मे,धर्म अौर क्षैत्र जातीयो प्रजातियो मे
समाज समूहो मे विभाजित हो रहे है
कही भी कोई सहमति के बिन्दु तलाशे नही जा रहे है
असहमतियो ,अाशंकाअो , ने हमारे चिन्तन को जकड लिया है
सकारात्मक सोच से हम समाधान प्राप्त करने मे रूचि नही रख
अपनीरचनात्मकता को दिशा नही दे पाये है
ऐसे परिवार जिनमे परस्पर विवाद नही है
वे प्रगति की दौड मे बहुत अागे हो चुके है
जिन देशो के अपने निकटवर्ती देशो से सीमाअो के विवाद है
नदीयो के जल के बॅटवारो के बारे मे कोई सहमति नही है
वे प्रगति की पायदान मे बहुत नीचे है
विकसित देश अमेरिका ,इग्लैंड,फ्रांस ,रूस इत्यादी
शक्तिशाली देशो के अपने पडोसी देशो से
सीमाअो के सम्बन्ध मे या तो कोई विवाद नही है
यदि विवाद होंगे तो भी उनकी तीव्रता सीमा से अधिक नही है
अाज हमारे देश के सीमा विवाद इतने अधिक है
कि देश की अर्थव्यवस्था का अधिकतम बजट
सुरक्षा पर खर्च हो जाता है
पारिवारिक द्रष्टि से भी ऐसा परिवार
जिसमे परस्पर निकट सम्बन्धो मे विवाद हो
उत्थान नही कर पाता है
सामजिक वैमनस्यता का भाव
किसी समाज को विकास को दुष्प्रभावित करता है
परिवार के वरिष्ठ सदस्य से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि
वह बडप्पन दिखाये
ह्रदय का छोटापन वह छोटे सदस्यो के लिये छोड दे
महाभारत मे द्रष्टान्त अाता है कि
जब दुर्योधन को गन्धर्व राज बन्दी बना कर ले जाने
लगे तो पान्डवो ने प्रतिरोध किया था
उन्होने दुर्योधन का साथ दिया था
तर्क यह दिया था परिवारिक विवाद अपने स्थान पर है
जब कोई बाहरी व्यक्ति अाघात करेगा तो हम एक है
अर्थात वयम पंचाधिक शतकम


Saturday, December 1, 2012

त्रिशंकु


त्रिशंकु शब्द अस्थिरता के अनिश्चय के लिये
उपयोग मे लाया जाता है
प्रश्न यह है कि त्रिशंकु कौन थे
वे अस्थिरता अनिश्चय के पर्याय क्यो बन गये
त्रिशंकु नामक प्राचीन काल मे महान तथा प्रतापी राजा थे
जो भगवान श्रीराम के पूर्वज थे
दो महान महर्षियो की प्रतिस्पर्धा
तथा स्वयम के सशरीर स्वर्ग जाने के हठ के कारण
उनकी यह स्थिति हुई
महाराजा त्रिशंकु यह चाहते थे कि वे सशरीर स्वर्गारोहण करे
उनकी इस इच्छा की पूर्ति के लिये वे तत्कालिन महर्षी वशिष्ठ के पास पहुॅचे
जो ब्रह्म विद्याअो के ग्याता थे
महर्षी वशिष्ठ द्वारा उन्हे नियति के विधान से बॅधे होने का कारण बता कर
उनकी इच्छा पूरी करने से इन्कार कर दिया
उस समय अपने पुरूषार्थ के बल राजा से
ब्रहम रिषियो मे शामिल हुये महर्षि विश्वामित्र
का तप अौर कीर्ति चरम पर थी
महर्षि विश्वामित्र के द्वारा महाराजा त्रिशंकु को
उनकी इच्छा पुर्ति का अश्वासन दिया गया
तथा इस हेतु उनके द्वारा अनुष्ठान प्रारम्भ किया गया
नियति के विधान के विपरीत किसी
व्यक्ति को स्वर्ग पहुॅचाने का यह पहला प्रयास था
इसलिये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मे खल-बली मच गई
स्वर्ग के अधिपति देवराज इन्द्र अत्यन्त विचलित हो गये
उन्होने महर्षि विश्वामित्र के अनुष्ठान का विरोध किया
महर्षि विश्वामित्र अत्यन्त संकल्पवान तपस्वी थे
उन्होने देवराज इन्द्र को चेतावनी दी कि
यदि उन्होने महाराजा त्रिशंकु को अपने स्वर्ग लोक मे
सशरीर अाने की अनुमति नही दी तो
वे नये स्वर्ग की रचना कर महाराजा त्रिशंकु की इच्छा पूर्ण करेंगे
सफलता पूर्वक अनुष्ठान पूर्ण होने पर
जब सशरीर महाराजा त्रिशंकु को महर्षि विश्वामित्र ने
उर्ध्व दिशा मे भेजना प्रारम्भ किया तो
देवराज इन्द्र ने उन्हे स्वर्ग मे सशरीर प्रवेश करने से रोक दिया
ऐसी स्थिति मे त्रिशंकु भूलोक अौर स्वर्ग लोक के मध्य अधर मे
अन्तरिक्ष मे ही स्थिर हो गये
न तो वे स्वर्ग का सुख भौतिक शरीर के साथ उठा पाये
अौर नही भू-लोक मे अपनी सम्पूर्ण अायु पूर्ण कर
दिग दिगन्त मे अपनी कीर्ति को फैला पाये
कहने का अाशय यह है कि
जो व्यक्ति नियति का विधान तोडता है
विधी-विधान के विपरित कार्य करता है
लक्ष्य प्राप्ति के लिये संक्षिप्त मार्ग अपनाता
है उसकी दशा महाराज त्रिशंकु की तरह हो जाती है