धर्म वह जो कर्म को प्रखर कर दे
धर्म वह नही जो कर्म की गति को मंथर कर दे
वास्तव में धार्मिक होना और धार्मिक दिखना
अलग अलग बात है
धार्मिक होने और धार्मिक दिखने दोनों में अंतर है
जरूरी नही की जो मंदिर मस्जिद या गुरुद्वारा जाए
वह धार्मिक है धार्मिक वह भी हो सकता है
जो बिना किसी धर्म स्थल जाए शुभ कर्मों को धारण करता हो ।
कर्म ही चेतना है कर्म है जीवन है
जो कर्म से विमुख हो जो धर्म के नाम पर
दायित्व से पलायन करते है वे धार्मिक नही है
धर्म पलायन नही उत्तदायित्व की अनुभूति है
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