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Friday, March 9, 2012

PARSURAM BHAG -2







परशुराम  भाग - २ ( रिचिक की राजा गधिक से भेट )


शेष से आगे ............ तपस्वी ऋषि रिचिक महाराज गधिक के राज्य मैं पहुंचे  राजा को जब उनके आगमन की सुचना मिली तो उन्होंने उनका भव्य सत्कार किया. धर्मानुसार सेवा की तब राजा बोले ऋषिवर आप ने पधार कर  मुझ पर विशेष कृपा की मुझे अपने आथित्य के योग्य समझा ये मेरा सोभाग्य हैं  कहिये मैं आपकी किस प्रकार से सेवा कर सकता हूँ.
रिचिक बोले महाराज मेरे यहाँ आने का उदेश्य  अतिविशेष हैं मैं यहाँ एक महान कार्य को प्रसस्त करने के लिए आया हूँ.
ये कार्य मुझे सर्वशक्तिमान भगवान् ने स्वयं करने को कहा हैं और इसके लिए आदेश दिया हैं  , गधिक बोले आप आज्ञा करे महाराज मैं आपकी क्या सेवा सहायता कर सकता हूँ 
रिचिक बोले राजन जिस कार्य की मैं बात कर रहा हूँ उसका उद्देश्य समाज मैं संतुलन लाने  और धर्म की संस्थापना से हैं, धर्म जिसकी  संस्थापना के लिए स्वयं भगवान् विष्णु जन्म लेंगे १ ऋषि ने गधिक को वर्तमान स्थिति से अवगत करवाया गधिक को समझ नहीं आया की भगवान् के आगमन और समाज के संतुलित करने मैं वो किस प्रकार सहायता  कर सकते हैं 
तब ऋषि ने कहा राजन मैं आप से एक वचन चाहता हूँ और आशा  करता हूँ  की आप उस वचन को पूरा करेंगें.
गधिक बोले - आप आज्ञा करे मैं अपना सर्वस्व इस कार्य के लिए दे सकता हूँ . तब ऋषि रिचिक ने कहा महाराज मुझे इश्वर ने ये आज्ञा दी हैं की मैं आपकी पुत्री से विवाह करूँ इस कार्य के उद्घाटन के लिए यही प्रथम चरण हैं.
महाराज गधिक ये सुनकर स्तब्ध रह गए.
ये आप क्या कह रहें हैं ऋषिवर ये केसे संभव हैं आप एक सन्यासी हैं तपस्वी हैं वैरागी हैं और मेरी पुत्री राजपुत्री हैं आप कुशा के घर मैं निवास करते हैं और मेरी पुत्री राजमहल मैं आप ने हर सुख का त्याग कर रखा हैं और मेरी पुत्री सुखो में रही हैं, दुःख कभी उसके निकट नहीं आया नहीं नहीं मेरी पुत्री का विवाह आपसे नहीं हो सकता ये असम्भव हैं. रिचिक को इस बात का अंदेशा था की राजन इस बात के लिए   राजी नहीं होंगें तत्पचात उन्होंने राजन को कठोर शब्दों में कहा महाराज ये स्वयं प्रभु  की आज्ञा हैं आपको इस का पालन करना होगा.
जब व्यक्ति को समाज और स्वयं के हित में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता हैं तो वो असमंजस में पड़ जाता हैं और कई बार वो स्वयं के हित को प्राथमिकता देता हैं.
और यहाँ तो बात महाराज की इकलोती पुर्त्री की हो रही हैं जो महाराज को अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं एक पिता होने के कारन गधिक रिचिक के वचन और स्थिति की गंभीरता को भूल गए.
रिचिक बोले महाराज एक पिता होने के कारन आप निर्णय नहीं ले पा रहें है की आप का धर्म क्या हैं प्राथमिकता क्या हैं इसमें कुछ गलत नहीं पर महाराज जब बात राष्ट्र और अपने परिवार में  से किसी एक के हित की हो किसी एक की रक्षा की हो जब इन दोनों में से किसी एक का चुनाव करना हो तब व्यक्ति को चाहिए की वो अपने राष्ट्र समाज को प्राथमिकता दे आप तो एक राजा हैं प्रजा हित को समझते हैं आप को संसय में नहीं पड़ना चाहिए,
जब राष्ट्र ही नहीं रहेगा तो शेष कुछ भी शेष नहीं रहेगा और महाराज इसका  दोष आपको लगेगा. कुछ विचार करिए.
महाराज गधिक को ऋषि की कोई बात प्रभवित नहीं कर पा रही थी वे संतान मोह में अंधे हो चुके थे पर इस बात से भी चिंता में थे की संसार उन्ही को दोष देगा अतः उन्होंने एक युक्ति सोची.

गधिक बोले महाराज में अपनी सुकुमारी पुत्री का विवाह आपसे करने के लिए तेयार हूँ पर इसके लिए आप को हमारी एक मांग पूरी करनी होगी 
रिचिक बोले कहिये महाराज क्या मांग हैं आपकी, गधिक बोले सुनिए ऋषि  हमारे यहाँ पुत्री के विवाह में एक रीती परम्परा हैं जिसके अनुसार वर वधु पक्ष में अपने स्वसुर को स्वसुर की इच्छा अनुसार कुछ भेट में देता हैं.
रिचिक समझ गए की राजन विवाह टालने की युक्ति कर रहें हैं पर वे शांत रहें, कहिये राजन क्या मांग हैं आपकी  में आप को क्या भेट करूँ ?
गधिक बोले मेरी आपसे ये मांग हैं की रीती के अनुसार आप मुझे श्वेत वर्ण वाले अस्व जिनका दया कर्ण(कान) काला हो एसे एक हजार अस्व मुझे भेट स्वरूप चाहिए.
गधिक को लगा की ऋषि ये मांग पूरी नहीं कर पाएंगे "
और न रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी लोकोक्ति सार्थक होगी ...........
ऋषि मन ही मन हस दिए और राजा से कहा राजन में आपकी  मांग पूरी करने का प्रयास करूँगा  गधिक बोले ये भेट दस दिनों के भीतर पूरी करने का रिवाज हैं में आपको वचन देता हूँ की यदि आप इस रीती का पालन करदे तो में अपनी सुकुमारी पुत्री को विवाह आप से कर दूंगा.
इसके बाद रिचिक भेट लाने की बात कहकर चल दिए......................
में शीग्र्हा पधारुन्गा महाराज आप विवाह की तेयारी कीजिये रिचिक चल  दिए ........................................( शेष भाग  कुछ ही समय में  )

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